शिक्षा यह वेदांगों
में से एक है जिसे वेद- शरीर की नाक कहा गया है - शिक्षा घ्राण तु वेदस्य । सामान्य रूप से शिक्षा को उच्चारण-विज्ञान कहा जा सकता है। अशुद्ध उच्चारा करने
वालों को ‘म्लेच्छ’ कहा जाता रहा है। शुद्ध-उच्चारण करने
वालों के सम्पर्क में न आने के कारण आर्य राष्ट्र की सीमा के बाहर
रहने वाले लोग म्लेच्छ कहे गए।
एक और शब्द है - शीक्षा। इसका अर्थ है - व्यक्ति की सोई हुई (ज्ञान-शक्ति) चेतना को देखने की प्रक्रिया - शयनं ईक्षते इति शिक्षा । तैत्तिरीय उपनिषद् की शिक्षावल्ली में कहा गया है - अथ शीक्षां
व्याख्यास्यामः। वेद शिक्षा समाप्त होने के बाद आचार्य अपने अन्तेवासी के भीतर की क्षमता का
समावर्तन-संस्कार में उल्लेख करता है।
प्रारम्भ
में कहा गया है - सत्यं वद । धर्मं चर । स्वाध्यायान् मा प्रमदः । स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां
मा प्रमदितव्यम् । सत्य बोलने, धर्माचरण करने, स्वाध्याय और प्रवचन करने की क्षमता प्रत्येक व्यक्ति में समाहित होती है।
इसलिए आचरण की शिक्षा देने वाला आचार्य भद्र ब्रह्मचारी को प्रमाद रहित होकर अपनी क्षमता
प्रकट करने का अनुरोध करता है।
आगे
आचार्य का मार्गदर्शन है - मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव । सामान्यतया पाँच देवो के संस्मरण की परम्परा है। यहाँ माता, पिता, आचार्य और अतिथि - चार देवों का नाम ही आया है। पाँचवा देवता आत्मा है -
आत्मदेवो भव - स्वयं को देवता मानने वाले बनो। यह तूश्णीब्रह्म की उपासना है। गीता
में कहा गया है -
उच्दरेद्
आत्मनात्मानं नात्मानम् अवसादयेत् ।
माता, पिता और आचार्य तो ज्ञात देवता है।
अतिथि अज्ञात देवता है - उस अनजाने को भी देवता मानने वाले बनो। साथ ही तूष्णीब्रह्म
(आत्मा) को देव बनने की बात भी समझ लेनी होगी।
गुरु या शिक्षक वह होता है जो ज्ञान-विज्ञान की परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए अपने शिष्य से पराजित होना चाहता है - शिष्याद् इच्छेत् पराजयम्। शिष्य पर अपने ज्ञान और
अनुभव को थोपेगा तो इसे आधुनिक भाषा में क्या ‘गुरु’ कहा
जाएगा। इससे शिष्य में आत्महीनता की ग्रन्थि पैदा हो जाती है। छात्रों द्वारा आये दिन
आत्महत्या करने के पीछे ऐसी ही ग्रन्थि का प्रकोप हो सकता है।
इन
पंक्तियों का लेखक जब सबसे पहले अपनी कक्षा में गया तो शिष्यों को देखकर मन में सब
से पहली बात याद आई - इष्टदेव मम बालक रामा । ये बालक मेरे इष्टदेव राम हैं। मैं
इनको इनकी योग्यता के अनुसार गढूंगा। वेद के ब्रह्मचारी सूक्त के अनुसार जब गुरु
के पास शिष्य आता है तो वह तीन दिन उसे अपने गर्भ में रखता है। शीक्षा की तरह
दूसरा शब्द है - परीक्षा - परितः ईक्षा। तीन दिन पास रखकर - अन्तेवासी बना लिया
जाता था। तब विद्यारम्भ या वेदारम्भ संस्कार किया जाता था।
शिक्षार्थी के समक्ष
ध्येय होता था - आत्मानं विद्धि अर्थात् स्वयं को पहचानो। उपनिषद् के अनुसार- आत्मा वा अरे श्रोतव्यः मन्तव्यः निदिध्यासितव्यः । आत्मा
को सुनो, उस पर मनन करे और
अन्त में उसका ध्यान किया जाय।
समावर्तन
उपदेश में आचार्य यह कहना भी नहीं भूला - यानि अस्माकं सुचरितानि तानि
त्वयोपास्यानि । अर्थात् जो हमारे सुचरित हों उनकी उपासना की जानी चाहिए अन्य की
नहीं। अपने शिष्य की योग्यता पर इतना भरोसा हो, शिक्षा के केन्द्र में शिष्य-ब्रह्मचारी हो तो वह आत्महत्या क्यों
करेगा। छात्र को आत्मविश्वासी न बनाये तो वह कैसी शिक्षा ?
आज की शिक्षा छात्र पर विष्वास नहीं करती। परीक्षा प्रणाली उसी अविश्वास की देन
है। परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद छात्र पर बेरोजगारी का भूत सवार हो जाता है।
भारत कृषि प्रधान देश है। ‘उत्तम
खेती, मध्यम वणिज और अधम
चाकरी’ की कहावत प्रसिद्ध
है। उसी अधम नौकरी के लिए युवक भागे फिर रहे हैं।
स्वर्गीय
ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा था कि शिक्षा ऐसे छात्रों को तैयार करें जो नौकरी खोजने वाले
नहीं, नौकरी देने वाले
हों। शिक्षक का पहला काम है वह छात्र की योग्यता को परख कर उसके भीतर की क्षमताओं
को प्रकट करे। उसकी मानवीय संवेदनाओं को जगाकर उसे मनुष्य - सम्पूर्ण मनुष्य बनाये। आत्मविश्वास अपने आप पैदा हो जाएगा।
शिष्य केन्द्रित शिक्षा में आचार्य यह भी कहने में संकोच नहीं करता कि यदि किसी समय किसी
कर्म के विषय में सन्देह (विचिकित्सा) हो तो वही अपने आसपास जो सज्जन, सुशिक्षित, स्वहित स्वभाव का और रुचि सम्पन्न
व्यक्ति मिले उससे सहायता लेकर काम साध लेना चाहिए। परिवार में ही ऐसे व्यक्ति मिल
जाते हैं।
विद्यार्थी
को कठोर परिश्रम करने का अभ्यासी होना चाहिए -
नास्ति सुखार्थिनः विद्या विद्यार्थिनः कुतः सुखम् ।
सुखार्थी का त्यजेद् विद्या विद्यार्थी वात्यजेत् सुखम् ।।
विद्यार्थी
साधक को ब्रह्मचारी कहा जाता है - ब्रह्म चर्य का पालन करने वाला। ब्रह्मवृंह धातु
से बना हुआ शब्द है। इसका अर्थ है - विकासशील या प्रगतिशील आचरण। ब्रह्मचर्य
पालन करने वाले के जीवन में हताशा या निराशा का कोई स्थान नहीं होता।
वेदोक्ति
है - उद्-यानं ते नावयानम् अर्थात् तुझे तो ऊपर की ओर जाना है, उन्नति या उत्थान ही करना है - नीचे की
ओर नहीं जाना है। जो उन्नतिकामी बनेगा उसमें किसी भी काम को करने की क्षमता तो पैदा
हो ही जाएगी।
तुलसी ने
कहा -
‘गुरुगृह गये बहुरि रघुराई । अल्पकाल विद्या सब पाई ।’
साधक गुरु
अपनी शक्ति की स्थापना शिष्य में कर देता है ।
किंकर्तव्यविमूढ़
अर्जुन अपनी समस्या के समाधान के लिए श्रीकृष्ण से कहते हैं -
कार्यण्यदोशोऽपहतस्वभाव पृच्छामित्वां धर्मसम्मूढ़चेता ।
यच्छे्रयतः निश्चितं ब्रहि तन्मे, शिष्यस्तेऽहंशाधि मां त्वां प्रपन्नम् ।।
समर्पित
भाव से शिष्यत्व स्वीकार करने के उपरान्त श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सम्बोधित-प्रबोधित
किया। अर्जुन समझ गया। बोला -
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादात् जनार्दनः ।
श्रीकृष्ण
के अनुसार कर्म कुशलता का नाम योग है - योगः कर्मसु कौशलम्। शिक्षक द्वारा शिक्षा देने की इस प्रक्रिया का अन्त हुआ -
यत्र योगेश्वरः कृष्ण यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीः विजयो भूतिः ध्रुवं नीतिर्मतिर् मम् ।।
कौत्स ने
गुरु से चैदह विद्याएं पढ़ी। गुरु दक्षिणा में चैदह कोटि स्वर्ण देने के लिए राजा
रघु के पास कौत्स गया। रघु ने देवकोशाध्यक्ष के ऊपर चढ़ाई करने की योजना बनाई। धन
गुरु को दिया गया। गुरु ने राजा को जनहित में उपयोग के लिए समस्त स्वर्ण सौंप
दिया। शिक्षा अभावों से जूझने की क्षमता प्रदान करती है।
शिक्षक का काम है शिष्य को उसकी योग्यता और क्षमता से परिचित करा देना। शिष्य का काम है -
प्राप्त विद्या का सही दिशा में विनियोजन करना। लोग कहते हैं - पढ्यौ तो है गुण्यो
कोई न ऽ। प्राप्त विद्या का जीवन में समयानुसार विनियोजन करना ही गुण है जिसे
क्षमतावान् शिक्षक सिखाता है।