जिनका
मनन किया जाता है उनको मंत्र कहा जाता है। ऋषि मंत्रद्रष्टा होते हैं। वेद मानवता
का संविधान है। उसमें मंत्रद्रष्टा ऋषियों के मंत्र संकलित हैं। ऋग्वेद अर्चना का
वेद है। यजुर्वेद कर्म प्रेरणा का वेद है। सामवेद संगीत
का वेद है। अथर्ववेद रसवेद है। रस जीवनानन्द है। उसे जीवन का वेद कहा जा सकता है।
वेद
को अपौषेय माना जाता है। इसलिए यास्क ने ऋषियों को मंत्रद्रष्टा ही माना है - ऋषय
मंत्रद्रष्टारः। मंत्रों का
रचयिता नहीं माना। मंत्र एक अक्षर का भी हो सकता है। कहा गया है कि कोई भी अक्षर
अमंत्र नहीं होता।
वेद
में जितने भी मंत्र हैं वे सब मंत्रद्रष्टा ऋषियों की जीवन दृष्टियाँ हैं जिनको
अपना कर व्यक्ति श्रेष्ठ मनुष्य बन सकता है। व्यक्ति उसे कहा जाता है जिसमें अभिव्यक्त या प्रकट होने की क्षमता विद्यमान हो। ऐसी
क्षमता सब में होती है। कोई उनको प्रकाशित कर पाता है तो
कोई नहीं भी कर सकता।
यास्क
ने कहा है कि एक शब्द भी अच्छी तरह जान लिया जाय उसे सम्यक् रूप से प्रयुक्त किया
जाय तो वह स्वर्ग और लोक में कामधेनु हो जाता है - एकोऽपि शब्दः सम्यक् ज्ञातः
सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधेनु भवति ।
शतर्ची
ऋषियों ने अपनी-अपनी दृष्टि से व्यक्ति को मनुष्य बनने की विधि प्रदर्शित की है।
एक शतर्ची ऋषि कश्यप है
जिनका एक ही मंत्र है। सौ सुनार की - एक
लुहार की। कहावत ऐसी ही स्थिति की संकेतक लगती है। ऐसे ही दीर्घ तथा ऋषि दृष्ट
मंत्र पौने तीन सौ से अधिक है।
वेद
के अध्येता जानते हैं कि कई मंत्रों के मंत्रद्रष्टा एक से अधिक है। क्यों \ विचार
तो सारे वेद से ही प्रमाणित होते है - वेदात् सर्व प्रसिद्धयति। एक विचार को पुष्ट
करने वाले तो अनेक हो सकते हैं।
वेद
अखिल धर्म के मूल है - वेदाऽखिलो धर्ममूलम्। उस धर्म का समर्थन तो सारा समाज करता
है] राष्ट्र करता है और विश्व करता है। वेद ने सूत्र दिया उसका
समर्थन ^दशकं धर्म लक्षणम्*
कह कर मनु ने किया।
वेद
ने कहा - जायेदस्तम् त्र जाया इत् अस्तम्। अर्थात् जाया ही घर है। मनु ने समर्थन
किया - मृहिणी मृहम् उच्यते । आगे यह भी कह दिया - यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते
रमन्ते तत्र देवता । इसी तरह मंत्रद्रष्टाओं के विचारों का समर्थन परवर्ती में
होता रहा। समर्थक भी मंत्रद्रष्टा कहलाये। भारत की सनातन मान्यता है -
स्वातंत्र्यं परम सुखम् । अर्थात् स्वतंत्रता ही परम सुख है। उससे बढ़कर कोई सुख
नहीं होता। पराधीनता से बढ़कर कोई दुःख नहीं है। अंगे्रजों ने देश को अपने अधीन कर
लिया तब बालगंगाधर राव ने हुँकार भरी - ^स्वतंत्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है*] मैं
उसे लेकर रहूँगा।
बाल
गंगाधर को इस स्वतंत्रता मंत्र का द्रष्टा कहा गया। इससे स्वतंत्रता संघर्ष तीव्र
हो गया। महात्मा गाँधी ने अंगरेजों से दो टूक शब्दों में कहा - क्विट इंडिया
अर्थात् अंग्रेजों ! भारत छोड़ो। उनको भी मंत्रद्रष्टा माना गया। इसका प्रभाव पड़ा
- अंगरेजों को भारत छोड़ कर जाना पड़ा।
वेदोद्धारक
महर्षि दयानन्द ने अंगरेजी राज्य को कभी स्वीकार नहीं किया। स्वामी विवेकानन्द ने
भी स्वीकार नहीं किया। घास की रोटी खाकर भी स्वाधीनता की अलख जगाने वाले महाराणा
प्रताप का आदर्श इन सबके सामने था।
भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र ने लिखा - अंगरेज राज सुख साज सजे सब भारी] वै
धन विदेश चलि जात यहै अति ख्वारी । पराधीनता उनको भी पसन्द नहीं थी। ये सब
स्वराज्य के मंत्रद्रष्टा और पुरोधा ही कहे जाएँगे।
रानी
लक्ष्मीबाई ने कहा - मैं झाँसी किसी को नहीं दूँगी। वह अंग्रेजों से लड़ी और
स्वतंत्रता की रक्षा के लिए उसने अपने प्राण दे दिए।
सूर्यमल
मिश्रण ने कहा -
इळा न देणी आपणी हालरियै हुलराय ।
पूत सिखावै पालणै मरण बडाई माय
।।
वे
स्वाधीन चेतना के मंत्रद्रष्टा थे। स्वतंत्र चेताओं का प्रषस्ति गान करने के लिए
उन्होंने वीर सतसई लिखी। एक भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी ने गाया -
मुझे
तोड़ लेना वनमाली औ* उस पथ पर देना फेंक]
मातृभूमि
पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावै वीर अनेक ।
भौम
ब्रह्म की उपासना करने वाले अनेक मंत्रद्रष्टा हुए] जिन्होंने हमारी आजादी को
सुरक्षित किया।
- डा. बद्रीप्रसाद पंचोली