Tuesday, 4 December 2018

हे भारत! क्या तुम्हें याद है?

25 दिसम्बर को दुनियाभर में ‘‘क्रिसमस’’ पर्व की धूम रहती है। भारत में भी जगह-जगह क्रिसमस की शुभकामनाओं वाले पोस्टर्स, बैनर, ग्रीटिंग्स का माहौल दिखाई देता है, पर 25 दिसम्बर, हम भारतीयों के लिए क्या महत्व रखता है, इस बात को समझना होगा। 25 दिसम्बर भारतीय इतिहास का वह स्वर्णिम दिवस है जिसका अध्ययन, स्मरण और चिंतन मात्र से हमारे भीतर अपने जीवन के उद्देश्य को टटोलने की प्रेरणा मिलती है। इसलिए हम भारतीयों को इस दिन के महत्व को जानना अति आवश्यक है। 

स्वामी विवेकानन्द ने पूरे देश का परिव्राजक के रूप में भ्रमण करने के बाद सन् 1892 को कन्याकुमारी में, हिन्द महासागर के मध्य स्थित श्रीपाद शिला पर ध्यान किया था। 25 दिसम्बर को ही इस ध्यान का प्रारम्भ हुआ था। उसी स्थान पर आज भव्य विवेकानन्द शिला स्मारक की स्थापना हुई है। स्मारक के प्रणेता माननीय एकनाथजी रानडे कहा करते थे कि स्वामीजी के जीवन में इस शिला का वही महत्व है जो गौतम बुद्ध के जीवन में गया के बोधिवृक्ष का।

18वीं सदी में अंग्रेजों के शासनकाल में भारतीय लोग अपनेआप को ‘भारतीय’ कहलाने में हीनता का अनुभव करते थे। एक तरफ अंग्रेज जनसामान्य पर अत्याचार करते थे, तो दूसरी ओर ईसाई मिशनरियों के द्वारा भारत के ऋषिमुनियों, संतों, देवी-देवताओं और सब धर्मग्रंथों को झूठा कहकर उसकी निंदा की जाती थी। अंग्रेजों के अत्याचारों और शैक्षिक षड्यंत्रों के कारण भारतीय जनमानस अपने ‘हिन्दू’ कहलाए जाने पर ग्लानि का अनुभव करते थे। भारत की आत्मा ‘धर्म’ का अपमान इस तरह किया जाने लगा कि उससे उबरना असंभव सा प्रतीत होने लगा। विदेशी शासन, प्रशासन, शैक्षिक और मानसिक गुलामी से ग्रस्त भारत की स्थिति आज से भी विकट थी। ऐसे में भारतीय समाज की इस आत्माग्लानि को दूर करने के लिए एक 29 वर्षीय युवा संन्यासी भारत की आत्मा को टटोलने के लिए भारत-भ्रमण के लिए निकल पड़ा। यह संन्यासी संस्कृत के साथ ही अंग्रेजी भाषा भी अच्छी तरह जानता था। भारतीय संस्कृति, इतिहास, धर्म, पुराण, संगीत का ज्ञाता तो था ही, वह पाश्चात्य दर्शनशास्त्र का भी प्रकांड पंडित था। ऐसे बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न संन्यासी को पाकर भारतवर्ष धन्य हो गया। ऐसा लगता है जैसे, इतिहास उस महापुरुष की बेसब्री से प्रतिक्षा कर रहा था। भारतमाता अपने इस सुपुत्र की बाट निहार रही थी जो भारतीय समाज के स्वाभिमान का जागरण कर उनमें आत्मविश्वास का अलख जगा सके। यह वही युवा संन्यासी है जिन्होंने मात्र 39 वर्ष की आयु में अपने ज्ञान, सामथ्र्य और कार्य योजना से सम्पूर्ण विश्व को ‘एकात्मता’ के सामूहिक चिंतन के लिए बाध्य कर दिया।

29 वर्ष की आयु में सम्पूर्ण भारत का भ्रमण कर, स्वामी विवेकानन्द ने भारत की स्थिति को जाना। भारत भ्रमण के दौरान वे गरीब से गरीब तथा बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं से मिले। उन्होंने देखा कि भारत में एक तरफ धनवानों की टोली है, तो दूसरी ओर दुखी, असहाय और बेबस जनता मुट्ठीभर अन्न के लिए तरस रहे हैं। विभिन्न जाति, समुदाय और मतों के बीच व्याप्त वैमनस्य को देखकर स्वामीजी का हृदय द्रवित हो गया। भारत में व्याप्त दरिद्रता, विषमता, भेदभाव तथा आत्मग्लानि से उनका मन पीड़ा से भर उठा। भारत की इस दयनीय परिस्थिति को दूर करने के लिए उनका मन छटपटाने लगा। अंत में वे भारत के अंतिम छोर कन्याकुमारी पहुँचे। देवी कन्याकुमारी के मंदिर में माँ के चरणों से वे लिपट गए। माँ को उन्होंने साष्टांग प्रणाम किया और भारत की व्यथा को दूर करने की प्रार्थना के साथ वे फफक-फफक कर रोने लगे।

भारत के पुनरुत्थान के लिए व्याकुल, इस संन्यासी ने हिंद महासागर में छलांग लगाई और पहुँच गए उस श्रीपाद शिला पर जहाँ देवी कन्याकुमारी ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तप किया था। 25 दिसम्बर, 1892 को इसी शिला पर बैठकर स्वामी विवेकानन्द ध्यानस्थ हो गए। 25, 26 और 27 दिसम्बर ऐसे तीन दिन-तीन रात बिना खाए-पिए वे अपने ध्यान में लीन रहे। यह ध्यान व्यक्तिगत मुक्ति या सिद्धियों की प्राप्ति के लिए नहीं था, वरन् भारत के गौरवशाली अतीत, तत्कालीन दयनीय परिस्थिति और भारत के उज्जवल भविष्य के लिए किया गया तप था। इस राष्ट्रचिंतन में स्वामीजी ने भारत के गौरवशाली अतीत, चिंताजनक वर्तमान व स्वर्णिम भविष्य का साक्षात्कार किया था। भारत के खोए हुए आत्मविश्वास और खोई हुई आत्मश्रद्धा को दूर करने की व्यापक योजना स्वामी विवेकानन्द ने इसी समय बनाई थी। यह वही राष्ट्रध्यान था जिसके प्रताप से स्वामीजी ने विश्व का मार्गदर्शन किया। स्वामी विवेकानन्द ने बाद में बताया कि माँ भारती के अंतिम छोर पर मुझे मेरे जीवन की कार्ययोजना प्राप्त हुई। उन्हें इस ध्यान के द्वारा उनके जीवन का ध्येय प्राप्त हुआ।

भारत के ध्येय को अपना जीवन ध्येय बनाकर स्वामीजी ने आजीवन कार्य किया। उन्होंने 11 सितम्बर, 1893 को अपने केवल 07 मिनट के छोटे से भाषण से संपूर्ण विश्व का हृदय जीत लिया। स्वामी विवेकानन्दजी के विचारों ने देशभक्त क्रांतिकारियों को जन्म दिया। सुभाषचन्द्र बोस हो या सावरकर या फिर महात्मा गाँधी, सम्भवतः ऐसा कोई भारतभक्त नहीं, जिन्होंने स्वामीजी से प्रेरणा नहीं पाई। 25 दिसम्बर का दिन वास्तव में प्रत्येक भारतीयों को देश-धर्म के कार्य की प्रेरणा देता है। भारत के ध्येय को अपना ध्येय बनाने का विचार देता है। आइए स्वामी विवेकानन्दजी के इस राष्ट्रध्यान के शुभ दिन पर राष्ट्र पुनरुत्थान के कार्य में अधिकाधिक सहभागिता का संकल्प लें।

Monday, 12 November 2018


कुटुम्ब प्रबोधन-7

राम राज्य
- हनुमानसिंह राठौड़
माँ ने भूमिका स्वरूप बीज वक्तव्य प्रारम्भ किया -

“रामजी का कार्य क्या है? जो भी ईश्वरीय, दैवीय कार्य है वह रामकाज है। किन्तु प्रश्न पुनः उपस्थित होता है कि ईश्वरीय या दैवीय कार्य क्या है? जो स्वयं को भी सुख देनेवाला और जगत का कल्याण करनेवाला हो- ‘स्वांत सुखाय, जगत् हिताय च।’ स्व-सुख के लिए तो असुर भी कार्य करता है। तब स्वांत सुख क्या है? ऐसा सुख जिसके कारण किसी अन्य को कष्ट न हो, सबके लिए सुखकर हो तो और भी अच्छा। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरे लिए कोई कर्त्तव्य कर्म नहीं है किन्तु लोक रंजन के लिए मैं विहित कर्मों का उदाहरण प्रस्तुत करता हूं। गीता में ईश्वरीय कार्य क्या है, इसका भी उल्लेख ईश्वरीय-अवतरण के सम्बन्ध में आता है- सज्जनों का संरक्षण, दुर्जनों का दमन तथा धर्म की स्थापना।

हम श्रीरामचरितमानस के संदर्भ से रामकाज को समझने का प्रयत्न करते हैं। मानस में इस शब्द का प्रयोग माता सीता की खोज सम्बन्धी प्रसंग में हुआ है। क्या सरसरी दृष्टि से देखने पर यह नहीं लगता कि यह तो रामजी का व्यक्तिगत काम था?”

“हाँ, बिल्कुल सही। यह तो उनका निजी पारिवारिक मामला था। माता सीता का अपहरण तो उनकी स्वयं की गलती से हुआ था। क्या कभी हरिण भी सोने का हो सकता है? स्वर्ण मृग को पाने के लिए राम को खो दिया और जब पूरी स्वर्णमयी लंका मिल रही थी तो राम को पाने के लिए विलाप कर रही थी।” जेएनयू से पढ़कर साए कन्नू कुमार ने कहा।

“तुम्हारा क्या कहना है अनन्त? क्या तुम कन्नू के कथन से सहमत हो?” माँ ने पूछा।

“माँ, कन्नू को तो जेएनयू हो गया है। वहां जाने से पहले यदि राष्ट्रबोध का टीका नहीं लगा है, उसकी प्रतिरक्षा प्रणाली सक्रिय नहीं है, तो जेएनयू की कोमनष्टी छूत लग जाती है। यह संक्रामक बीमारी है, इसका बचाव ही उपचार है।”

आदत के अनुसार बीच में ही टोकते हुए कन्नू बोल पड़ा-

“मुद्दे की बात करो मित्र।”  

“तुम हर काम की रेड ही मारते हो कामरेड। थोड़ा संतोष तो करो। हर जगह अपचित ज्ञान की अज्ञानमय उल्टियां करते रहते हो। मार्क्स और लेनिन के अलावा भी कुछ पढ़ा है क्या? रामचरित को रामास्वामी के कुत्सित पैमाने से ही नापते हो क्या?”

“पुत्र! जलते हुए जुमलों और व्यंग्यात्मक व्याख्यान से लोग जुड़ते नहीं, क्योंकि इससे दोनों पक्षों में तलवारें तनती हैं, समाधान नहीं होता, दोनों पक्षों में न्यूनाधिक क्षति ही होती है। तुम अपनी बात कहो अनन्त।” माँ की बात सुनकर कन्नू की मुस्कान कानों तक फैल गई।  

“वही कहना चाह रहा हूं माँ। किन्तु कुछ लोग तांगे के घोड़े की तरह आँखों पर छपट्टा (पार्श्व पर्दों की आड़) लगाये रहते हैं अतः उन्हें केवल सड़क दिखाई देती है, किनारे के भवन नहीं। कोई म्यूटेशन, उत्परिवर्तन हो तो ही श्वान-पूंछ सीधी हो सकती है या पुलिस के खोजी कुत्तों की तरह पूंछ काट दी जाए।”

“पुत्र, तुम आज इतने तल्ख क्यों हो रहे हो? तुम्हारा ऐसा स्वरूप तो मैं पहली बार देख रही हूं।”

“माँ, इस कन्नू कोटरी को मैं जानता हूं। इन्हें कोई भी बात बिना चीनी या रूसी भाषा में अनुवाद किये समझने की आदत ही नहीं है और वह अनुवाद हुआ क्या है यह इनको ही समझ में नहीं आता, किन्तु बोलते उसको अल्प विराम, खड़ी पाई सहित वैसा ही हैं। इनका कहना है कि बात हमारी ही सोलह आने सच है और परनाला वहीं गिरेगा जहां हम कहेंगे। अब बताओ माँ बिना पूंछ काटे इन्हें कैसे समझाएं? और पूंछ कट भी गई तो भी ये सूंघेंगे तो घूरा ही, इनकी खोज भी तो सीमित वस्तुओं तक ही सीमित है!!”

“तुम आरएसएस वाले भी तो नागपुर की भाषा में ही बोलते हो।” कन्नू ने कान उमेठने की कोशिश की।

“हाँ, क्योंकि नागपुर की भाषा भारत की भाषा है। और हमें अपनी मिट्टी की भाषा के प्रति श्रद्धा है। यदि अत्यल्प गुण और असंख्य दोष हों तो भी हमें स्वीकार है, क्योंकि यह हमारी है। गुणों का संवर्धन और दोषों का परिष्कार हम करेंगे क्योंकि हम इसके हैं।” अनन्त ने अत्यंत गूढ़ व मार्मिक बात कही।

“अनन्त, तुम्हारी बहस तो हनुमान की पूंछ हो रही है।” माँ बोली।  

“रावण की लंका जलानी है तो हनुमान की पूंछ लम्बी ही करनी पड़ेगी।”

“तुम तो आज मुझे ही लपेटने लगे। देखो, मेरे पास समय कम है। रविवार तुम्हारे लिए है मेरे लिए नहीं।” माँ ने निर्णयात्मक वक्तव्य दिया।

“ठीक है माँ, आज आप सभी केवल श्रवण करें। प्रश्न, प्रति-प्रश्न फिर कभी। मैं आज रामकाज की व्याख्या करता हूं।” अनन्त ने व्यासपीठ ग्रहण की।

“हे समस्त श्रोताओं, चाहे भारतवासी हों या माओदासी, श्रीरामचरितमानस के ‘रामकाज’ प्रसंग पर एक विभक्त भक्त के आक्षेप से ही प्रारम्भ करते हैं। माँ ने हमें कुरेदने और सत्यान्वेषण के लिए यह कहा था कि, ‘क्या सरसरी दृष्टि से देखने पर यह नहीं लगता कि सीता की खोज राम का व्यक्तिगत कार्य था अतः रामकाज अर्थात् दैवीय कार्य कैसे हुआ?’ माँ ने ‘सरसरी दृष्टि’ कहा था। हमें गूढ़ दृष्टि से इसका अर्थ हृदयंगम करवाने के लिए आज के स्वाध्याय में यह प्रश्न चर्चा के लिए रखा था ताकि हम सेकुलर खोल में बैठे निओ-कम्यूनिज्म की तर्क प्रणाली का उत्तर दे सकें।

राजा दशरथ की तीन रानियां थीं। क्या श्रीराम को एक पत्नी और नहीं मिल सकती थी? क्यों सीता के लिए वन-वन खोजते हुए रावण जैसी महाशक्ति से टकराना? व्यवहारवादी दार्शनिक या उपयोगितावादी अर्थशास्त्री तो लाभ-हानि का विश्लेषण कर यही कहता कि अनिश्चित की प्राप्ति के लिए समय और शक्ति का अपव्यय करने की अपेक्षा एक नई समझदार पत्नी लाना अधिक अच्छा है जो आभासी स्वर्ण मृग से नहीं ललचाए। और अयोध्या के राजकुमार, जो भावी सम्राट हैं, के लिए एक और पत्नी प्राप्त करना कोई कठिन काम नहीं था।

तो यह तय है कि सीता माता की खोज यह पारिवारिक मामला भर नहीं था। यह नारी की अस्मिता का प्रश्न था। यह हमारी संस्कृति के आधार सूत्र ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ तथा ‘मातृवत् परदारेषु’ के व्यवहार की परीक्षा थी।
मामा मारीच के ऐंद्रजालिक विज्ञापन से माता सीता भ्रमित हो गई थी। आज की बहुराष्ट्रीय कम्पनियां क्या वही कल्पित स्वर्णमृग दिखाकर हमारी लक्ष्मी का हरण नहीं कर रही हैं? किन्तु राम कुटिया में नहीं हैं अतः कोई भी किसी अकेली स्त्री का हरण कर लेगा? और इसे हम उसके पति का व्यक्तिगत मामला कहेंगे? यदि ऐसा है तो जेएनयू में क्यों सरकार को कोसते हो? क्यों केण्डल मार्च करते हो? नारी के सम्मान का प्रश्न किसी का व्यक्तिगत नहीं, पूरे समाज और राष्ट्र का प्रश्न होता है।  

और रावण ने खेल भी कैसा खेला? माता सीता का हरण भी कर लिया और ऋषि संस्कृति को बदनाम करने का षड्यंत्र भी साध लिया। भारत की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाली जमात यही कर रही है। रावण भगवा धारण करके आया था और भिक्षा की गुहार लगाई थी। इस त्याग और शील के वस्त्र पर अविश्वास करने की अपेक्षा माता सीता ने धोखा खाना स्वीकार कर लिया। घर के द्वार से याचक निराश जाए यह माता ने नहीं होने दिया अन्यथा लोगों की दान देने की वृत्ति से विश्वास उठ जाता। भगवा वस्त्र पर सेकुलर कन्नू को विश्वास नहीं है पर रावण को विश्वास था। उसे विश्वास था कि इस ऋषिवेश पर भारत में अटूट श्रद्धा है, और अपने इस विश्वास के आधार पर ही उसने कपट मुनि का वेश बनाकर माता सीता के साथ विश्वासघात किया। माता सीता की यह उदात्तता ध्यान में आती है या नहीं? कन्नू तुम्हारा ही कथन प्रमाणित करता है कि माता सीता को स्वर्ण की भूख नहीं थी। हरिण को देखकर हिरण्य की भूख जगी, यह कथन तब सार्थक माना जाता जब रावण यह उद्घोषणा करता कि ‘यदि राम स्वर्ण मृग के पीछे जाएंगे तो मैं सीता का अपहरण करूंगा।’ यदि इस घोषणा के पश्चात् भी माता सीता अपने पति से स्वर्ण मृग लाने की जिद करती तब हम कह सकते थे कि सीता में स्वर्ण की लालसा थी और उनका अपहरण उनकी ही गलती से हुआ। यदि माता सीता को स्वर्ण की ही भूख होती तो स्वर्णमयी लंका का दर्शन ही उसे लंकेश की बात मानने को ललचा देता।

यह तो था कन्नू के कुतर्क का सतर्क उत्तर। अब इस प्रसंग के कुछ अन्य आयामों की मैं चर्चा करना चाहता हूं।
ईश्वरीय कार्य करने का अवसर प्राप्त होना, राम काज का यंत्र बनना सौभाग्य की बात है। समाज के लिए शुभ और कल्याणकारी कार्य राम के ही काम हैं। राम काज का अवसर भाग्यवान को ही मिलता है और ऐसे कार्य करनेवाले को परम गति स्वतः प्राप्त होती है। अतः राम का काम आध्यात्मिक साधना तथा मोक्ष का साधन है। अंगद इस प्रकार विचार करके इस निश्चय पर पहुंचता है कि जटायु का जन्म और मरण दोनों धन्य हैं क्योंकि जन्म लेने के कारण उन्हें राम काज का अवसर प्राप्त हुआ और राम के कार्य में ही प्राण त्यागने के कारण श्री राम का पावन परस (स्पर्श) प्राप्त हुआ, उनके परम धाम का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

‘कह अंगद बिचारि मन माहीं। धन्य जटायू सम कोउ नाहीं।।
राम काज कारन तनु त्यागी। हरि पुर गायउ परम बड भागी।।’

रामकाज के लिए अपनी पात्रता सिद्ध करना पड़ता है। रामकाज के योग्य बनने की चुनौती स्वीकार करनेवाला ही वैसा बनने का प्रयत्न कर सकता है। यह सुविधा से होनेवाला कार्य नहीं है। बुद्धि और शक्ति, व्यक्तित्व और कर्तृत्व दोनों चाहिए।

किष्किंधा काण्ड (29-1) में इसी का संकेत है कि जो सौ योजन समुद्र को लांघने की सामर्थ्य रखनेवाला तथा बुद्धि का भण्डार है वही रामकाज कर सकता है :-

‘जो नाघइ सत जोजन सागर। करइ सो राम काज मति आगर।।’ 

समाज-राष्ट्र हित का कार्य प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है, क्योंकि एक क्षण भी बिना कार्य किये रहना इस संसार में सजीव के लिए सम्भव ही नहीं है। किन्तु कोई दैवीय कार्य करता है, कोई आसुरी; ऐसा क्यों? इसके लिए अपने आचरण से सिखाने वाला, अन्तर्निहित क्षमताओं को जगा सकने वाला प्रबोधक चाहिए।


श्रीरामचरितमानस में हनुमानजी का अनुपम उदाहरण है। वे रामकाज के लिए संकल्पबद्ध हैं किन्तु विस्मृत क्षमताओं के भण्डार हैं। अधिकांश लोगों के साथ कस्तूरी मृग जैसा ही घटित होता है। वे अपनी अन्तर्निहित क्षमताओं को ही नहीं पहचान पाते, उनका जागरण नहीं कर पाते। जीवनभर कुछ सीमित बातों के ही ईर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। यदि सकारात्मक प्रबोधन मिले तो क्षमताओं का अनावरण व विकास, परिमार्जन व परिवर्धन सम्भव है। ऋक्षराज जामवन्त जैसा अनुभवी प्रबोधक हो तो हनुमानजी से भी असम्भव लगनेवाला सागर संतरण, माता सीता का संधान जैसा कार्य सम्पन्न करवा सकते हैं। इसका वर्णन तुलसीदासजी करते हैं :-  

“कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेउ बलवाना।।
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।।
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा।।”
(किष्किंधा काण्ड 3॰/1-6)

आत्मविस्मृति की अवस्था में सामर्थ्य सम्पन्न व्यक्ति भी चुप साधकर बैठ जाता है। आत्म-प्रबोधन होने पर वही व्यक्ति अकल्पनीय कर्तृत्व प्रदर्शित करता है। जब गुरु गोबिन्द सिंहजी ने घोषणा की कि, ‘चिड़ियों ते मैं बाज तुडाऊं। सवा लाख से एक लडाऊं।।’ तो उसी दीन-हीन बने समाज में से स्वत्व के जागरण द्वारा ऐसे चरित्र खड़े कर दिए। इसलिए सज्जन और समर्थ की चुप्पी ही सबसे अधिक कष्टकारक होती है। जामवंत ने इसी प्रवृत्ति पर सर्वप्रथम आघात किया है- ‘तुम सामर्थ्यवान होकर भी क्यों चुप बैठे हो हनुमान?’ किन्तु उसे तो अपने सामर्थ्य का ही विस्मरण था। जब यही पता नहीं है कि मैं सामर्थ्यवान हूं तो कहने का असर नहीं होता। सामर्थ्य का स्मरण करवाने के लिए स्मृति का जागरण करना पड़ता है, कुल परम्परा का बोध करवाना पड़ता है। एक कथा सुनी है न हाथी की! युवावस्था में अत्यंत प्रसिद्ध रणकुशल हाथी रहा था। वृद्धावस्था में तालाब में पानी पीने गया तो कीचड़ में धंस गया। बाहर निकालने के सब प्रयत्न विफल रहे तो पुराने महावत को बुलाया गया। उसने रणवाद्य बजाने का सुझाव दिया। वाद्यों की ध्वनि कान में पड़ते ही युवावस्था में रण में प्रकट पौरुष जाग गया और एक झटके में चिंघाड़ के साथ कीचड़ से बाहर आ गया। तुम्हारी कुल परम्परा गति के प्रतिमान स्थापित करनेवाली है। गति की तुलना पवन-वेग से करते हैं। सुपर सोनिक विमान की हम बात करते हैं, किन्तु ध्वनि तरंगों का वाहक भी पवन ही है। तो हे हनुमान, तुम पवन-पुत्र हो, गति तो तुम्हारे कुल की चेरी है। बुद्धि, बल और विज्ञान- ये तुम्हें कुल परम्परा से प्राप्त हैं। विज्ञान सदैव अगली पीढ़ी में प्रगत (विकसित) होता है। अतः जहां प्रगत विज्ञान है वहां बुद्धि भी प्रगत होगी। विवेक संस्कार से आता है और उसमें भी कहीं कमी नहीं दिखाई देती। मानव अमित सामर्थ्य वाला प्राणी माना जाता है। वह अमृत पुत्र है, देवांश है, अतः यदि वह ठान ले तो सागर का भी मंथन कर अमृत निचोड़ सकता है, मनुष्य यदि ठान ले तो इस संसार में कोई काम कठिन नहीं है, फिर तुम्हारा तो जन्म ही रामकाज के लिए हुआ है। जिस कार्य के लिए हमारा जन्म हुआ, वह कार्य करने में हम सफल हो जाएं इसी में जन्म लेने की सार्थकता है :-   

“प्रभु की कृपा भयउ सब काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू।।”
(सुन्दरकाण्ड 3॰/4)
जब तक ईश्वरीय कार्य, प्रभु-काज न होने तक चित में शांति न रहे, प्रभु कार्य न होने पर ग्लानि भाव रहे तब ही रामकाज के लिए सतत् प्रयत्न होता है :-   

“अहह दैव मैं कत जग जायऊं। प्रभु के एकहु काज न आयऊं।।”
(लंकाकाण्ड 6॰/3)
रामकाज में रत व्यक्ति की मनोदशा कैसी होती है? व्यक्ति अपनी सुध-बुध खोकर पूर्ण समर्पित भाव से कार्य करता है तब संकल्पित कार्य पूर्ण होता है :- 

“चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह।
रामकाज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह।।”
(किष्किंधाकाण्ड-23)
रामकाज में तत्परता कितनी होती है? जब जीवन का ध्येय रामकाज होता है तो वह कार्य प्राथमिकता बन जाता है और शेष कार्य उसी के पूरक होते हैं। रामकाज में वानर यूथ सरिता, सर, गिरि-कंदरा में किस प्रकार माता सीता की खोज कर रहे हैं? वे रामकाज में इतना तन्मय हैं कि अपने शरीर से स्नेह को भी विस्मृत कर चुके हैं, सुध-बुध खोकर कार्य कर रहे हैं। नागपाश काटने के लिए मन की गति से उड़नेवाला गरुड़ भी उसमें तीव्रता लाता है, यह है रामकाज में प्राथमिकता का मापदण्ड :-

रन सोभा लगि प्रभुहि बंधायो। नागपास देवन्ह भय पायो।।
(लंका काण्ड 73/13)

इहां देवरिषि गरूड पठायो। राम समीप सपदि सो आयो।।
(लंका काण्ड 74/1॰)
रामकाज में लगा व्यक्ति प्रलोभन में फंसता नहीं, संकटों से डरता नहीं - हर परिस्थिति में अपने ध्येय को याद रखता है। कपट मुनि सत्कर्म में लगे लोगों को प्रलोभनों में फंसा कर मार्ग से विचलित करने का प्रयत्न करते हैं। लक्ष्मण के प्राण संकट में हैं, सूर्योदय से पूर्व का समय बचाने के लिए है, हनुमानजी संजीवनी लेने जा रहे हैं और कपट मुनि मार्ग में प्रलोभन का बाजार सजाए बैठा है :-

“मारूत सुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम।”
ऐसे इन्द्रजाल से बचने की कुशलता बुद्धि-विवेक के माध्यम से ही सम्भव होती है। संकट में भी प्रभु स्मरण से आपकी सफलता के लिए सभी सहानुभूति प्रकट करने लगते हैं :-

“राम काजु सब करिहहु, तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।”
राम काज में लगे व्यक्ति को सफलता अवश्य मिलती है, निराशा का कोई कारण नहीं है। क्यों? क्योंकि वह ईश्वरीय कार्य करने के लिए प्रवृत्त है :-  

“पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं। अति अपार भव सागर तरहीं।।
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई। राम हृदयं धरि करहु उपाई।।”
(किष्किंधा काण्ड 29/3-4)
जब हृदय में राम, स्मृति में राम, वचन में राम, कृति में राम होता है तब रामकाज में रत व्यक्ति संकट में तो अपना स्वीकृत कार्य भूलता ही नहीं- और यह तो सुगम है, क्योंकि संकट व्यक्ति को ध्येय के प्रति अधिक दृढ़ बनाता है, किन्तु सुविधा में लक्ष्य का विस्मरण न करना ही सबसे बड़ी चुनौती होती है। विलासिता कर्त्तव्य का विस्मरण कराती है और समझौतावादी बनाती है। सुविधा में जो डिगता नहीं है, अनुकूलता में जो रमता नहीं है वही रामकाज करने में सफल होता है। मैनाक द्वारा विश्राम के प्रस्ताव पर हनुमानजी का कथन हमारे लिए प्रेरक है :-
“हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां बिश्राम।।”
(सुन्दर काण्ड-1)
जब कार्यकर्ता स्वयं स्वीकृत राम काज में रत रहता है तो सदैव सफलता में आनंदित तो होता है पर श्रेय स्वयं नहीं लेता, ‘प्रभु की कृपा भयउ सब काजू’ यह भाव रहता है, दूसरों को श्रेय देने की विनम्रता का तेज ही ऐसा होता है :-  
“मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि राम चन्द्र कर काजा।।”
(सुन्दर काण्ड 3॰/4)
तो यह है श्रीरामचरितमानस में रामकाज का विविध रूपा वर्णन। रामकाज और राम-राज अन्योन्याश्रित क्रियाएं हैं। यह धर्म राज्य है, धर्म का तात्पर्य वह नहीं है जो कम्यूनिस्ट या स्यूडो सेकुलर समझाते हैं। धर्म है जिससे रामराज्य स्थापित हो, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति त्रितापों- दैहिक, दैविक, भौतिक से मुक्त हो। इसी को तो कल्याणकारी राज्य कहते हैं। इसी में से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ की अवधारणा आती है, ये भारत की मूल अवधारणाएं हैं, हमारे दर्शन का आधार हैं। अब बताइए कन्नू कुमारजी आपको कुछ कहना है?”  

“नहीं, यदि रामराज का अर्थ सर्वसमावेशी, कल्याणकारक, कौटुम्बिक भाव से विकास है तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। मुझे लगता था राम राज्य यानी हिन्दू राष्ट्र और रामकाज यानी हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए प्रयत्न, जो भगवा ब्रिगेड करती है।” कन्नू कुमार बोला।

“राम राज्य और हिन्दू राष्ट्र अन्योन्याश्रित हैं, ये अलग नहीं हैं। हिन्दू राष्ट्र का अर्थ ही सर्व समावेशी है। सीरियन ईसाइयों, यहूदी, पारसी आदि जो भी विश्व में प्रताड़ित हुआ उनको स्नेह के साथ अपनाने वाला अपना देश है। उसका कारण यहां का जड़-चेतन की चिंता करनेवाला हिन्दू दर्शन है। कम्यूनिस्ट सहजता से सत्य स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि जो वर्ग-संघर्ष पर अवलम्बित विचार है, वह सर्वसमावेशी हो ही नहीं सकता। अतः वे अन्य लोगों में भ्रम पैदा करने का प्रयत्न करने के लिए कभी राम का अस्तित्व नकारते हैं कभी राम राज्य को साम्प्रदायिक घोषित करते हैं। हिन्दुइज्म को लिबरल और हिन्दुत्व को कट्टर घोषित करते हैं। बौद्धिक भ्रमजाल से बाहर निकलकर विचार करोगे तब सब ठीक से समझ में आएगा।”
………………

Thursday, 1 November 2018

राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में विजयादशमी का सन्देश

नागपुर में संपन्न हुए विजयादशमी उत्सव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक डा. श्री मोहन भागवतजी और नोबल पुरस्कार विजेता श्री कैलाश सत्यार्थी ने अपने व्याख्यान से जो सन्देश दिया वह वर्तमान सन्दर्भ में बेहद प्रासंगिक और आँखें खोलने वाली हैं। एक ओर जहां सरसंघचालक के आह्वानों तथा संदेशों की प्रशंसा हो रही है वहीं दूसरी ओर एक ऐसा खेमा है जिनके मन- मस्तिष्क में खलबली मची हुई है। इसलिए सरसंघचालक और कैलाश सत्यार्थी के भाषण से जो विचार सामने निकलकर आए उसे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में समझना होगा।

संघ के विजयादशमी उत्सव में बतौर मुख्य अतिथि आये कैलाश सत्यार्थी अपने भाषण में ऋग्वेद, श्रीरामचरितमानस आदि के श्लोकों और पदों का उल्लेख करते हुए अपनी बात रखी। उन्होंने अपने भाषण के प्रारंभ में कहा,
‘‘ॐअग्ने नय सुपथा राये, अस्मान् विष्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्म्ज्जुहु राणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्ति विधेम।।
हे अग्नि स्वरूप परमात्मा हमें सही रास्ते पर चलाएँ। ताकि हम अच्छे कार्य करते हुए संसार के भौतिक और आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति कर सकें। हमें कुटिलता और बुराई से दूर रखें।’’

सत्यार्थी के भाषण में ऐसे भारत के निर्माण की बात कही गई जो संवेदनशील हो, समावेशी हो, सुरक्षित हो, स्वावलंबी हो और स्वाभिमानी हो। तभी भारत का सामथ्र्य प्रगट होगा। उन्होंने चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि, ‘‘पिछले 20 वर्षों में ही दुनिया में बाल मजदूरों की संख्या 26 करोड़ से घटकर 15 करोड़ रह गई है। लेकिन मुझे अफसोस है कि आज भी भारत में हमारी बेटियों को जानवरों से भी कम कीमत पर खरीदा-बेचा जा रहा है। मैंने ऐसी कई बेटियों को गुलामी से मुक्त कराया है, जो छूटने के बाद भी अपने माता-पिता के गले से लिपटकर रोने का साहस नहीं जुटा पातीं। ऐसे में हम कब तक उदासीनता, तटस्थता और भय के नींद में सोते रहोगे? दुनिया में लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं कि आपका देश तो समस्याओं की खदान है। उन्हें हर बार मेरा एक ही जवाब होता है। भले ही भारत में सौ समस्याएं हैं, लेकिन भारत माता एक अरब समाधानों की जननी है।’’ सत्यार्थी ने कहा कि पश्चिम ने बाजार, व्यापार, उपभोक्ता, उत्पादन और तकनीक का वैश्वीकरण सिखाया जिसकी गर्म आँधी में दुनिया झुलस उठी है। हमें भारत की धरती से करुणा के वैश्वीकरण की शीतल बयार चलानी चाहिए।

कैलाश सत्यार्थी के भाषण के बाद सरसंघचालक श्री मोहन भागवतजी ने ‘‘राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य’’ में अपनी बात रखी। उन्होंने श्रीगुरु नानकदेव, महात्मा गांधी, भगिनी निवेदिता, पंडित मदनमोहन मालवीय तथा डा. बाबासाहेब आम्बेडकर के कथनों का उल्लेख करते हुए देश की आंतरिक व बाह्य सुरक्षा, अर्बन माओवाद, शबरीमाला मंदिर, श्रीराम जन्मभूमि तथा चुनाव में नागरिकों की भूमिका पर जोर दिया। इसलिए मीडिया जगत में इस भाषण को लेकर विमर्श चल पड़ा।

डा. भागवत ने कहा, ‘‘यह वर्ष श्रीगुरुनानक देव जी के प्रकाश का 550वाँ वर्ष है। अपने भारतवर्ष की प्राचीन परम्परा से प्राप्त सत्य को भूलकर, आत्मविस्मृत होकर जब अपना सारा समाज दम्भ, मिथ्याचार, स्वार्थ तथा भेद की दलदल में आकण्ठ फँस गया था और दुर्बल, पराजित व विघटित होकर लगातार सीमा पार से आने वाले क्रूर विदेशी असहिष्णु आक्रामकों की बर्बर प्रताड़नाओं को झेलकर तार-तार हो रहा था, तब श्रीगुरुनानक देव जी ने अपने जीवन की ज्योति जलाकर समाज को अध्यात्म के युगानुकूल आचरण से आत्मोद्धार का नया मार्ग दिखाया, भटकी हुई परम्परा का शोधन कर समाज को एकात्मता व नवचैतन्य का संजीवन दिया। उन्हीं की परम्परा ने हमको देश की दीन-हीन अवस्था को दूर करने वाले दस गुरुओं की सुन्दर व तेजस्वी मालिका दी। उसी सत्य व प्रेम पर स्थापित सर्वसमावेशी संस्कृति के, देश में विभिन्न महापुरुषों के द्वारा समय-समय पर पुरस्कृत व प्रवर्तित, देश काल परिस्थिति के अनुरूप प्रबोधन के सातत्य का परिणाम है कि जिनके जन्म का यह 150वाँ वर्ष है ऐसे महात्मा गांधीजी ने इस देश के स्वतंत्रता आन्दोलन को सत्य व अहिंसा पर आधारित राजनीतिक अधिष्ठान पर खड़ा किया। ऐसे सभी प्रयासों के कारण देश की सामान्य जनता स्वराज्य के लिए घर के बाहर आकर, मुखर होकर अंग्रेजी दमनचक्र के आगे नैतिक बल लेकर खड़ी हो गई। एक सौ वर्ष पहले अमृतसर के जलियांवाला बाग में स्वराज्य के लिए तथा ‘‘रौलेट कानून’’ के अन्याय व दमन के विरुद्ध संकल्पबद्ध, चारों ओर से घेरकर जनरल डायर के नेतृत्व में जिन्हें गोलीबारी का शिकार बनाया गया, उन हमारे सैकड़ों निहत्थे देशबांधवों के त्याग, बलिदान व समर्पण का स्मरण भी इस नैतिक बल को हममें जागृत करता है।’’

सरसंघचालक ने आगे कहा कि इस वर्ष के इन औचित्यपूर्ण संस्मरणों का उल्लेख इसलिए आवश्यक है कि स्वतंत्रता के 71 वर्षों में हमारे देश ने उन्नति के कई आयामों में एक अच्छा स्तर प्राप्त कर लिया है, परन्तु सर्वांगपरिपूर्ण राष्ट्रीय जीवन के और भी कई आयामों में अभी हमें बढ़ना है। हमारे देश के विश्व में सुसंगठित, समर्थ व वैभव-सम्पन्न बन कर आगे आने से जिन शक्तियों के स्वार्थ-साधन का खेल समाप्त या अवरुद्ध हो जाता है, वे शक्तियां तरह-तरह के कुचक्र चलाकर देश की राह में रोड़े अटकाने से बाज नहीं आयी है। कई चुनौतियों को हमें अभी पार करना है।
देश की सुरक्षा

देश की सुरक्षा पर अपने विचार रखते हुए डा. भागवत ने कहा, ‘‘किसी भी देश के लिए उस देश की सीमाओं की सुरक्षा तथा अंतर्गत सुरक्षा की स्थिति विचार का विषय पहला रहता है क्योंकि इनके ठीक रहने से ही देश की समृद्धि व विकास के लिए प्रयास करने हेतु अवकाश व अवसर उपलब्ध होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के तानों-बानों को ठीक से समझकर अपने देश की सुरक्षा-चिन्ताओं से उनको अवगत कराना व उनका सहयोग समर्थन प्राप्त करना यह भी सफल प्रयास हुआ है। पड़ोसी देशों सहित सब देशों से शांतिपूर्ण व सौहाद्र्रपूर्ण सम्बन्ध बनाने बढ़ाने की अपनी इच्छा, वाणी व कृति को कायम रखते हुए, देश के सुरक्षा संदर्भ में जहाँ आवश्यक वहां दृढ़ता से खड़े व अड़े रहना तथा साहसपूर्ण पहल करके अपने सामथ्र्य का विवेकी उपयोग करना यह भी अपना रुख सेना, शासन व प्रशासन ने स्पष्ट दिखाया है। इस दृष्टि से अपनी सेना तथा रक्षक बलों का नीति धैर्य बढ़ाना, उनको साधन-सम्पन्न बनाना, नयी तकनीक उपलब्ध कराना आदि बातों का प्रारम्भ होकर उनकी गति बढ़ रही है। दुनिया के देशों में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ने का यह भी एक कारण है।’’

सरसंघचालक ने कहा कि सुरक्षा बलों, रक्षक बलों तथा उनके परिवारों के योगक्षेम की व्यवस्था पर ध्यान बढ़ाना आवश्यक है। इस दिशा में कुछ अच्छे प्रयास शासन के द्वारा हुए हैं। उनको लागू करने की गति कैसे बढ़ सकती है इस पर विचार करना आवश्यक है। उन्होंने जोर देकर कहा, ‘‘यह अपेक्षा जितनी शासन से व प्रशासन से है उतनी ही समाज से भी है, यह प्रत्येक देशवासी को ध्यान में रखना चाहिए।’’

सागरी द्वीपों की निगरानी और आपसी तालमेल 

सरसंघचालक ने कहा, ‘‘अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के परिप्रेक्ष्य में सागरी सीमा की सुरक्षा एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषय बना है। मुख्यभूमि से लगे सागरी क्षेत्र में कम अधिक दूरी पर भारत में अंतर्भूत सैकड़ों द्वीप हैं। अन्दमान निकोबार द्वीप समूह सहित ये सभी द्वीप सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थानों पर स्थित हैं। उनकी निगरानी व्यवस्था तथा सुरक्षा की दृष्टि से वहाँ की व्यवस्था का सबलीकरण यह अतिशीघ्रता से ध्यान देकर पूर्ण करने का विषय है। सागरी सीमा व द्वीपों पर ध्यान देनेवाली नौसेना तथा अन्य बल इनमें आपसी तालमेल, सहयोग व साधन-संपन्नता पर शीघ्र अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। भू तथा सागरी सीमावर्ती क्षेत्र में रहनेवाले अपने बंधु कई सीमाविशिष्ट परिस्थितियों का सामना करते हुए भी धैर्यपूर्वक डटे रहते आए हैं। उनकी वहाँ व्यवस्था ठीक रहे तो आतंकी घुसपैठ, तस्करी आदि समस्याओं को कम करने में वे सहायक भी हो सकते हैं। उनको समय-समय पर उचित राहत मिले, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की व्यवस्था उन तक पहुँचती रहे तथा उनमें साहस, संस्कार व देशभक्ति की उत्कटता बनी रहे, इसके लिए शासन व समाज दोनों के प्रयास अधिक बढ़ाने की आवश्यकता है।’’
उन्होंने आगे कहा कि सुरक्षा उत्पादों के मामले में देश की संपूर्ण आत्मनिर्भरता को - अन्य देशों के साथ आपसी आदान-प्रदान की उचित मात्रा रखते हुए भी - साधे बिना हम देश की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त नहीं हो सकते। इस दिशा में देश में प्रयासों की गति बहुत अधिक होनी पड़ेगी।
आन्तरिक सुरक्षा

देश की आतंरिक सुरक्षा में समाज की भूमिका को स्पष्ट करते हुए डाॅ. भागवत ने कहा कि देश की सीमाओं की सुरक्षा के साथ ही देश में अंतर्गत सुरक्षा का विषय भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। उसके उपायों का एक पहलू केन्द्र व राज्य शासनों तथा प्रशासन के द्वारा कड़ाई के साथ कानून, संविधान तथा देश की सार्वभौम संप्रभुता को चुनौती देने वाली, हिंसक गतिविधियां करने वाली, देश के अन्दर तथा बाहर से प्रेरित अथवा प्रेषित मंडलियों का बंदोबस्त करना है। इसमें केन्द्र व राज्य सरकारों की तथा पुलिस व अर्धसैनिक बलों की कार्यवाई सफलतापूर्वक चली है।

उन्होंने जोर देकर कहा, ‘‘अपने समाज में व्याप्त अज्ञान, विकास तथा सुविधाओं का अभाव, बेरोजगारी, अन्याय, शोषण, विषमता का व्यवहार तथा स्वतंत्र देश में आवश्यक विवेक व संवेदना का समाज बड़ी मात्रा में अभाव है। उसे दूर करने में शासन-प्रशासन की भूमिका अवश्य है। परन्तु उससे बड़ी समाज की भूमिका है। समाज में इन सब त्रुटियों को दूर कर उसके शिकार हुए समाज के अपने इन बंधुओं को स्नेह व सम्मान से गले लगाकर समाज में सद्भावपूर्ण व आत्मीय व्यवहार का प्रचलन बढ़ाना पड़ेगा। समाजजीवन के इस परिष्कार का प्रारम्भ पहले स्वयं के मन मस्तिष्क के परिष्कार तथा अपने आचरण से करना होगा। समाज के सब प्रकार के वर्गों से आत्मीय व नित्य संपर्क स्थापित कर उनके सुखःदुख का भागी बनना होगा।’’

चिंताजनक प्रवृत्तियां: शहरी माओवाद (urban naxalism)

शहरी माओवाद के बढ़ते खतरों का उल्लेख करते हुए सरसंघचालक ने कहा, ‘‘देश को चलानेवाला व्यवस्थातंत्र तथा देश-समाज के द्वारा समाज के दुर्बल घटकों के साथ, उनके उन्नति के प्रयासों में तत्परता, संवेदनशील आत्मीयता तथा पारदर्शिता व आदरसम्मान का व्यवहार बरतने में त्रुटियाँ रह जाने से अभाव, उपेक्षा व अन्याय की मार से जर्जर ऐसे वर्गों के मन में संशय, अलगाव, अविवेक, विद्रोह व द्वेष तथा हिंसा के बीज बोना व पनपाना आसानी से संभव हो जाता है। इसी का लाभ लेकर उनको अपने स्वार्थप्रेरित उद्देश्य के लिए, देशविरोधी कृत्यों के लिए, आपराधिक गतिविधियों के लिए गोला बारूद के रूप में उपयोग करना चाहनेवाली शक्तियां उनमें अपने छल-कपट के खेल खेलती है। गत 4 वर्षों में समाज में घटी कुछ अवांछित घटनाएँ, समाज के विभिन्न वर्गों में व्याप्त नई-पुरानी समस्याएँ, विभिन्न नयी-पुरानी माँगें आदि को लेकर आन्दोलनों को एक विशिष्ट रूप देने का जो लगातार प्रयास हुआ, उससे यह बात सभी के ध्यान में आती है। आनेवाले चुनाव के वोटों पर ध्यान रखकर, सामाजिक एकात्मता, कानून संविधान का अनुशासन आदि की नितांत उपेक्षा करके चलने वाली स्वार्थी, सत्तालोलुप राजनीति तो ऐसे हथकण्डों के पीछे स्पष्ट दिखती रही है। परन्तु इस बार इन सब निमित्तों को लेकर समाज में भटकाव का, अलगाव का, हिंसा का, अत्यंत विषाक्त द्वेष का तथा देश विरोधिता तक का भी वातावरण खड़ा करने का प्रयास हो रहा है।’’

उन्होंने कहा कि ‘‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’’ आदि घोषणाएँ जिन समूहों से उठीं उन समूहों के कुछ प्रमुख चेहरे कहीं-कहीं इन घटनाओं में प्रमुखता से अपने भड़काऊ भाषणों के साथ सामने आए। दृढ़ता से वन प्रदेशों में अथवा अन्य सुदूर क्षेत्रों में दबाये गए हिंसात्मक गतिविधियों के कर्ता-धर्ता व पृष्ठपोषण करनेवाले अब शहरी माओवाद (urban naxalism) के पुरोधा बनकर ऐसे आन्दोलनों में अग्रपंक्ति में दिखाई दिए। पहले छोटे-छोटे अनेक संगठनों के जाल फैलाकर तथा छात्रावास आदि में लगातार संपर्क के माध्यम से एक वैचारिक अनुयायी वर्ग खड़ा किया जाता है। फिर उग्र व हिंसक कार्यवाईयों को छोटे-बड़े आन्दोलनों में घुसाकर, अराजकता का अनुभव देकर, उन अनुयायियों में प्रशासन व कानून का डर तथा नागरिक अनुशासन का डर समाप्त किया जाता है। दूसरी ओर समाज में आपस में व स्थापित व्यवस्था व नेतृत्व के बारे में तिरस्कार व द्वेष उत्पन्न किया जाता है। ऐसी अचानक उग्र रूप लेनेवाली घटनाओं के माध्यम से समाज के सब अंगों में प्रस्थापित सभी विचारों का नेतृत्व, जो समाज व्यवस्था व नागरिक व्यवहार की भद्रता के अनुशासन से कम अधिक मात्रा में ही सही बंधा रहता है, अचानक ध्वस्त किया जाता है। नया अपरिचित, अनियंत्रित, केवल नक्सली नेतृत्व से ही बंधा हुआ अंधानुयायी व खुला पक्षपाती नेतृत्व स्थापित करना, यह इन शहरी माओवादियों की ही नव वामपंथी कार्यपद्धति है। सोशल मीडिया, अन्य माध्यम तथा बुद्धिजीवियों व अन्य संस्थाओं में पहले से तथा बाद तक स्थापित इनके हस्तक ऐसी घटनाओं में, इनसे संबद्ध भ्रमपूर्ण प्रचार अभियान में, बौद्धिक व अन्य सभी प्रकार का समर्थन आदि में, सुरक्षित अंतर पर व तथाकथित कृत्रिम प्रतिष्ठा के कवच में रहकर संलग्न रहते हैं। उनके प्रचार का विषैलापन अधिक प्रभावी करने के लिए उन्हें असत्य तथा जहरीली भड़काऊ भाषा का उपयोग स्वछन्दतापूर्वक करना भी आता है। देश के शत्रुपक्ष से सहायता लेकर स्वदेशद्रोह करना तो अतिरिक्त कौशल्य माना जाता है। सोशल मीडिया के इनके आशय व कथ्य का उद्गम कहाँ से है यह जाँच-पड़ताल की जाए तो यह बात सामने आती है। जिहादी व अन्य कट्टरपंथी व्यक्तियों की कहीं न कहीं प्रत्यक्ष उपस्थिति भी इन सभी घटनाओं में समान बात है। इसलिए यह सारा घटनाक्रम केवल प्रतिपक्ष की सत्ताप्राप्ति की राजनीति मात्र न रहकर देशी-विदेशी भारतविरोधी ताकतों की सांठगांठ से धूर्ततापूर्वक चलाया गया कोई बड़ा षड्यंत्र है; जिसमें राजनीतिक महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति अथवा समूह जाने-अनजाने तथा अभाव व उपेक्षा में पिसने वाला समाज का दुर्बल वर्ग अनजाने व अनचाहे गोला-बारूद के रूप में उपयोग में लाये जाने के लिए खींचा जा रहा है, इस निष्कर्ष पर आना पड़ता है। सारा विषाक्त व विद्वेषी वातावरण बनाकर देश की अंतर्गत सुरक्षा का मुख्य आधार समाज के सामरस्य को ही जर्जर बनाकर ढहा देनेवाला मानसशास्त्रीय युद्ध, जिसको अपनी राजनीति-शास्त्र की परम्परा में ‘‘मंत्रयुद्ध’’ कहा गया, उसी की सृष्टि की जा रही है।

इसके निरस्तीकरण के लिए शासन-प्रशासन को सजग होकर, समाज में एक ओर ऐसी घटनाएँ न घट पायें जिनका लाभ उपद्रवी शक्तियाँ ले पावें; तथा दूसरी ओर ऐसी उपद्रवी शक्तियों व व्यक्तियों पर चैकस नजर रखकर वे उपद्रवी कार्यवाई न कर पायें यह करना पड़ेगा। धीरे-धीरे समाज का लेशमात्र भी प्रश्रय न मिलने से यह उपद्रवी तत्त्व पूर्ण शमित हो जायेंगे। प्रशासन को अपने सूचना तंत्र को भी व्यापक व सजग बनना पड़ेगा। जनहित की योजनाओं का तत्पर क्रियान्वयन करते हुए समाज के अंतिम पंक्ति तक उन योजनाओं को पहुँचाना पड़ेगा। कानून सुव्यवस्था का पालन करवाने के लिए दक्ष व कुशल होकर काम करना पड़ेगा।

नागरिक अनुशासन

डा. मोहन भागवत ने कहा कि प्रत्येक चुनौती का समाधान संपूर्ण व अचूक उपाय तभी हो सकता है जब समाज के सभी वर्गों में, बुद्धि व भावना सहित आचरण में, आपस में सद्भावना व अपनेपन का व्यवहार हो। पंथ-सम्प्रदाय, जाति-उपजाति, भाषा, प्रान्त आदि की विविधता को हम एकता की दृष्टि से देखें। वर्गविशेष की समस्या व परिस्थिति को अपना दायित्व मानकर सारा समाज मिल-बैठकर उसका न्याय व सद्भावनापूर्वक हल ढूंढ़ें। इसलिए आपस में निरंतर आत्मीय संवाद हो सके ऐसा वातावरण अपने संपर्क व संबंधों को बढ़ाकर उत्पन्न करें। अपने जीवन व्यवहार में नागरिक अनुशासन व कानून व्यवस्था की मर्यादा का आचरण करें। इस सम्बन्ध में हमारे राजनेताओं सहित समाज के प्रत्येक व्यक्ति को पू. डा. बाबासाहेब आम्बेडकर का (25 नवम्बर 1949 का) वह प्रसिद्ध भाषण नित्य स्मरण में रखना चाहिए जिसमें वे परामर्श देते हैं कि न्याय, समता व स्वातंत्र्य की दिशा में देश का बढ़ना, राजनीतिक व आर्थिक प्रजातंत्र के साथ सामाजिक प्रजातंत्र की ओर बढ़ना, समाज में बंधुभाव के व्यापक प्रसार के बिना संभव नहीं। बिना उसके इन प्रजातांत्रिक मूल्यों की व अपनी स्वतंत्रता की भी सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। पारतंत्र्य में हमने अपनी मांगों की आवाज उठाने के लिए जो पद्धतियां अपनायीं वे स्वातंत्र्य की स्थिति में छोड़ देनी पड़ेगी। हमें लोकतंत्र के अनुशासन में बैठ सकने वाली पूर्णतः संवैधानिक पद्धतियों का ही अवलम्बन करना पड़ेगा।

उन्होंने कहा कि भगिनी निवेदिता ने भी नागरिकता की समझदारी को ही स्वतंत्र देश में देशभक्ति की दैनन्दिन जीवन में अभिव्यक्ति माना है।
परिवार में संस्कार आवश्यक

सरसंघचालक ने कहा कि ‘संस्कार’ नई पीढ़ी को भी शैशवकाल से ही घर में, शिक्षा में तथा समाज के क्रियाकलापों में से प्राप्त होने चाहिए। घर से नई पीढ़ी में मनुष्य के मनुष्यत्व व सच्चारित्र्य की नींवरूप सुसंस्कारों का मिलना आज के समय में बहुत अधिक महत्त्व का हो गया है। समाज के वातावरण तथा शिक्षा के पाठ्यक्रमों में आजकल इन बातों का अभाव सा हो गया है। बदला हुआ समय, उसमें बढ़ा हुआ प्रसार माध्यमों का व्यापक प्रसार व प्रभाव, नई तकनीकी के माध्यम से व्यक्ति को अधिक आत्मकेन्द्रित बनानेवाले तथा व्यक्ति के विवेकबुद्धि को समझे बिना विश्व की सारी सही-गलत सूचनाओं व ज्ञान को उससे साक्षात् करानेवाले साधन इसमें बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता विश्व में सभी को प्रतीत हो रही है। ऐसे समय में परिवार की स्वपरंपरा के सुसंस्कार मिलते रहे। नई दुनिया में जो भद्र है उसे खुले मन से आत्मसात करते हुए भी अपने मूल्यबोध के आधार पर अभद्र से बचने-बचाने का नीर-क्षीर विवेक, उदाहरण व आत्मीयता से नयी पीढ़ी में भरना ही होगा।

सरसंघचालक ने कहा, ‘‘देश में पारिवारिक क्लेश, ऋणग्रस्तता, निकट के ही व्यक्तियों द्वारा बलात्कार-व्यभिचार, आत्महत्यायें तथा जातीय संघर्ष व भेदभाव की घटनाओं के समाचार निष्चित ही पीड़ादायक व चिंताजनक है। इन समस्याओं का समाधान भी अंततोगत्वा स्नेह व आत्मीयपूर्ण पारिवारिक वातावरण एवं सामाजिक सद्भाव निर्माण करने में ही है। इस दृष्टि से समाज के सुधी वर्ग एवं प्रमुख प्रबुद्धजनों सहित संपूर्ण समाज को इस दिशा में कर्तव्यरत होना पड़ेगा।’’

चिन्तन में समग्रता
डॉ.भागवत ने अपने व्याख्यान में परंपरागत मूल्यबोध का उल्लेख करते हुए कहा, ‘‘हमारी प्रत्येक कृति, उक्ति व मन से भी व्यक्ति, परिवार, समाज, मानवता व सृष्टि, सभी का सुपोषण हो, यह विशेषकर विविध अंगों में समाज का दिग्दर्शन करने वाले सभी को ध्यान में रखना चाहिए। विश्व में कहीं भी समाज का स्वस्थ व शांतिपूर्ण जीवन केवल विधिव्यवस्था व दंड के भय से न चला है न चल सकता है। समाज के द्वारा कानून का पालन समाज के नीतिबोध का परिणाम है न कि कारण। और समाज का नीतिबोध उसके परंपरागत मूल्यबोध से बनता है। मूल्यों के आधार पर पक्का रहकर ही समयानुकूल आचारधर्म अपनाने के लिए नीतिकल्पना व नियम बदलने चाहिए। समग्रतापूर्वक विचार तथा धैर्यपूर्वक मन बनाये बिना निर्णयों का समाज के आचरण में स्वीकार तथा उससे देशकाल परिस्थितिनुरुप समाज की नवरचना का निर्माण नहीं होगा।’’

उन्होंने कहा, ‘‘हाल ही में दिये गये शबरीमलै देवस्थान के सम्बंध में निर्णय से उत्पन्न स्थिति भी यही दर्शाति है। सैकड़ों वर्षों से चलती आयी परम्परा, जो समाज में अपनी स्वीकार्यता बना चुकी है, उसके स्वरूप व कारणों के मूल का विचार नहीं किया गया। धार्मिक परम्पराओं के प्रमुख कर्ता-धर्ताओं का पक्ष, करोड़ों भक्तों की श्रद्धा को परामर्श में नहीं लिया। महिलाओं में भी बहुत बड़ा वर्ग जो इन नियमों को मानकर चलता है, उनकी बात नहीं सुनी गयी। कानूनी निर्णय से समाज में शांति, सुस्थिरता व समानता के स्थान पर अशांति, अस्थिरता व भेदों का सृजन हुआ। क्यों, हिन्दू समाज की श्रद्धाओं पर ही ऐसे आघात लगातार व बिना संकोच किये जाते हैं, ऐसे प्रश्न समाज मन में उठते हैं व असंतोष की स्थिति बनती चली जाती है। यह स्थिति समाज जीवन की स्वस्थता व शांति के लिए कतई ठीक नहीं है।’’

स्वतंत्र देश का ‘‘स्व’’ आधारित तंत्र

‘‘स्व’’ आधारित तंत्र की बात करते हुए सरसंघचालक ने कहा कि भारत के जीवन के सभी अंगों के नवनिर्माण में भारत के मूल्यबोध के शाश्वत आधार पर पक्का रहकर ही प्रगति करनी पड़ेगी। अपने देश में जो है उसको देश-काल-परिस्थिति-अनुरुप सुधार कर, परिवर्तित कर अथवा आवश्यक है तो कुछ बातों को पूर्णतः त्यागकर भी युगानुकूल बनाना तथा विश्व में जो भद्र है, अच्छा है उसको देशानुकूल बनाना इन दोनों के निर्णय का आधार यही मूल्यबोध है। यही अपने देश का प्रकृतिस्वभाव है। यही हिन्दुत्व है। अपने प्रकृतिस्वभाव पर पक्का व स्थिर रहकर ही कोई देश उन्नत होता है। अंधानुकरण से नहीं।

शासन की अच्छी नीतियों के परिणाम समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति तक अनुभव में आये, इसलिए प्रशासन के द्वारा उनकी तत्परता, संवेदनशीलता, पारदर्शिता व संपूर्णता के साथ जो कार्यवाही होनी चाहिए, उस प्रमाण में अभी भी नहीं हो रही है। अंग्रेजों का परकीय राज्य व प्रशासन हमारे भूमि व राज्यों पर केवल सत्ता चलाने का काम करता था। अब स्वतंत्र भारत में हमारे अपने शासक हमारे अपने प्रशासन को प्रजापालक प्रशासन बनाएँ यह अपेक्षा है। विश्वभर की अच्छी बातें लेकर भी हम अपने तत्त्वदृष्टि के नींव पर अपना विशिष्ट विकास प्रतिमान व तद्नुरुप व्यवस्था खड़ी करें यह अपने देश के विकास की अनिवार्य आवश्यकता है।

श्रीराम जन्मभूमि
सरसंघचालक ने आगे कहा, ‘‘राष्ट्र के ‘स्व’ के गौरव के ही संदर्भ में अपने करोड़ों देशवासियों के साथ श्रीराम जन्मभूमि पर राष्ट्र के प्राणस्वरूप धर्ममर्यादा के विग्रहरूप श्रीरामचन्द्र का भव्य राममंदिर बनाने के प्रयास में संघ सहयोगी है। सब प्रकार के साक्ष्य वहां कभी मंदिर था, यह बता रहे हैं; फिर भी मंदिर निर्माण के लिए जन्मभूमि का स्थान उपलब्ध होना बाकी है। न्यायिक प्रक्रिया में तरह-तरह की नई बातें उपस्थित कर निर्णय न होने देने का स्पष्ट खेल कतिपय शक्तियों द्वारा चल रहा है। समाज के धैर्य की बिनाकारण परीक्षा यह किसी के हित में नहीं है। मंदिर का बनना स्वगौरव की दृष्टि से आवश्यक है ही, मंदिर बनने से देश में सद्भावना व एकात्मता का वातावरण बनना प्रारम्भ होगा। देशहित की इस बात में कुछ कट्टरपंथी व सांप्रदायिक राजनीति को उभारकर अपना स्वार्थसाधन करनेवाली शक्तियां बाधाएँ खड़ी कर रही हैं। ऐसे छलकपट के बावजूद शीघ्रतापूर्वक उस भूमि के स्वामित्व के संबंध में निर्णय हो तथा शासन के द्वारा उचित व आवश्यक कानून बनाकर भव्य मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया जाना चाहिए।’’

निर्वाचन

डा. भागवत ने कहा कि देश का नेतृत्व कौन करें? जो नीतियां चली हैं वह सही हैं अथवा गलत? इन सब बातों का निर्णय प्रजातंत्र की अपने देश की व्यवस्था में पाँच वर्षों में एक बार सामान्य मतदाता करें, यह कर्तव्य उसी का माना जाता है।...मतदाताओं को राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानकर; स्वार्थ, संकुचित भावनाएँ व अपने भाषा, प्रान्त, जाति आदि छोटे दायरों के अभिनिवेश से ऊपर उठकर विचार करना पड़ेगा। उम्मीदवार की प्रामाणिकता व क्षमता, दल के नीति की राष्ट्रहित व राष्ट्र की एकात्मता के साथ प्रतिबद्धता तथा इन दोनों के पहले के तथा वर्तमान के क्रियाकलापों के अनुभव; इनका स्वतंत्र बुद्धि से मतदाताओं को विचार करना पड़ेगा।

प्रजातंत्र की राजनीति का चरित्र ऐसा रहता आया है कि संपूर्णतया योग्य अथवा संपूर्णतया अयोग्य किसी को नहीं मान सकते। ऐसी स्थिति में मतदान न करना अथवा (छव्ज्।) के अधिकार का उपयोग करना, मतदाता की दृष्टि में जो सबसे अयोग्य है उसी के पक्ष में जाता है। इसलिए सभी तरफ के प्रचार को सुनकर, उसके जाल में न फंसते हुए राष्ट्रहित सर्वोपरि रखकर 100 प्रतिशत मतदान आवश्यक है। भारत का चुनाव आयोग भी इसी प्रकार से 100 प्रतिशत मतदान व विचारपूर्वक मतदान का आग्रह करता है।
आवाहन

अपने व्याख्यान के अंत में हिंदुत्व, हिन्दू और संगठन के मर्म को समझाते हुए सरसंघचालक ने कहा कि, ‘‘देशहित की मूलभूत अनिवार्य आवश्यकता है कि भारत के ‘स्व’ की पहचान के सुस्पष्ट अधिष्ठान पर खड़ा हुआ सामथ्र्य संपन्न व गुणवत्तावाला संगठित समाज इस देश में बने। वह हमारी पहचान हिन्दू पहचान है जो हमें सबका आदर, सबका स्वीकार, सबका मेल-मिलाप व सबका भला करना सिखाती है। इसलिए संघ हिन्दू समाज को संगठित व अजेय सामथ्र्यसंपन्न बनाना चाहता है और इस कार्य को सम्पूर्ण संपन्न करके रहेगा। अपने-अपने सम्प्रदाय, परंपरा व रहन-सहन को लेकर अपने आप को अलग माननेवाले अथवा ‘‘हिन्दू’’ शब्द से भयभीत होनेवाले समाज के वर्गों को यह समझने की आवश्यकता है कि हिन्दुत्व तो इस देश के सनातन मूल्यबोध को ही कहते हैं। उसके इस सत्य व शाश्वत अंतरंग को कायम रखकर ही उसमें देश-काल-परिस्थति-अनुरुप स्वरूप व व्यवहार के परिवर्तन आये हैं व आगे भी आवश्यकतानुरूप हो सकते है।’’

उन्होंने कहा कि हिमालय से समुद्रपर्यन्त अखंड भारतभूमि के साथ हिन्दुत्व का तादात्म्य है। उस मूल्यबोध से अनुप्राणित भारत की एक संस्कृति के रंग में सभी भारतीय रंग लें, यह संघ की इच्छा हैं। भारत के सभी पंथ-सम्प्रदायों का आचार धर्म उसी को आधार बनाकर चलता है। इस हिन्दू संस्कृति व समाज की सुरक्षा तथा संवर्धना के लिए प्रखर परिश्रम करनेवाले, प्राणोत्सर्ग करनेवाले महापुरुष हम सबके पूर्वज, हम सबके गौरव हैं। संपूर्ण विश्व को, उसकी विशिष्ट विविधताओं का स्वागत व स्वीकार करते हुए हृदय से अपनाने की क्षमता भारत में इस हिन्दुत्व के कारण है। इसलिए भारत हिन्दू राष्ट्र है। संगठित हिन्दू समाज ही देश की अखण्डता, एकात्मता व निरन्तर उन्नति का आधार है। सारी दुनिया में कट्टरपन, संकुचित स्वार्थ व आत्यंतिक जड़वादिता के कारण मर्यादारहित उपभोग वृत्ति तथा संवेदनहीनता को समाप्त करने का एकमात्र उपाय हिन्दुत्व के शाश्वत मूल्यबोध का स्वीकार यही है। हिन्दू संगठन का कार्य इसीलिए विश्वहितैषी, भारत कल्याणकारी एवं लोकमंगल का कार्य है। आप सबको आवाहन है कि हम सब मिलकर भारतमाता को विश्वगुरु पद पर स्थापन करने के लिए भारत के भाग्यरथ को अग्रसर करें।
नहीं है अब समय कोई, गहन निद्रा में सोने का,
समय है एक होने का, न मतभेदों में खोने का।
बढ़े बल राष्ट्र का जिससे, वो करना मेल है अपना,
स्वयं अब जागकर हमको, जगाना देश है अपना।।
।। भारत माता की जय।।



Friday, 26 October 2018




भारतवर्ष का इतिहास

- रविन्द्रनाथ ठाकुर

बंगाली केलेंडर के अनुसार भाद्र 1309 (अगस्त, 1903) में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर (टैगोर) ने मूलतः यह लेख बंगाली में लिखा था जिसे सुमिता भट्टाचार्य और सिबेश भट्टाचार्य ने अंग्रेजी में अनुवाद किया।

हम परीक्षाओं के लिए भारत के जिस इतिहास को पढ़ते और याद करते हैं, वस्तुतः वह तो भारत के लिए एक दुःस्वप्न जैसा है। कुछ लोग कहीं से आते हैं और नारकीय दृश्य उपस्थित हो जाता है। और फिर तो मानो सबको खुली छूट मिल जाती : आक्रमण और प्रत्याक्रमण, हिंसा और रक्तपात का मंजर दिल दहलाता है। सिंहासन के लिए पिता और पुत्र, भाई-भाई एक-दूसरे के साथ झगड़ते दिखाई देते हैं। यदि एक समूह रुकने का प्रयास करता है, तो दूसरा समूह मानो नीले आसमान से टपक पड़ता है; पठान और मुगल, पुर्तगाली और फ्रेंच और अंग्रेजों ने एक साथ इस दुःस्वप्न को और अधिक भयावह बना दिया।

लेकिन इस खूनी स्वप्नलोक में वास्तविक भारतवर्ष की चमक नहीं दिख सकती। यह इतिहास इस सवाल का जवाब भी नहीं देता कि उस दौर में भारत के लोग कहां थे? मानो भारत के लोग तो अस्तित्वशून्य ही हों, केवल दबे-कुचले, दीन-हीन और मारे गए लोग ही उल्लेखनीय हों।

रक्तपात और नरसंहार के उस सर्वाधिक पीड़ादायक समय में भी भारत में अनेक महत्वपूर्ण चीजें थीं। आंधी-तूफान के दिन भी, उसके भीषण गर्जन के बावजूद, केवल तूफान को ही सबसे महत्वपूर्ण घटना के रूप में नहीं माना जा सकता। आसमान में उमड़ते धूल के गुबार के बीच भी जीवन और मृत्यु का प्रवाह जारी रहता है, अनगिनत गांवों के घरों में खुशी और दुःख का प्रवाह भी चलता रहता है। लेकिन एक विदेशी यात्री को यह सब नहीं दिख सकता, उसके लिए तो तूफान ही सबसे महत्वपूर्ण बात है; वह समझता है कि इस धूल के बादल ने सब कुछ भस्म कर दिया। क्योंकि वह घर के अंदर नहीं है, वह बाहर है। यही कारण है कि विदेशियों द्वारा वर्णित इतिहास में हमें धूल धूसरित तूफानों का वर्णन मिलता है, लेकिन हमें घरों के बारे में एक शब्द भी नहीं मिलता। उनके लिखे इतिहास को पढ़कर तो ऐसा महसूस होता है कि मानो उस समय भारतवर्ष अस्तित्व में ही नहीं था; जैसे कि पठानों और मुगलों की विजय पताका उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक फहरा रही थी।

हालांकि, यह देवभूमि भी मौजूद थी, और देश व स्वदेशी का भाव भी विद्यमान था। अन्यथा, इतनी अशांति के बीच भी, कबीर, नानक, चैतन्य और तुकाराम को पसंद करनेवाले लोग कहाँ से आते? ऐसा नहीं था कि केवल दिल्ली और आगरा ही सबकुछ हों, भारत में काशी और नवदीप भी थे। वास्तविक भारत में तब भी जीवन की तरंग बह रही थी, आगे बढ़ने के प्रयास और सामाजिक परिवर्तनों की लहरें भी उठ रही थीं - इनमें से किसी का भी उल्लेख हमारे इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में ढूंढ़ने से नहीं मिलता।

लेकिन हमारा वास्तविक संबंध तो उस भारतवर्ष के साथ है जो हमारी पाठ्यपुस्तकों के बाहर है। यदि इस सम्बन्ध का इतिहास हम लम्बे समय तक भूले रहे तो हमारी आत्मा की स्थिति वैसी ही हो जाएगी, जैसे सागर में बिना पतवार का जहाज। आखिरकार, हम भारतवासी कोई खरपतवार या परजीवी पौधे नहीं हैं। कई सैकड़ों वर्षों से यही हमारा मूल है, इनमें से सैकड़ों और हजारों ने भारतवर्ष के दिल पर कब्जा कर लिया है। लेकिन, दुर्भाग्य से, हम वह इतिहास पढ़ने और सीखने को बाध्य हैं, जो हमारे बच्चों को यह तथ्य विस्मृत कराता है। ऐसा लगता है जैसे भारत में हम कुछ नहीं हैं; जैसे कि भारत में केवल बाहर से आए लोग ही मायने रखते हैं।

जब हम सीखते हैं कि हमारे देश के साथ हमारा सम्बन्ध इतना महत्वहीन है तो हमारे जीवन का उद्देश्य ही क्या है? यही कारण है कि हमें अपना स्वयं का देश छोड़कर दूसरों के देशों में बसने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती। हमें भारतवर्ष के अपमान पर नतो कोई क्रोध आता और नही कोई शर्म महसूस होती है। हम आसानी से यह कह देते हैं कि हमारे अतीत में गौरव करने लायक कुछ नहीं था और इसीलिए आज हम भोजन और कपड़ों से लेकर व्यवहारिक शिक्षा तक के लिए विदेशियों के रहमोकरम पर हैं।

भाग्यशाली देशों को अपने इतिहास में अपनी भूमि की अनन्त छवि मिलती है। यह इतिहास है जो बचपन में हमें अपने देश से परिचित कराता है। लेकिन हमारे यहां इससे विपरीत होता है : हमारे देश का इतिहास, हमें हमारी भूमि से ही विलग करता है। महमूद के आक्रमण से लेकर लार्ड कर्जन की घमंडी शाही घोषणा तक का सारा इतिहास, भारतवर्ष पर केवल अजीब धुंध घनीभूत करता है। इतिहास के ये पाठ हमारी मातृभूमि के प्रति हमारी दृष्टि को स्पष्टता नहीं देते। वास्तव में, ये केवल शंकाओं के बादल फैलाने का काम करते हैं। ये पाठ उन अंधेरे स्थानों पर कृत्रिम प्रकाश का पुंज फेंकते हैं, जिनसे हमारी आँखों में हमारे ही देश की छवि धुंधली होती है। उस अंधेरे में हम देखते हैं, रोशनी से सराबोर नवाब का रंगमहल, उसमें नाचती नृत्यांगना के हीरे जड़ित गहनों की जगमगाहट, शराब के ग्लास से उठते बेंगनी झाग और नशे में मदहोश बादशाह की लाल आँखें। उस अंधेरे में हमारे प्राचीन मंदिरों के गुम्बज डूब जाते हैं और भव्य शिल्प कौशल से सज्जित, सफेद संगमरमर से बनी सुल्तानों की प्रेमिकाओं की कब्रों के शिखर, सितारों की दुनिया को चूमते दिखाई देते हैं।

घोड़ों की टापों की आवाजें, हाथियों की चिंघाड़, हथियारों की झनझनाहट, लहरदार धूसर सैन्यशिविरों की विशाल व्यूह रचना, सुनहरी किरणों से चमकते मखमली परदे, झाग के बुलबुलों के आकार के मस्जिद के गुंबद, न जाने कितने भयानक रहस्यों को अपने में समाये - शाही महलों के आंतरिक कक्ष, उन पर सतर्क निगाह रखनेवाले नपुंसक रक्षक - इन सभी अजीब आवाज़ों, रंगों और भावनाओं के पंखों पर सवार अंधेरे की वह विशाल जादुई दुनिया। आखिर इसे भारतवर्ष का इतिहास कहे जाने का औचित्य क्या? इन लोगों ने शाश्वत और मंगलकारी प्राचीन भारतीय पाठ को अरेबियन-नाइट के रोमांस से ढक दिया है। कोई भी किताब उठाकर देख लो, हमारे बच्चे उन अरेबियन-नाइट- रोमांस की हर पंक्ति को याद करने के लिए विवश हैं। और बाद में, जब मुगल साम्राज्य मर रहा था, तब इसके विघटन की पूर्व संध्या पर, जैसे इसने धोखेबाजी, विश्वासघात और हत्या की शुरुआत की थी, ठीक वैसे ही मानो दूर से आनेवाले गिद्धों के समूह श्मशान पर उतरे। क्या इसका इतिहास भी भारतवर्ष का असली इतिहास है?

और फिर शुरू हुआ शतरंज के लाल सफेद घरों जैसे विभाजन के साथ अंग्रेजी शासन काल। शतरंज के साथ इसका एकमात्र अंतर केवल इतना था कि यहां घरों को काले और सफेद के बीच समान रूप से विभाजित नहीं किया जाना था; यहां नब्बे प्रतिशत केवल सफेद थे। भोजन के सिर्फ चंद टुकड़ों के लिए हम अब "वाइटवे लेडल स्टोर" से अच्छा प्रशासन, अच्छा न्यायतंत्र, अच्छी शिक्षा सबकुछ खरीद रहे हैं। अन्य सभी दुकानें अब बंद हैं। हो सकता है कि अदालतों से वाणिज्य तक, सबकुछ काफी कुछ "अच्छा" हो, लेकिन इसके लिपिक कार्यालय में भारतवर्ष को दिया गया स्थान भयभीत कर देने की हद तक बहुत छोटा है।

अंधविश्वास का इतिहास तो दुनिया के सभी देशों में लगभग समान ही होगा, अतः उसे छोड़ दिया जाना चाहिए। रोथस्चिल्डे की जीवनी पढ़-पढ़कर कठोर हुआ एक व्यक्ति, ईसा मसीह के जीवन चरित्र पर काम करनेवाले व्यक्ति से ईसा के बही खाते और कार्यालयीन डायरी की मांग करे, और अगर वह न ढूंढ़ पाए तो कहे कि : "जिस व्यक्ति में धेले की अकल नहीं है, उस पर ईसा मसीह की जीवनी कहां से आई?"

इसी प्रकार, कुछ लोग भारतीय इतिहास को इसलिए नकारते हैं, क्योंकि उन्हें "भारतीय आधिकारिक रिकॉर्ड रूम" में शाही वंशावली और जीत-हार के विवरण नहीं मिलते।फिर वे कहते हैं कि "बिना राजनीति के इतिहास कैसा?" ये ऐसे लोग हैं जो धान के खेत में जंगली घास ढूंढ़ते हैं। और जब उन्हें वहां नहीं मिलती, तो निराशा में वे धान को अनाज मानने से ही मना कर देते हैं। सभी खेतों में सभी फसल पैदा नहीं होती। जो इसे जानता है और इस प्रकार सही खेत में सही फसल की तलाश करता है वास्तव में तो वही बुद्धिमान है।

ईसा मसीह की खाता पुस्तिका की परीक्षा लेकर उसके बारे में एक खराब राय बनाई जा सकती है, किन्तु कोई अगर उनके जीवन के अन्य पहलुओं के बारे में पूछताछ करे तो खाता किताबें पूरी तरह से अप्रासंगिक हो जाती हैं। इसी प्रकार, यदि हम पूर्ण ज्ञान के साथ एक विशेष परिप्रेक्ष्य से देखते हैं कि राजनीति के मामलों में भारतवर्ष में कम उल्लेख मिलते हैं, किन्तु इस कमी से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। भारतवर्ष को भारतवर्ष के परिप्रेक्ष्य में न देखकर, हम हमारे बचपन से उसे कमजोर करना सीखते हैं और परिणामस्वरूप हम स्वयं को कमजोर कर देते हैं। एक अंग्रेज लड़का जानता है कि उसके पूर्वजों ने कई युद्ध जीते, कई देशों पर विजय प्राप्त की और व्यापक व्यापार और वाणिज्य किया : वह भी युद्ध की प्रतिष्ठा का अंग बनना चाहता है, धन सम्पदा की सफलता चाहता है। हम सीखते हैं कि हमारे पूर्वजों ने अन्य देशों को नहीं जीता और न ही व्यापार और वाणिज्य का विस्तार किया : ऐसा लगता है कि इस तथ्य को जताना ही भारत के इतिहास का एकमात्र उद्देश्य है। हमारे पूर्वजों ने क्या किया, हमें नहीं पता; इसलिए हम यह भी नहीं जानते कि हमारा लक्ष्य क्या होना चाहिए। इसलिए हम दूसरों की नकल करते हैं। इसके लिए हमें किसे दोष देना चाहिए? हम अपने बचपन से जिस तरह की शिक्षा प्राप्त करते हैं, हम हर गुजरते दिन अपने देश से तेजी से दूर होते जाते हैं, क्योंकि हमारी जन्मभूमि के प्रति विद्रोह की भावना हमारे दिमाग में भर दी जाती है।

यहां तक ​​कि हमारे देश के शिक्षित लोग भी अक्सर निराश होकर पूछते हैं, "हमारे देश से आपका क्या मतलब है? इसमें क्या खासियत है? आज इसकी क्या हैसियत है? इसकी पहले क्या हैसियत थी? "हम केवल प्रश्न उठाकर, उनके जवाब नहीं पा सकते। चूंकि यह मुद्दा इतना सूक्ष्म और इतना विशाल है कि इसे केवल तर्कों के माध्यम से समझा भी नहीं जा सकता। अंग्रेज हो चाहे फ्रेंच या किसी अन्य देश का वासी, कोई भी इस मामले में एक शब्द में जवाब नहीं दे सकते: किसी के अपने देश का विशिष्ट दृष्टिकोण क्या है या उसकी आत्मा का वास्तविक स्थान कहां है? शरीर के अंदर जीवन की तरह यह आत्मा एक सीधी अवधारणात्मक वास्तविकता है। और जीवन की तरह, केवल तार्किक परिभाषाओं के माध्यम से इसे समझना बेहद मुश्किल है। बचपन से ही यह विभिन्न रूपों में, विविध मार्गों के माध्यम से हमारे अन्दर प्रविष्ट होती है; और यह हमारे ज्ञान, हमारे प्यार, हमारी कल्पना में समाहित हो जाती है।

इसकी अद्भुत शक्तियों के साथ यह अविश्वसनीय रूप से हमें सुसंस्कृत बनाता है; यह हमारे अतीत को वर्तमान से अलग करनेवाली बाधाओं को विकसित नहीं होने देता।यह इसकी कृपा से है कि हम सीमित नहीं हैं, हम लघुतम नहीं हैं। संदेह जताकर पूछताछ करनेवालों को संतुष्ट करने के लिए, हम इस शक्तिशाली और गुह्य आत्मा को तार्किक परिशुद्धता के कुछ शब्दों में कैसे अभिव्यक्त कर सकते हैं?

भारतवर्ष का मुख्य तत्व क्या है? यदि इस प्रश्न का एक सटीक उत्तर मांगा जाता है, तो उत्तर उपलब्ध है। और भारतवर्ष का इतिहास उस उत्तर को कायम रखता है। हम पाते हैं कि एक ही उद्देश्य हमेशा भारतवर्ष को प्रेरित कर रहा है। यह उद्देश्य है विविधता के बीच एकता स्थापित करना, एक लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए, “अनेक में एककी अंतर्दृष्टि का अनुभव करना, मतभेदों में भी आंतरिक एकता के सर्वोच्च सिद्धांत का सुनिश्चितता के साथ अनुसरण करना। बाहरी दुनिया में दिखाई देनेवाले भेदों को नष्ट किए बिना इन लक्ष्यों को हासिल करने का प्रयास रहा है।

विविधता में इस एकता को समझने और एकता बढ़ाने के लिए प्रयास करने की क्षमता भारतवर्ष की मूल विशेषता हैं। यह वह गुणवत्ता है जिसने उसे राजनीतिक महिमा से उदासीन बना दिया। क्योंकि, राजनीतिक उपलब्धियों को आधार बनाना, संघर्ष को जन्म देता है। जो लोग बाहरी लोगों की तरह, पूरे मन से दूसरों का सम्मान नहीं करते, वे ही राजनीतिक महिमा को जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मानते हैं। एक को दूसरों के खिलाफ स्थापित करने का आग्रह ही, राजनीतिक उपलब्धि की नींव है। जबकि दूसरों के साथ सामंजस्य बनाने का प्रयास, और अपने स्तर पर विचलन और विरोधाभासों को सुसंगत बनाने का प्रयास, नैतिक और सामाजिक उन्नति का आधार है। यूरोपीय सभ्यता जिसे एकता मानती है, वह विवादित है; भारतवर्षीय सभ्यता की एकत्व की परिभाषा पूर्णतः सुसंगत है।

यूरोपीय प्रकार की राजनीतिक एकता तो एक प्रकार से गले में पड़ा मतभेदों का फंदा है, जो एक दूसरे के खिलाफ कसकर खींचने के काम आता है, यह अपनेआप में सद्भावरहित है। और इसके कारण, अमीर और गरीबों के बीच, शासकों और शासकों के बीच मनुष्य और मनुष्य के बीच प्रतिद्वंद्विता और दूरी लगातार बनी रहती है। ऐसा भी नहीं है कि ये विभिन्न वर्ग पूरे समाज को अपने संबंधित क्षेत्रों में अपनी विशिष्ट भूमिकाओं के साथ एक बनाए रखते हैं। वास्तव में, वे पारस्परिक विरोधी रहते हैं। प्रत्येक वर्ग का निरंतर और हमेशा सतर्क प्रयास रहता है किअन्य समूहों की शक्ति न बढ़े, इसके लिए अपनी पूरी कोशिश करना। जहां हर कोई दबाने और धकेलने में लगा रहता है, वहां शक्ति का संतुलन संभव ही नहीं है। वहां संख्यात्मक शक्ति ने गुणवत्ता और प्रतिभा पर बढ़त हासिल कर ली है और वाणिज्य से सम्पत्ति के सामूहिक संचय ने घरेलू बचत को खत्म कर दिया है। इस प्रकार सामाजिक संतुलन बिगड़ गया है। और इन परस्पर विरोधी और प्रतिकूल भागों को किसी भी तरह से एक साथ रखने के प्रयास में, सरकार कानून के बाद कानून बनाने का नाटक करती है। यह अपरिहार्य है; क्योंकि जब विवाद का बीज होता है, तो फसल भी विवाद की ही होगी। इस दौरान जो सुपोषित और शानदार चीज़ देखी जाती है वह है विवादों के फल से लदे प्रमुदित और मजबूत पेड़।

भारतवर्ष ने विविध तत्वों के संबंधों को एक साथ गूंथने का प्रयास किया है, भले ही ये तत्व अलग-अलग ही क्यों न हों। वास्तव में तो जहां वास्तविक मतभेद हैं, वहां केवल मतभेदों को व्यवस्थित करके और उनकी अभिव्यक्ति केवल उचित स्थानों पर हो, यह सुनिश्चित करके ही एकता का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। एकता हासिल करने के लिए केवल कानून लागू करना कि अब सभी एकजुट हैं, पर्याप्त नहीं है। जहाँ पारस्परिक संबंधों को एकीकृत करना संभव ही नहीं है, वहां संबंधों को एक साथ गूंथने का एकमात्र तरीका है कि उन्हें विशेष संरक्षित क्षेत्र अलग-अलग वितरित कर दिए जाएं। अगर असंगतताओं को कृत्रिम रूप से जबरदस्ती एकता में बदला जाए, तो वे बलपूर्वक पुनः विभाजित होते हैं। इसलिए विभाजन की घटनाएँ बहुधा देखने को मिलती हैं। भारतवर्ष एकत्व के रहस्यों को जानता था।

फ्रांस की क्रांति का सगर्व विचार था कि रक्तपात से मनुष्य मात्र के विभेद समाप्त हो जाएंगे। लेकिन परिणाम एकदम विपरीत हुए। यूरोप में, शासकों और शासित, धनी और सामान्य लोग, शक्ति के सभी भंडार धीरे-धीरे एक-दूसरे के प्रति भयंकर विरोधग्रस्त हैं। भारतवर्ष का लक्ष्य भी एकता के बंधन में सभी को बांधना था; लेकिन उसने जो तरीका अपनाया, वह पृथक था। भारतवर्ष ने समाज की प्रत्येक विरोधी और प्रतिस्पर्धी ताकतों को सीमित और सीमांकित करने की कोशिश की और समाज की संरचना को पुष्ट रखने के लिए कार्यशील एकता के साथ-साथ व्यवसायों की विविधता सुनिश्चित की। उसने किसी को भी अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन नहीं करने दिया और, संघर्ष और विकार को सक्रिय करने के प्रयासों को अनुमति नहीं दी। उन्होंने कर्तव्यों और कार्यों, घर और चूल्हा तथा अन्य सभी चीजों में समाज की सारी ऊर्जा को चौबीस घंटे की भयंकर प्रतिस्पर्धा के मार्ग पर चलाकर सुस्त दिशाहीनता के भयानक भंवर के अधीन नहीं किया। एकता का हृदय खोजकर एकत्व प्राप्त करने तथा शांति और स्थिरता के लिए अंतिम लक्ष्य मुक्ति को पाना है, यह विचार केवल भारतवर्ष की खोज है।

भारतवर्ष की गोद में विविधता युक्त लोग भी संतोष के साथ रहते हैं। पुरातन काल से ही भारतवर्ष के लोगों को अभ्यास से विशिष्ट प्रतिभा अर्जित करने की स्वतंत्रता थी। भारतवर्ष हमेशा से अन्य वस्तुओं के निर्माण के साथ, एक एकीकृत सभ्यता की नींव डालने में जुटा रहा। और एक एकीकृत सभ्यता सभी मानव सभ्यताओं का सर्वोच्च लक्ष्य है। उसने किसी को भी पराया नहीं समझा, उसने किसी को भी अपने से कमतर नहीं आंका, उसने किसी को भी अपने से भिन्न नहीं माना। भारतवर्ष ने सभी को अपनाया, सभी को स्वीकार किया। और जब इतना कुछ स्वीकार किया जाता है, तो अपने स्वयं के नियम बनाना और मिश्रित संग्रहों को विनियमन द्वारा ठीक करना भी आवश्यक हो जाता है। एक दूसरे से लड़नेवाले जानवरों की तरह उन्हें अनियंत्रित नहीं छोड़ा जा सकता। उन्हें एकता के मौलिक सिद्धांत पर बांधे रखते हुए उचित स्वायत्त विभागों में उचित रूप से वितरित किया जाना चाहिए। घटक बाहर से आ सकता है लेकिन इसके पीछे व्यवस्था और मौलिक विचार भारतवर्ष के थे।

यूरोप अजनबियों को दूर करके, उन्हें नष्ट करके समाज को सुरक्षित बनाना चाहता है। इस व्यवहार के नमूने को अब अमेरिका में, ऑस्ट्रेलिया में, न्यूजीलैंड में, केप कॉलोनी में देखा जा सकता है। इसका कारण यह है कि उन्हें अपने स्वयं के सामाजिक तानेबाने के भीतर एकजुटता की उचित समझ नहीं है। वे अपने स्वयं के विभिन्न समुदायों को उचित स्थान नहीं दे पाए हैं और उनके अपने समाज के कई अंग उनके लिए बोझ हो गए हैं। ऐसी स्थिति में उनके पास बाहरी लोगों के लिए जगह ही कहां बची है? जहां किसी के अपने रिश्तेदार परेशानी पैदा कर रहे हों, वहां बाहरी लोगों का अतिथि सत्कार तो दूर की बात है। एक अनुशासित समाज जिसके पास एकत्व का सिद्धांत है और जहां सभी के पास अपनी स्वयं की सीमांकित जगह और अधिकार हैं, केवल ऐसे समाज में ही दूसरों को स्वयं के रूप में समायोजित करना आसान है।

दूसरों से निपटने के दो तरीके हैं; या तो उन्हें प्रताड़ित करना, उन्हें मारना और उन्हें दूर धकेल कर अपने स्वयं के समाज और सभ्यता को सुरक्षित करना या उन्हें अपने स्वयं के सिस्टम में उचित जगह प्रदान करना और उन्हें अपने स्वयं के रीति-रिवाजों में प्रशिक्षित करना। यूरोप ने पहली विधि को अपनाते हुए पूरी दुनिया को अपना प्रतिद्वंदी माना और सदैव संघर्ष के लिए तत्पर रहा, जबकि भारतवर्ष ने दूसरी विधि को अपनाकर धीरे-धीरे और शनै:-शनैः सभी को अपना बनाने के लिए प्रयास किया। यदि धर्म सम्मान का अधिकारी है, यदि धर्म को मानव सभ्यता का सर्वोच्च आदर्श माना जाए, तो भारतवर्ष की पद्धति की श्रेष्ठता को स्वीकार किया जाना चाहिए।

बाहरी लोगों को अपना बनाने के लिए प्रतिभा की आवश्यकता होती है। दूसरों के अस्तित्व को अंगीकार करते हुए, अजनबियों को भी पूरी तरह से अपनाने की जादुई शक्ति यहां के मूल निवासियों में है। इसी प्रतिभा के लिए भारतवर्ष जाना जाता है। भारतवर्ष ने अन्य लोगों के मन में प्रवेश किया है, और दूसरों को आसानी से स्वीकार किया। विदेशों में मूर्तिपूजा को क्या कहा जाता है, इससे भारतवर्ष भयभीत नहीं हुआ और उस मुद्दे पर झुका भी नहीं। यहां तक कि भारतवर्ष ने सबर, पुलिंद, व्याध इत्यादि समुदायों के विचित्र तत्वों को भी अपनाया, और इन तत्वों में अपना स्वयं का दर्शन डालकर उनके माध्यम से अपनी आध्यात्मिकता को अभिव्यक्ति दी। भारतवर्ष ने किसी को भी अस्वीकार नहीं किया, और हर किसी को स्वीकार कर उन्हें अपना बना लिया।

न केवल सामाजिक संगठन में, बल्कि आस्था और विश्वास के क्षेत्र में भी हम एकता और सद्भाव के निर्माण की एक सी प्रवृत्ति देखते हैं। गीता में हम जो ज्ञान, क्रिया और भक्ति योग देखते हैं, वह सबके बीच सद्भाव स्थापित करने का एक प्रयास है, जो भारतवर्ष की मौलिक विशिष्टता है। भारतीय भाषा में जिसे "धर्म" कहा गया है, उसे किसी यूरोपीय भाषा द्वारा अनुवाद कर अभिव्यक्त करना असंभव है, आस्था के क्षेत्र में भारतवर्ष ने विभाजित मस्तिष्क का विरोध किया है। हमारी बुद्धि, हमारी धारणा, हमारा आचरण, जिसे हम इस दुनिया में और उसके बाद भी प्रिय मानते हैं, ये सभी एक साथ मिलकर हमारे धर्म का गठन करते हैं। भारतवर्ष ने विश्वास को "रोजमर्रा के उपयोग" और "औपचारिक अवसरों" जैसे वर्गों में विभाजित नहीं किया। उदाहरण के लिए जो जीवनशक्ति हाथों, पैरों, सिर, पेट आदि शरीर के विभिन्न अंगों का संचालन करती है, वास्तव में एक ही इकाई है और हाथ, पैर आदि में पृथक-पृथक जीवन नहीं है। इसी प्रकार, भारतवर्ष ने धर्म के अलग-अलग भाग नहीं किए, मसलन विश्वास का धर्म, कार्य का धर्म, रविवार का धर्म, अन्य छह दिनों का धर्म, चर्च का धर्म, घर का धर्म आदि-आदि। भारतवर्ष का धर्म, सम्पूर्ण समाज का धर्म है। इसकी जड़ें पृथ्वी में तो शीर्ष आकाश में उदीयमान है। भारतवर्ष जड़ों और शीर्ष को अलग-अलग हिस्सों के रूप में नहीं देखता। भारतवर्ष तो धरती से आकाश तक फैले एक विराट वृक्ष के रूप में धर्म को देखता है, जो पूरे जीवन को आच्छादित किये हुए है।

दुनिया की सभ्यताओं में भारतवर्ष विविधता को ‘एकत्व’ में बदलने का आदर्श प्रयास के रूप में स्थापित है। इतिहास में उसका वर्णन इसी रूप में होना चाहिए। कई कष्टों और बाधाओं, भाग्य और दुर्भाग्य के बीच भारतवर्ष ने ब्रह्मांड में और अपनी आत्मा में ऐक्य की अनुभूति की और विविधता में एकता को खोजा, ज्ञान के माध्यम से उस एक को खोजने के बादउसे व्यवहार में दर्शाया, एकता की आतंरिक अनुभूति को समूची सृष्टि के प्रति प्रेम के माध्यम से प्रगट किया, उदाहरण के लिए, उस ‘एक’ का प्रगटीकरण व्यक्ति के अपने जीवन के माध्यम से। जब हमारे इतिहास के अध्ययन द्वारा हम भारत की इस अनन्त भावना की अनुभूति करने में सक्षम होंगे, तो अतीत के साथ हमारे वर्तमान का सम्बन्ध विच्छेद समाप्त हो जाएगा।

अनुवाद : हरिहर शर्मा,
पूर्णायन, गणेश कॉलोनी,
विष्णु मंदिर के पीछे, शिवपुरी (म.प्र.)
मोबाइल नंबर – 9425136564