Thursday, 4 May 2017

अहिंसा - आत्मप्रकाशन की चाह

अहिंसा - आत्मप्रकाशन की चाह
अहिंसा का सामान्य अर्थ अहिं-सा = आत्म प्रकाशन की चाह है। यह अह् धातु से बना हुआ शब्द है, जिससे 'अहन्' शब्द भी बनता है - दिवसवाची। यह सकारात्मक शब्द है नकारात्मक नहीं। लोगों ने अहिंसा को अ-हिंसा समझ कर नकारात्मक बना दिया है।

वेद का असुर शब्द परमात्मा वाची था - वरुणो नाय असुरो महत्। असून् प्राणान् प्रदाति इति असुरः। इस को भ्रमवश अ-सुर = जो सुर नहीं है वह असुर समझ लिया गया। असुर महत् - अहुर मज्दा के उपासकों ने विरोध किया। प्रतिक्रिया स्वरूप पारसियों ने देव का अर्थापकर्ष कर दिया। असुर पूजकों और देवपूजकों में संग्राम छिड़ गया। कई देवासुर संग्राम हुए।


उदयाचल से अस्ताचल तक भारत राष्ट्र का विस्तार था। उदयाचल प्रशान्त महासागर के किनारे है और अस्ताचल भूमध्य सागर-कृष्णसागर] मृतसागर के संयुक्त रूप के सिनाई प्रायद्वीप का टेरेसाँ (स्थानीय नाम) है। यह विशाल भारतवर्ष विभाजित हो गया। सिन्धु नदी सीमा बन गई। इसका नाम हो गया - दारदी सिन्धु। इसके आस-पास का क्षेत्र दरद प्रदेश हो गया। भारत का बँटवारा हुआ तब वसिष्ठ और ऐसे ही कई ज्ञानी पुरुष दरद प्रदेश - काशगर में रहने लगे थे। वे देश के बँटवारे से बहुत दुःखी थे। 


अहिंसा के साथ असुर जैसी ही गलती नहीं की जानी है। जैन ग्रन्थ भगवती आराधरा (7-80) की उक्ति है -


सव्वेसिं वदगुणापां हिदयं गब्यो व सव्वसत्थाणं ।
सव्वेसिं वदगुणापां पिण्डो सारो अहिंसा दु ।।

अर्थात् अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है। सारे शास्त्रों का गर्भ है। सारे व्रत और गुणों का पिण्डीभूत सार है।


तह जाण अहिंसा ए विणा ण सीलाणि ठंति सव्वाणि ।
तिस्सेव रक्खटूं सीलाणि वदीव सस्सस्स ।।(भ.आ. 789)


यह ज्ञातव्य है कि अहिंसा के बिना सारे ही षील ठहर नहीं सकते। इसलिए उसी की रक्षा के लिए षील है जैसे अनाज की रक्षा के लिए बाड़ होती है।

आत्मप्रकाशन का कार्य श्रेष्ठ कार्य के रूप में होता है जिसे यज्ञ कहा जाता है –
 

यज्ञो वै श्रेष्ठतयं कर्म (तैत्तिरीय ब्राह्मण)

जैन उत्तराध्य सूत्र में कहा गया है -


तवो जोइ जीवो जोइठाणं] जोगा सुया सरीरं कारिसंग।
कम्पेहा संजयजोग सन्ती] होमं हुगामि इसिणं पसत्थं।।


अर्थात् तप आग है] जीव ज्योति स्थान - उस आग के ठहरने की वस्तु। योग (मन, वचन और काया का) सु्रवा- कुड़छी है। शरीर सूखा हुआ गोबर है। कर्म इंधन है। संयम की प्रवृत्ति शान्ति पाठ है। ऐसे ही होम से मैं हवन करता हूँ। ऋषियों के लिए यही होम प्रशस्त है। 


यज्ञ को अ-ध्वर = हिंसा रहित कर्म कहा जाता है। उसमें हिंसा न हो इसके लिए अध्वर्यु की नियुक्ति की जाती है - अध्वरं युनक्ति इति। कर्मकाण्ड के वेद यजुर्वेद का जानकार अधिकारी अध्वर्यु होता है। अग्निहोत्र में 'उद् बुध्यस्व अग्ने ! प्रतिजागृहि' कह कर आत्माग्नि को ही उद्दीप्त किया जाता है। आत्मप्रकाशन की चाह या संकल्प को करने के लिए ही अग्निहोत्र किया जाता है। 


भगवान् बुद्ध भी अहिंसा के उपासक हैं - उनको करुणावतार कहा जाता है। करुणा, दया, तप, सहानुभूति, सहनशीलता, सहयोग आदि गुण अहिंसा के ही रूप हैं। इनके माध्यम से आत्म तत्त्व का ही प्रकाशन करने की इच्छा होती है। भौतिक अग्नि में आहुति देना तो नाटक मात्र है। 


जब यजमान यज्ञ के लिए संनबद्ध होते हैं तो कहते हैं - इयं वेदिः। इयं भुवनस्य नामिः। वेदिका के ऊपर अग्निहोत्र] यज्ञादि किए जाते हैं। होलिका महोत्सव वपर नवसस्येष्टि की जाती है। हमारा चार्वाक दर्शन उपहास योग्य समझा जाता है। उसको मानने वाले कहते हैं - ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् - ऋण करके] घी पीने की बात की गई। मद्य पीने की चाह प्रकट नहीं की गई। मांस भक्षण की ओर भी संकेत नहीं किया गया।


यज्ञ करते समय वैदिक राष्ट्रगान भी किया जाता है -


आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसीजायताम्। आ राष्ट्रs राजव्यः शूर इषव्योऽति व्याधी महारथो जायताम्। दोग्घ्री धेनुर्वोढानड्वान् आशु: सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम्। निकाये निकाये नः पर्जन्यो वर्षतु फलवल्यो न भोषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम्। (यजुर्वेद 22/22)


इसमें कहीं भी जानवरों की हिंसा करने का कोई संकेत नहीं है।


महाभारतकार वेद व्यास ने कहा था -


अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकायः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।।


वे मानते थे कि मनुष्य से बढ़कर संसार में कोई नहीं है - न हि मानुषात् श्रेष्ठ तरं हि किंचत्। इसलिए उन्होंने कहा - 


श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत् ।।


याज्ञवल्क्य का कथन है -


अयं तु परमो धर्मः यद्योगेनात्म दर्शनम् । (याज्ञवल्क्य स्मृति)


जब सब प्राणियों में, कण-कण में आत्म दर्शन करना है] तो किसी की प्राण हानि कैसे की जायेगी?  योगपूर्वक आत्मदर्शन करना भी आत्मप्रकाशन की चाह का ही संकेतक है - आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यतिस पंडितः।