Friday, 26 October 2018




भारतवर्ष का इतिहास

- रविन्द्रनाथ ठाकुर

बंगाली केलेंडर के अनुसार भाद्र 1309 (अगस्त, 1903) में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर (टैगोर) ने मूलतः यह लेख बंगाली में लिखा था जिसे सुमिता भट्टाचार्य और सिबेश भट्टाचार्य ने अंग्रेजी में अनुवाद किया।

हम परीक्षाओं के लिए भारत के जिस इतिहास को पढ़ते और याद करते हैं, वस्तुतः वह तो भारत के लिए एक दुःस्वप्न जैसा है। कुछ लोग कहीं से आते हैं और नारकीय दृश्य उपस्थित हो जाता है। और फिर तो मानो सबको खुली छूट मिल जाती : आक्रमण और प्रत्याक्रमण, हिंसा और रक्तपात का मंजर दिल दहलाता है। सिंहासन के लिए पिता और पुत्र, भाई-भाई एक-दूसरे के साथ झगड़ते दिखाई देते हैं। यदि एक समूह रुकने का प्रयास करता है, तो दूसरा समूह मानो नीले आसमान से टपक पड़ता है; पठान और मुगल, पुर्तगाली और फ्रेंच और अंग्रेजों ने एक साथ इस दुःस्वप्न को और अधिक भयावह बना दिया।

लेकिन इस खूनी स्वप्नलोक में वास्तविक भारतवर्ष की चमक नहीं दिख सकती। यह इतिहास इस सवाल का जवाब भी नहीं देता कि उस दौर में भारत के लोग कहां थे? मानो भारत के लोग तो अस्तित्वशून्य ही हों, केवल दबे-कुचले, दीन-हीन और मारे गए लोग ही उल्लेखनीय हों।

रक्तपात और नरसंहार के उस सर्वाधिक पीड़ादायक समय में भी भारत में अनेक महत्वपूर्ण चीजें थीं। आंधी-तूफान के दिन भी, उसके भीषण गर्जन के बावजूद, केवल तूफान को ही सबसे महत्वपूर्ण घटना के रूप में नहीं माना जा सकता। आसमान में उमड़ते धूल के गुबार के बीच भी जीवन और मृत्यु का प्रवाह जारी रहता है, अनगिनत गांवों के घरों में खुशी और दुःख का प्रवाह भी चलता रहता है। लेकिन एक विदेशी यात्री को यह सब नहीं दिख सकता, उसके लिए तो तूफान ही सबसे महत्वपूर्ण बात है; वह समझता है कि इस धूल के बादल ने सब कुछ भस्म कर दिया। क्योंकि वह घर के अंदर नहीं है, वह बाहर है। यही कारण है कि विदेशियों द्वारा वर्णित इतिहास में हमें धूल धूसरित तूफानों का वर्णन मिलता है, लेकिन हमें घरों के बारे में एक शब्द भी नहीं मिलता। उनके लिखे इतिहास को पढ़कर तो ऐसा महसूस होता है कि मानो उस समय भारतवर्ष अस्तित्व में ही नहीं था; जैसे कि पठानों और मुगलों की विजय पताका उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक फहरा रही थी।

हालांकि, यह देवभूमि भी मौजूद थी, और देश व स्वदेशी का भाव भी विद्यमान था। अन्यथा, इतनी अशांति के बीच भी, कबीर, नानक, चैतन्य और तुकाराम को पसंद करनेवाले लोग कहाँ से आते? ऐसा नहीं था कि केवल दिल्ली और आगरा ही सबकुछ हों, भारत में काशी और नवदीप भी थे। वास्तविक भारत में तब भी जीवन की तरंग बह रही थी, आगे बढ़ने के प्रयास और सामाजिक परिवर्तनों की लहरें भी उठ रही थीं - इनमें से किसी का भी उल्लेख हमारे इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में ढूंढ़ने से नहीं मिलता।

लेकिन हमारा वास्तविक संबंध तो उस भारतवर्ष के साथ है जो हमारी पाठ्यपुस्तकों के बाहर है। यदि इस सम्बन्ध का इतिहास हम लम्बे समय तक भूले रहे तो हमारी आत्मा की स्थिति वैसी ही हो जाएगी, जैसे सागर में बिना पतवार का जहाज। आखिरकार, हम भारतवासी कोई खरपतवार या परजीवी पौधे नहीं हैं। कई सैकड़ों वर्षों से यही हमारा मूल है, इनमें से सैकड़ों और हजारों ने भारतवर्ष के दिल पर कब्जा कर लिया है। लेकिन, दुर्भाग्य से, हम वह इतिहास पढ़ने और सीखने को बाध्य हैं, जो हमारे बच्चों को यह तथ्य विस्मृत कराता है। ऐसा लगता है जैसे भारत में हम कुछ नहीं हैं; जैसे कि भारत में केवल बाहर से आए लोग ही मायने रखते हैं।

जब हम सीखते हैं कि हमारे देश के साथ हमारा सम्बन्ध इतना महत्वहीन है तो हमारे जीवन का उद्देश्य ही क्या है? यही कारण है कि हमें अपना स्वयं का देश छोड़कर दूसरों के देशों में बसने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती। हमें भारतवर्ष के अपमान पर नतो कोई क्रोध आता और नही कोई शर्म महसूस होती है। हम आसानी से यह कह देते हैं कि हमारे अतीत में गौरव करने लायक कुछ नहीं था और इसीलिए आज हम भोजन और कपड़ों से लेकर व्यवहारिक शिक्षा तक के लिए विदेशियों के रहमोकरम पर हैं।

भाग्यशाली देशों को अपने इतिहास में अपनी भूमि की अनन्त छवि मिलती है। यह इतिहास है जो बचपन में हमें अपने देश से परिचित कराता है। लेकिन हमारे यहां इससे विपरीत होता है : हमारे देश का इतिहास, हमें हमारी भूमि से ही विलग करता है। महमूद के आक्रमण से लेकर लार्ड कर्जन की घमंडी शाही घोषणा तक का सारा इतिहास, भारतवर्ष पर केवल अजीब धुंध घनीभूत करता है। इतिहास के ये पाठ हमारी मातृभूमि के प्रति हमारी दृष्टि को स्पष्टता नहीं देते। वास्तव में, ये केवल शंकाओं के बादल फैलाने का काम करते हैं। ये पाठ उन अंधेरे स्थानों पर कृत्रिम प्रकाश का पुंज फेंकते हैं, जिनसे हमारी आँखों में हमारे ही देश की छवि धुंधली होती है। उस अंधेरे में हम देखते हैं, रोशनी से सराबोर नवाब का रंगमहल, उसमें नाचती नृत्यांगना के हीरे जड़ित गहनों की जगमगाहट, शराब के ग्लास से उठते बेंगनी झाग और नशे में मदहोश बादशाह की लाल आँखें। उस अंधेरे में हमारे प्राचीन मंदिरों के गुम्बज डूब जाते हैं और भव्य शिल्प कौशल से सज्जित, सफेद संगमरमर से बनी सुल्तानों की प्रेमिकाओं की कब्रों के शिखर, सितारों की दुनिया को चूमते दिखाई देते हैं।

घोड़ों की टापों की आवाजें, हाथियों की चिंघाड़, हथियारों की झनझनाहट, लहरदार धूसर सैन्यशिविरों की विशाल व्यूह रचना, सुनहरी किरणों से चमकते मखमली परदे, झाग के बुलबुलों के आकार के मस्जिद के गुंबद, न जाने कितने भयानक रहस्यों को अपने में समाये - शाही महलों के आंतरिक कक्ष, उन पर सतर्क निगाह रखनेवाले नपुंसक रक्षक - इन सभी अजीब आवाज़ों, रंगों और भावनाओं के पंखों पर सवार अंधेरे की वह विशाल जादुई दुनिया। आखिर इसे भारतवर्ष का इतिहास कहे जाने का औचित्य क्या? इन लोगों ने शाश्वत और मंगलकारी प्राचीन भारतीय पाठ को अरेबियन-नाइट के रोमांस से ढक दिया है। कोई भी किताब उठाकर देख लो, हमारे बच्चे उन अरेबियन-नाइट- रोमांस की हर पंक्ति को याद करने के लिए विवश हैं। और बाद में, जब मुगल साम्राज्य मर रहा था, तब इसके विघटन की पूर्व संध्या पर, जैसे इसने धोखेबाजी, विश्वासघात और हत्या की शुरुआत की थी, ठीक वैसे ही मानो दूर से आनेवाले गिद्धों के समूह श्मशान पर उतरे। क्या इसका इतिहास भी भारतवर्ष का असली इतिहास है?

और फिर शुरू हुआ शतरंज के लाल सफेद घरों जैसे विभाजन के साथ अंग्रेजी शासन काल। शतरंज के साथ इसका एकमात्र अंतर केवल इतना था कि यहां घरों को काले और सफेद के बीच समान रूप से विभाजित नहीं किया जाना था; यहां नब्बे प्रतिशत केवल सफेद थे। भोजन के सिर्फ चंद टुकड़ों के लिए हम अब "वाइटवे लेडल स्टोर" से अच्छा प्रशासन, अच्छा न्यायतंत्र, अच्छी शिक्षा सबकुछ खरीद रहे हैं। अन्य सभी दुकानें अब बंद हैं। हो सकता है कि अदालतों से वाणिज्य तक, सबकुछ काफी कुछ "अच्छा" हो, लेकिन इसके लिपिक कार्यालय में भारतवर्ष को दिया गया स्थान भयभीत कर देने की हद तक बहुत छोटा है।

अंधविश्वास का इतिहास तो दुनिया के सभी देशों में लगभग समान ही होगा, अतः उसे छोड़ दिया जाना चाहिए। रोथस्चिल्डे की जीवनी पढ़-पढ़कर कठोर हुआ एक व्यक्ति, ईसा मसीह के जीवन चरित्र पर काम करनेवाले व्यक्ति से ईसा के बही खाते और कार्यालयीन डायरी की मांग करे, और अगर वह न ढूंढ़ पाए तो कहे कि : "जिस व्यक्ति में धेले की अकल नहीं है, उस पर ईसा मसीह की जीवनी कहां से आई?"

इसी प्रकार, कुछ लोग भारतीय इतिहास को इसलिए नकारते हैं, क्योंकि उन्हें "भारतीय आधिकारिक रिकॉर्ड रूम" में शाही वंशावली और जीत-हार के विवरण नहीं मिलते।फिर वे कहते हैं कि "बिना राजनीति के इतिहास कैसा?" ये ऐसे लोग हैं जो धान के खेत में जंगली घास ढूंढ़ते हैं। और जब उन्हें वहां नहीं मिलती, तो निराशा में वे धान को अनाज मानने से ही मना कर देते हैं। सभी खेतों में सभी फसल पैदा नहीं होती। जो इसे जानता है और इस प्रकार सही खेत में सही फसल की तलाश करता है वास्तव में तो वही बुद्धिमान है।

ईसा मसीह की खाता पुस्तिका की परीक्षा लेकर उसके बारे में एक खराब राय बनाई जा सकती है, किन्तु कोई अगर उनके जीवन के अन्य पहलुओं के बारे में पूछताछ करे तो खाता किताबें पूरी तरह से अप्रासंगिक हो जाती हैं। इसी प्रकार, यदि हम पूर्ण ज्ञान के साथ एक विशेष परिप्रेक्ष्य से देखते हैं कि राजनीति के मामलों में भारतवर्ष में कम उल्लेख मिलते हैं, किन्तु इस कमी से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। भारतवर्ष को भारतवर्ष के परिप्रेक्ष्य में न देखकर, हम हमारे बचपन से उसे कमजोर करना सीखते हैं और परिणामस्वरूप हम स्वयं को कमजोर कर देते हैं। एक अंग्रेज लड़का जानता है कि उसके पूर्वजों ने कई युद्ध जीते, कई देशों पर विजय प्राप्त की और व्यापक व्यापार और वाणिज्य किया : वह भी युद्ध की प्रतिष्ठा का अंग बनना चाहता है, धन सम्पदा की सफलता चाहता है। हम सीखते हैं कि हमारे पूर्वजों ने अन्य देशों को नहीं जीता और न ही व्यापार और वाणिज्य का विस्तार किया : ऐसा लगता है कि इस तथ्य को जताना ही भारत के इतिहास का एकमात्र उद्देश्य है। हमारे पूर्वजों ने क्या किया, हमें नहीं पता; इसलिए हम यह भी नहीं जानते कि हमारा लक्ष्य क्या होना चाहिए। इसलिए हम दूसरों की नकल करते हैं। इसके लिए हमें किसे दोष देना चाहिए? हम अपने बचपन से जिस तरह की शिक्षा प्राप्त करते हैं, हम हर गुजरते दिन अपने देश से तेजी से दूर होते जाते हैं, क्योंकि हमारी जन्मभूमि के प्रति विद्रोह की भावना हमारे दिमाग में भर दी जाती है।

यहां तक ​​कि हमारे देश के शिक्षित लोग भी अक्सर निराश होकर पूछते हैं, "हमारे देश से आपका क्या मतलब है? इसमें क्या खासियत है? आज इसकी क्या हैसियत है? इसकी पहले क्या हैसियत थी? "हम केवल प्रश्न उठाकर, उनके जवाब नहीं पा सकते। चूंकि यह मुद्दा इतना सूक्ष्म और इतना विशाल है कि इसे केवल तर्कों के माध्यम से समझा भी नहीं जा सकता। अंग्रेज हो चाहे फ्रेंच या किसी अन्य देश का वासी, कोई भी इस मामले में एक शब्द में जवाब नहीं दे सकते: किसी के अपने देश का विशिष्ट दृष्टिकोण क्या है या उसकी आत्मा का वास्तविक स्थान कहां है? शरीर के अंदर जीवन की तरह यह आत्मा एक सीधी अवधारणात्मक वास्तविकता है। और जीवन की तरह, केवल तार्किक परिभाषाओं के माध्यम से इसे समझना बेहद मुश्किल है। बचपन से ही यह विभिन्न रूपों में, विविध मार्गों के माध्यम से हमारे अन्दर प्रविष्ट होती है; और यह हमारे ज्ञान, हमारे प्यार, हमारी कल्पना में समाहित हो जाती है।

इसकी अद्भुत शक्तियों के साथ यह अविश्वसनीय रूप से हमें सुसंस्कृत बनाता है; यह हमारे अतीत को वर्तमान से अलग करनेवाली बाधाओं को विकसित नहीं होने देता।यह इसकी कृपा से है कि हम सीमित नहीं हैं, हम लघुतम नहीं हैं। संदेह जताकर पूछताछ करनेवालों को संतुष्ट करने के लिए, हम इस शक्तिशाली और गुह्य आत्मा को तार्किक परिशुद्धता के कुछ शब्दों में कैसे अभिव्यक्त कर सकते हैं?

भारतवर्ष का मुख्य तत्व क्या है? यदि इस प्रश्न का एक सटीक उत्तर मांगा जाता है, तो उत्तर उपलब्ध है। और भारतवर्ष का इतिहास उस उत्तर को कायम रखता है। हम पाते हैं कि एक ही उद्देश्य हमेशा भारतवर्ष को प्रेरित कर रहा है। यह उद्देश्य है विविधता के बीच एकता स्थापित करना, एक लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए, “अनेक में एककी अंतर्दृष्टि का अनुभव करना, मतभेदों में भी आंतरिक एकता के सर्वोच्च सिद्धांत का सुनिश्चितता के साथ अनुसरण करना। बाहरी दुनिया में दिखाई देनेवाले भेदों को नष्ट किए बिना इन लक्ष्यों को हासिल करने का प्रयास रहा है।

विविधता में इस एकता को समझने और एकता बढ़ाने के लिए प्रयास करने की क्षमता भारतवर्ष की मूल विशेषता हैं। यह वह गुणवत्ता है जिसने उसे राजनीतिक महिमा से उदासीन बना दिया। क्योंकि, राजनीतिक उपलब्धियों को आधार बनाना, संघर्ष को जन्म देता है। जो लोग बाहरी लोगों की तरह, पूरे मन से दूसरों का सम्मान नहीं करते, वे ही राजनीतिक महिमा को जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मानते हैं। एक को दूसरों के खिलाफ स्थापित करने का आग्रह ही, राजनीतिक उपलब्धि की नींव है। जबकि दूसरों के साथ सामंजस्य बनाने का प्रयास, और अपने स्तर पर विचलन और विरोधाभासों को सुसंगत बनाने का प्रयास, नैतिक और सामाजिक उन्नति का आधार है। यूरोपीय सभ्यता जिसे एकता मानती है, वह विवादित है; भारतवर्षीय सभ्यता की एकत्व की परिभाषा पूर्णतः सुसंगत है।

यूरोपीय प्रकार की राजनीतिक एकता तो एक प्रकार से गले में पड़ा मतभेदों का फंदा है, जो एक दूसरे के खिलाफ कसकर खींचने के काम आता है, यह अपनेआप में सद्भावरहित है। और इसके कारण, अमीर और गरीबों के बीच, शासकों और शासकों के बीच मनुष्य और मनुष्य के बीच प्रतिद्वंद्विता और दूरी लगातार बनी रहती है। ऐसा भी नहीं है कि ये विभिन्न वर्ग पूरे समाज को अपने संबंधित क्षेत्रों में अपनी विशिष्ट भूमिकाओं के साथ एक बनाए रखते हैं। वास्तव में, वे पारस्परिक विरोधी रहते हैं। प्रत्येक वर्ग का निरंतर और हमेशा सतर्क प्रयास रहता है किअन्य समूहों की शक्ति न बढ़े, इसके लिए अपनी पूरी कोशिश करना। जहां हर कोई दबाने और धकेलने में लगा रहता है, वहां शक्ति का संतुलन संभव ही नहीं है। वहां संख्यात्मक शक्ति ने गुणवत्ता और प्रतिभा पर बढ़त हासिल कर ली है और वाणिज्य से सम्पत्ति के सामूहिक संचय ने घरेलू बचत को खत्म कर दिया है। इस प्रकार सामाजिक संतुलन बिगड़ गया है। और इन परस्पर विरोधी और प्रतिकूल भागों को किसी भी तरह से एक साथ रखने के प्रयास में, सरकार कानून के बाद कानून बनाने का नाटक करती है। यह अपरिहार्य है; क्योंकि जब विवाद का बीज होता है, तो फसल भी विवाद की ही होगी। इस दौरान जो सुपोषित और शानदार चीज़ देखी जाती है वह है विवादों के फल से लदे प्रमुदित और मजबूत पेड़।

भारतवर्ष ने विविध तत्वों के संबंधों को एक साथ गूंथने का प्रयास किया है, भले ही ये तत्व अलग-अलग ही क्यों न हों। वास्तव में तो जहां वास्तविक मतभेद हैं, वहां केवल मतभेदों को व्यवस्थित करके और उनकी अभिव्यक्ति केवल उचित स्थानों पर हो, यह सुनिश्चित करके ही एकता का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। एकता हासिल करने के लिए केवल कानून लागू करना कि अब सभी एकजुट हैं, पर्याप्त नहीं है। जहाँ पारस्परिक संबंधों को एकीकृत करना संभव ही नहीं है, वहां संबंधों को एक साथ गूंथने का एकमात्र तरीका है कि उन्हें विशेष संरक्षित क्षेत्र अलग-अलग वितरित कर दिए जाएं। अगर असंगतताओं को कृत्रिम रूप से जबरदस्ती एकता में बदला जाए, तो वे बलपूर्वक पुनः विभाजित होते हैं। इसलिए विभाजन की घटनाएँ बहुधा देखने को मिलती हैं। भारतवर्ष एकत्व के रहस्यों को जानता था।

फ्रांस की क्रांति का सगर्व विचार था कि रक्तपात से मनुष्य मात्र के विभेद समाप्त हो जाएंगे। लेकिन परिणाम एकदम विपरीत हुए। यूरोप में, शासकों और शासित, धनी और सामान्य लोग, शक्ति के सभी भंडार धीरे-धीरे एक-दूसरे के प्रति भयंकर विरोधग्रस्त हैं। भारतवर्ष का लक्ष्य भी एकता के बंधन में सभी को बांधना था; लेकिन उसने जो तरीका अपनाया, वह पृथक था। भारतवर्ष ने समाज की प्रत्येक विरोधी और प्रतिस्पर्धी ताकतों को सीमित और सीमांकित करने की कोशिश की और समाज की संरचना को पुष्ट रखने के लिए कार्यशील एकता के साथ-साथ व्यवसायों की विविधता सुनिश्चित की। उसने किसी को भी अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन नहीं करने दिया और, संघर्ष और विकार को सक्रिय करने के प्रयासों को अनुमति नहीं दी। उन्होंने कर्तव्यों और कार्यों, घर और चूल्हा तथा अन्य सभी चीजों में समाज की सारी ऊर्जा को चौबीस घंटे की भयंकर प्रतिस्पर्धा के मार्ग पर चलाकर सुस्त दिशाहीनता के भयानक भंवर के अधीन नहीं किया। एकता का हृदय खोजकर एकत्व प्राप्त करने तथा शांति और स्थिरता के लिए अंतिम लक्ष्य मुक्ति को पाना है, यह विचार केवल भारतवर्ष की खोज है।

भारतवर्ष की गोद में विविधता युक्त लोग भी संतोष के साथ रहते हैं। पुरातन काल से ही भारतवर्ष के लोगों को अभ्यास से विशिष्ट प्रतिभा अर्जित करने की स्वतंत्रता थी। भारतवर्ष हमेशा से अन्य वस्तुओं के निर्माण के साथ, एक एकीकृत सभ्यता की नींव डालने में जुटा रहा। और एक एकीकृत सभ्यता सभी मानव सभ्यताओं का सर्वोच्च लक्ष्य है। उसने किसी को भी पराया नहीं समझा, उसने किसी को भी अपने से कमतर नहीं आंका, उसने किसी को भी अपने से भिन्न नहीं माना। भारतवर्ष ने सभी को अपनाया, सभी को स्वीकार किया। और जब इतना कुछ स्वीकार किया जाता है, तो अपने स्वयं के नियम बनाना और मिश्रित संग्रहों को विनियमन द्वारा ठीक करना भी आवश्यक हो जाता है। एक दूसरे से लड़नेवाले जानवरों की तरह उन्हें अनियंत्रित नहीं छोड़ा जा सकता। उन्हें एकता के मौलिक सिद्धांत पर बांधे रखते हुए उचित स्वायत्त विभागों में उचित रूप से वितरित किया जाना चाहिए। घटक बाहर से आ सकता है लेकिन इसके पीछे व्यवस्था और मौलिक विचार भारतवर्ष के थे।

यूरोप अजनबियों को दूर करके, उन्हें नष्ट करके समाज को सुरक्षित बनाना चाहता है। इस व्यवहार के नमूने को अब अमेरिका में, ऑस्ट्रेलिया में, न्यूजीलैंड में, केप कॉलोनी में देखा जा सकता है। इसका कारण यह है कि उन्हें अपने स्वयं के सामाजिक तानेबाने के भीतर एकजुटता की उचित समझ नहीं है। वे अपने स्वयं के विभिन्न समुदायों को उचित स्थान नहीं दे पाए हैं और उनके अपने समाज के कई अंग उनके लिए बोझ हो गए हैं। ऐसी स्थिति में उनके पास बाहरी लोगों के लिए जगह ही कहां बची है? जहां किसी के अपने रिश्तेदार परेशानी पैदा कर रहे हों, वहां बाहरी लोगों का अतिथि सत्कार तो दूर की बात है। एक अनुशासित समाज जिसके पास एकत्व का सिद्धांत है और जहां सभी के पास अपनी स्वयं की सीमांकित जगह और अधिकार हैं, केवल ऐसे समाज में ही दूसरों को स्वयं के रूप में समायोजित करना आसान है।

दूसरों से निपटने के दो तरीके हैं; या तो उन्हें प्रताड़ित करना, उन्हें मारना और उन्हें दूर धकेल कर अपने स्वयं के समाज और सभ्यता को सुरक्षित करना या उन्हें अपने स्वयं के सिस्टम में उचित जगह प्रदान करना और उन्हें अपने स्वयं के रीति-रिवाजों में प्रशिक्षित करना। यूरोप ने पहली विधि को अपनाते हुए पूरी दुनिया को अपना प्रतिद्वंदी माना और सदैव संघर्ष के लिए तत्पर रहा, जबकि भारतवर्ष ने दूसरी विधि को अपनाकर धीरे-धीरे और शनै:-शनैः सभी को अपना बनाने के लिए प्रयास किया। यदि धर्म सम्मान का अधिकारी है, यदि धर्म को मानव सभ्यता का सर्वोच्च आदर्श माना जाए, तो भारतवर्ष की पद्धति की श्रेष्ठता को स्वीकार किया जाना चाहिए।

बाहरी लोगों को अपना बनाने के लिए प्रतिभा की आवश्यकता होती है। दूसरों के अस्तित्व को अंगीकार करते हुए, अजनबियों को भी पूरी तरह से अपनाने की जादुई शक्ति यहां के मूल निवासियों में है। इसी प्रतिभा के लिए भारतवर्ष जाना जाता है। भारतवर्ष ने अन्य लोगों के मन में प्रवेश किया है, और दूसरों को आसानी से स्वीकार किया। विदेशों में मूर्तिपूजा को क्या कहा जाता है, इससे भारतवर्ष भयभीत नहीं हुआ और उस मुद्दे पर झुका भी नहीं। यहां तक कि भारतवर्ष ने सबर, पुलिंद, व्याध इत्यादि समुदायों के विचित्र तत्वों को भी अपनाया, और इन तत्वों में अपना स्वयं का दर्शन डालकर उनके माध्यम से अपनी आध्यात्मिकता को अभिव्यक्ति दी। भारतवर्ष ने किसी को भी अस्वीकार नहीं किया, और हर किसी को स्वीकार कर उन्हें अपना बना लिया।

न केवल सामाजिक संगठन में, बल्कि आस्था और विश्वास के क्षेत्र में भी हम एकता और सद्भाव के निर्माण की एक सी प्रवृत्ति देखते हैं। गीता में हम जो ज्ञान, क्रिया और भक्ति योग देखते हैं, वह सबके बीच सद्भाव स्थापित करने का एक प्रयास है, जो भारतवर्ष की मौलिक विशिष्टता है। भारतीय भाषा में जिसे "धर्म" कहा गया है, उसे किसी यूरोपीय भाषा द्वारा अनुवाद कर अभिव्यक्त करना असंभव है, आस्था के क्षेत्र में भारतवर्ष ने विभाजित मस्तिष्क का विरोध किया है। हमारी बुद्धि, हमारी धारणा, हमारा आचरण, जिसे हम इस दुनिया में और उसके बाद भी प्रिय मानते हैं, ये सभी एक साथ मिलकर हमारे धर्म का गठन करते हैं। भारतवर्ष ने विश्वास को "रोजमर्रा के उपयोग" और "औपचारिक अवसरों" जैसे वर्गों में विभाजित नहीं किया। उदाहरण के लिए जो जीवनशक्ति हाथों, पैरों, सिर, पेट आदि शरीर के विभिन्न अंगों का संचालन करती है, वास्तव में एक ही इकाई है और हाथ, पैर आदि में पृथक-पृथक जीवन नहीं है। इसी प्रकार, भारतवर्ष ने धर्म के अलग-अलग भाग नहीं किए, मसलन विश्वास का धर्म, कार्य का धर्म, रविवार का धर्म, अन्य छह दिनों का धर्म, चर्च का धर्म, घर का धर्म आदि-आदि। भारतवर्ष का धर्म, सम्पूर्ण समाज का धर्म है। इसकी जड़ें पृथ्वी में तो शीर्ष आकाश में उदीयमान है। भारतवर्ष जड़ों और शीर्ष को अलग-अलग हिस्सों के रूप में नहीं देखता। भारतवर्ष तो धरती से आकाश तक फैले एक विराट वृक्ष के रूप में धर्म को देखता है, जो पूरे जीवन को आच्छादित किये हुए है।

दुनिया की सभ्यताओं में भारतवर्ष विविधता को ‘एकत्व’ में बदलने का आदर्श प्रयास के रूप में स्थापित है। इतिहास में उसका वर्णन इसी रूप में होना चाहिए। कई कष्टों और बाधाओं, भाग्य और दुर्भाग्य के बीच भारतवर्ष ने ब्रह्मांड में और अपनी आत्मा में ऐक्य की अनुभूति की और विविधता में एकता को खोजा, ज्ञान के माध्यम से उस एक को खोजने के बादउसे व्यवहार में दर्शाया, एकता की आतंरिक अनुभूति को समूची सृष्टि के प्रति प्रेम के माध्यम से प्रगट किया, उदाहरण के लिए, उस ‘एक’ का प्रगटीकरण व्यक्ति के अपने जीवन के माध्यम से। जब हमारे इतिहास के अध्ययन द्वारा हम भारत की इस अनन्त भावना की अनुभूति करने में सक्षम होंगे, तो अतीत के साथ हमारे वर्तमान का सम्बन्ध विच्छेद समाप्त हो जाएगा।

अनुवाद : हरिहर शर्मा,
पूर्णायन, गणेश कॉलोनी,
विष्णु मंदिर के पीछे, शिवपुरी (म.प्र.)
मोबाइल नंबर – 9425136564


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