कुटुम्ब प्रबोधन-7
राम राज्य
-
हनुमानसिंह राठौड़
माँ ने भूमिका
स्वरूप बीज वक्तव्य प्रारम्भ किया -
“रामजी का कार्य क्या है? जो भी ईश्वरीय,
दैवीय कार्य है वह रामकाज है। किन्तु प्रश्न पुनः उपस्थित
होता है कि ईश्वरीय या दैवीय कार्य क्या है? जो स्वयं को भी सुख देनेवाला और जगत
का कल्याण करनेवाला हो- ‘स्वांत सुखाय, जगत् हिताय च।’ स्व-सुख के लिए तो
असुर भी कार्य करता है। तब स्वांत सुख क्या है? ऐसा सुख जिसके कारण किसी अन्य को
कष्ट न हो, सबके लिए सुखकर हो तो और भी अच्छा। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि
मेरे लिए कोई कर्त्तव्य कर्म नहीं है किन्तु लोक रंजन के लिए मैं विहित कर्मों का
उदाहरण प्रस्तुत करता हूं। गीता में ईश्वरीय कार्य क्या है,
इसका भी उल्लेख ईश्वरीय-अवतरण के सम्बन्ध में आता है-
सज्जनों का संरक्षण, दुर्जनों का दमन तथा धर्म की स्थापना।
हम श्रीरामचरितमानस के संदर्भ से रामकाज को समझने का प्रयत्न करते हैं। मानस
में इस शब्द का प्रयोग माता सीता की खोज सम्बन्धी प्रसंग में हुआ है। क्या सरसरी
दृष्टि से देखने पर यह नहीं लगता कि यह तो रामजी का व्यक्तिगत काम था?”
“हाँ, बिल्कुल सही। यह तो उनका निजी पारिवारिक मामला था। माता सीता का अपहरण
तो उनकी स्वयं की गलती से हुआ था। क्या कभी हरिण भी सोने का हो सकता है? स्वर्ण
मृग को पाने के लिए राम को खो दिया और जब पूरी स्वर्णमयी लंका मिल रही थी तो राम
को पाने के लिए विलाप कर रही थी।” जेएनयू से पढ़कर साए कन्नू कुमार ने कहा।
“तुम्हारा क्या कहना है अनन्त? क्या तुम कन्नू के कथन से सहमत हो?” माँ ने
पूछा।
“माँ, कन्नू को तो जेएनयू हो गया है। वहां जाने से पहले यदि राष्ट्रबोध का
टीका नहीं लगा है, उसकी प्रतिरक्षा प्रणाली सक्रिय नहीं है,
तो जेएनयू की कोमनष्टी छूत लग जाती है। यह संक्रामक बीमारी
है, इसका
बचाव ही उपचार है।”
आदत के अनुसार बीच में ही टोकते हुए कन्नू बोल पड़ा-
“मुद्दे की बात करो मित्र।”
“तुम हर काम की रेड ही मारते हो कामरेड। थोड़ा संतोष तो करो। हर जगह अपचित
ज्ञान की अज्ञानमय उल्टियां करते रहते हो। मार्क्स और लेनिन के अलावा भी कुछ पढ़ा है
क्या? रामचरित को रामास्वामी के कुत्सित पैमाने से ही नापते हो क्या?”
“पुत्र! जलते हुए जुमलों और व्यंग्यात्मक व्याख्यान से लोग जुड़ते नहीं, क्योंकि
इससे दोनों पक्षों में तलवारें तनती हैं, समाधान नहीं होता, दोनों पक्षों में
न्यूनाधिक क्षति ही होती है। तुम अपनी बात कहो अनन्त।” माँ की बात सुनकर कन्नू की
मुस्कान कानों तक फैल गई।
“वही कहना चाह रहा हूं माँ। किन्तु कुछ लोग तांगे के घोड़े की तरह आँखों पर
छपट्टा (पार्श्व पर्दों की आड़) लगाये रहते हैं अतः उन्हें केवल सड़क दिखाई देती है,
किनारे के भवन नहीं। कोई म्यूटेशन,
उत्परिवर्तन हो तो ही श्वान-पूंछ सीधी हो सकती है या पुलिस
के खोजी कुत्तों की तरह पूंछ काट दी जाए।”
“पुत्र, तुम आज इतने तल्ख क्यों हो रहे हो? तुम्हारा ऐसा स्वरूप तो मैं पहली
बार देख रही हूं।”
“माँ, इस कन्नू कोटरी को मैं जानता हूं। इन्हें कोई भी बात बिना चीनी या रूसी
भाषा में अनुवाद किये समझने की आदत ही नहीं है और वह अनुवाद हुआ क्या है यह इनको
ही समझ में नहीं आता, किन्तु बोलते उसको अल्प विराम, खड़ी पाई सहित वैसा ही हैं।
इनका कहना है कि बात हमारी ही सोलह आने सच है और परनाला वहीं गिरेगा जहां हम
कहेंगे। अब बताओ माँ बिना पूंछ काटे इन्हें कैसे समझाएं? और पूंछ कट भी गई तो भी
ये सूंघेंगे तो घूरा ही, इनकी खोज भी तो सीमित वस्तुओं तक ही सीमित है!!”
“तुम आरएसएस वाले भी तो नागपुर की भाषा में ही बोलते हो।” कन्नू ने कान उमेठने
की कोशिश की।
“हाँ, क्योंकि नागपुर की भाषा भारत की भाषा है। और हमें अपनी मिट्टी की भाषा
के प्रति श्रद्धा है। यदि अत्यल्प गुण और असंख्य दोष हों तो भी हमें स्वीकार है,
क्योंकि यह हमारी है। गुणों का संवर्धन और दोषों का
परिष्कार हम करेंगे क्योंकि हम इसके हैं।” अनन्त ने अत्यंत गूढ़ व मार्मिक बात कही।
“अनन्त, तुम्हारी बहस तो हनुमान की पूंछ हो रही है।” माँ बोली।
“रावण की लंका जलानी है तो हनुमान की पूंछ लम्बी ही करनी पड़ेगी।”
“तुम तो आज मुझे ही लपेटने लगे। देखो, मेरे पास समय कम है। रविवार तुम्हारे
लिए है मेरे लिए नहीं।” माँ ने निर्णयात्मक वक्तव्य दिया।
“ठीक है माँ, आज आप सभी केवल श्रवण करें। प्रश्न, प्रति-प्रश्न फिर कभी। मैं आज
रामकाज की व्याख्या करता हूं।” अनन्त ने व्यासपीठ ग्रहण की।
“हे समस्त श्रोताओं, चाहे भारतवासी हों या माओदासी, श्रीरामचरितमानस के ‘रामकाज’
प्रसंग पर एक विभक्त भक्त के आक्षेप से ही प्रारम्भ करते हैं। माँ ने हमें कुरेदने
और सत्यान्वेषण के लिए यह कहा था कि, ‘क्या सरसरी दृष्टि से देखने पर यह नहीं लगता
कि सीता की खोज राम का व्यक्तिगत कार्य था अतः रामकाज अर्थात् दैवीय कार्य कैसे
हुआ?’ माँ ने ‘सरसरी दृष्टि’ कहा था। हमें गूढ़ दृष्टि से इसका अर्थ हृदयंगम करवाने
के लिए आज के स्वाध्याय में यह प्रश्न चर्चा के लिए रखा था ताकि हम सेकुलर खोल में
बैठे निओ-कम्यूनिज्म की तर्क प्रणाली का उत्तर दे सकें।
राजा दशरथ की तीन रानियां थीं। क्या श्रीराम को एक पत्नी और नहीं मिल सकती थी?
क्यों सीता के लिए वन-वन खोजते हुए रावण जैसी महाशक्ति से टकराना? व्यवहारवादी
दार्शनिक या उपयोगितावादी अर्थशास्त्री तो लाभ-हानि का विश्लेषण कर यही कहता कि
अनिश्चित की प्राप्ति के लिए समय और शक्ति का अपव्यय करने की अपेक्षा एक नई समझदार
पत्नी लाना अधिक अच्छा है जो आभासी स्वर्ण मृग से नहीं ललचाए। और अयोध्या के
राजकुमार, जो भावी सम्राट हैं, के लिए एक और पत्नी प्राप्त करना कोई कठिन काम नहीं
था।
तो यह तय है कि सीता माता की खोज यह पारिवारिक मामला भर नहीं था। यह नारी की
अस्मिता का प्रश्न था। यह हमारी संस्कृति के आधार सूत्र ‘यत्र नार्यस्तु
पूज्यन्ते’ तथा ‘मातृवत् परदारेषु’ के व्यवहार की परीक्षा थी।
मामा मारीच के ऐंद्रजालिक विज्ञापन से माता सीता भ्रमित हो
गई थी। आज की बहुराष्ट्रीय कम्पनियां क्या वही कल्पित स्वर्णमृग दिखाकर हमारी
लक्ष्मी का हरण नहीं कर रही हैं? किन्तु
राम कुटिया में नहीं हैं अतः कोई भी किसी अकेली स्त्री का हरण कर लेगा? और इसे हम
उसके पति का व्यक्तिगत मामला कहेंगे? यदि ऐसा है तो जेएनयू में क्यों सरकार को
कोसते हो? क्यों केण्डल मार्च करते हो? नारी के सम्मान का प्रश्न किसी का
व्यक्तिगत नहीं, पूरे समाज और राष्ट्र का प्रश्न होता है।
और रावण ने खेल भी कैसा खेला? माता सीता का हरण भी कर लिया और ऋषि संस्कृति को
बदनाम करने का षड्यंत्र भी साध लिया। भारत की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाली जमात
यही कर रही है। रावण भगवा धारण करके आया था और भिक्षा की गुहार लगाई थी। इस त्याग
और शील के वस्त्र पर अविश्वास करने की अपेक्षा माता सीता ने धोखा खाना स्वीकार कर
लिया। घर के द्वार से याचक निराश जाए यह माता ने नहीं होने दिया अन्यथा लोगों की
दान देने की वृत्ति से विश्वास उठ जाता। भगवा वस्त्र पर सेकुलर कन्नू को विश्वास
नहीं है पर रावण को विश्वास था। उसे विश्वास था कि इस ऋषिवेश पर भारत में अटूट
श्रद्धा है, और अपने इस विश्वास के आधार पर ही उसने कपट मुनि का वेश बनाकर माता सीता के
साथ विश्वासघात किया। माता सीता की यह उदात्तता ध्यान में आती है या नहीं? कन्नू
तुम्हारा ही कथन प्रमाणित करता है कि माता सीता को स्वर्ण की भूख नहीं थी। हरिण को
देखकर हिरण्य की भूख जगी, यह कथन तब सार्थक माना जाता जब रावण यह उद्घोषणा करता कि
‘यदि राम स्वर्ण मृग के पीछे जाएंगे तो मैं सीता का अपहरण करूंगा।’ यदि इस घोषणा
के पश्चात् भी माता सीता अपने पति से स्वर्ण मृग लाने की जिद करती तब हम कह सकते
थे कि सीता में स्वर्ण की लालसा थी और उनका अपहरण उनकी ही गलती से हुआ। यदि माता
सीता को स्वर्ण की ही भूख होती तो स्वर्णमयी लंका का दर्शन ही उसे लंकेश की बात
मानने को ललचा देता।
यह तो था कन्नू के कुतर्क का सतर्क उत्तर। अब इस प्रसंग के कुछ अन्य आयामों की
मैं चर्चा करना चाहता हूं।
ईश्वरीय कार्य करने का अवसर प्राप्त होना,
राम काज का यंत्र बनना सौभाग्य की बात है। समाज के लिए शुभ
और कल्याणकारी कार्य राम के ही काम हैं। राम काज का अवसर भाग्यवान को ही मिलता है
और ऐसे कार्य करनेवाले को परम गति स्वतः प्राप्त होती है। अतः राम का काम
आध्यात्मिक साधना तथा मोक्ष का साधन है। अंगद इस प्रकार विचार करके इस निश्चय पर
पहुंचता है कि जटायु का जन्म और मरण दोनों धन्य हैं क्योंकि जन्म लेने के कारण
उन्हें राम काज का अवसर प्राप्त हुआ और राम के कार्य में ही प्राण त्यागने के कारण
श्री राम का पावन परस (स्पर्श) प्राप्त हुआ, उनके परम धाम का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
‘कह अंगद बिचारि मन माहीं। धन्य जटायू सम कोउ नाहीं।।
राम काज कारन तनु त्यागी। हरि पुर गायउ परम बड भागी।।’
रामकाज के लिए अपनी पात्रता सिद्ध करना पड़ता है। रामकाज के योग्य बनने की
चुनौती स्वीकार करनेवाला ही वैसा बनने का प्रयत्न कर सकता है। यह सुविधा से
होनेवाला कार्य नहीं है। बुद्धि और शक्ति, व्यक्तित्व और कर्तृत्व दोनों चाहिए।
किष्किंधा काण्ड (29-1) में इसी का संकेत है कि जो सौ योजन समुद्र को लांघने की
सामर्थ्य रखनेवाला तथा बुद्धि का भण्डार है वही रामकाज कर सकता है :-
‘जो नाघइ सत जोजन सागर। करइ सो राम काज मति आगर।।’
समाज-राष्ट्र हित का कार्य प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है, क्योंकि एक क्षण भी
बिना कार्य किये रहना इस संसार में सजीव के लिए सम्भव ही नहीं है। किन्तु कोई
दैवीय कार्य करता है, कोई आसुरी; ऐसा क्यों? इसके लिए अपने आचरण से सिखाने वाला, अन्तर्निहित
क्षमताओं को जगा सकने वाला प्रबोधक चाहिए।
श्रीरामचरितमानस में हनुमानजी का अनुपम उदाहरण है। वे रामकाज के लिए
संकल्पबद्ध हैं किन्तु विस्मृत क्षमताओं के भण्डार हैं। अधिकांश लोगों के साथ
कस्तूरी मृग जैसा ही घटित होता है। वे अपनी अन्तर्निहित क्षमताओं को ही नहीं पहचान
पाते, उनका जागरण नहीं कर पाते। जीवनभर कुछ सीमित बातों के ही ईर्द-गिर्द घूमते
रहते हैं। यदि सकारात्मक प्रबोधन मिले तो क्षमताओं का अनावरण व विकास, परिमार्जन व
परिवर्धन सम्भव है। ऋक्षराज जामवन्त जैसा अनुभवी प्रबोधक हो तो हनुमानजी से भी
असम्भव लगनेवाला सागर संतरण, माता सीता का संधान जैसा कार्य सम्पन्न करवा सकते
हैं। इसका वर्णन तुलसीदासजी करते हैं :-
“कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेउ बलवाना।।
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।।
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा।।”
(किष्किंधा काण्ड 3॰/1-6)
आत्मविस्मृति की अवस्था में सामर्थ्य सम्पन्न व्यक्ति भी
चुप साधकर बैठ जाता है। आत्म-प्रबोधन होने पर वही व्यक्ति अकल्पनीय कर्तृत्व
प्रदर्शित करता है। जब गुरु
गोबिन्द सिंहजी ने घोषणा की कि, ‘चिड़ियों ते मैं बाज तुडाऊं। सवा लाख से एक लडाऊं।।’ तो उसी दीन-हीन बने समाज में से स्वत्व के जागरण द्वारा ऐसे
चरित्र खड़े कर दिए। इसलिए सज्जन और समर्थ की चुप्पी ही सबसे अधिक कष्टकारक होती
है। जामवंत ने इसी प्रवृत्ति पर सर्वप्रथम आघात किया है- ‘तुम सामर्थ्यवान
होकर भी क्यों चुप बैठे हो हनुमान?’ किन्तु उसे तो अपने सामर्थ्य का ही विस्मरण
था। जब यही पता नहीं है कि मैं सामर्थ्यवान हूं तो कहने का असर नहीं होता। सामर्थ्य
का स्मरण करवाने के लिए स्मृति का जागरण करना पड़ता है,
कुल परम्परा का बोध
करवाना पड़ता है। एक कथा सुनी
है न हाथी की! युवावस्था में अत्यंत प्रसिद्ध रणकुशल हाथी रहा था। वृद्धावस्था में
तालाब में पानी पीने गया तो कीचड़ में धंस गया। बाहर निकालने के सब प्रयत्न विफल
रहे तो पुराने महावत को बुलाया गया। उसने रणवाद्य बजाने का सुझाव दिया। वाद्यों की
ध्वनि कान में पड़ते ही युवावस्था में रण में प्रकट पौरुष जाग गया और एक झटके में
चिंघाड़ के साथ कीचड़ से बाहर आ गया। तुम्हारी कुल परम्परा गति के प्रतिमान स्थापित
करनेवाली है। गति की तुलना पवन-वेग से करते हैं। सुपर सोनिक विमान की हम बात करते
हैं, किन्तु ध्वनि तरंगों का वाहक भी पवन ही है। तो हे हनुमान, तुम पवन-पुत्र हो, गति
तो तुम्हारे कुल की चेरी है। बुद्धि, बल और विज्ञान- ये तुम्हें कुल परम्परा से
प्राप्त हैं। विज्ञान सदैव अगली पीढ़ी में प्रगत (विकसित) होता है। अतः जहां प्रगत
विज्ञान है वहां बुद्धि भी प्रगत होगी। विवेक संस्कार से आता है और उसमें भी कहीं
कमी नहीं दिखाई देती। मानव अमित सामर्थ्य वाला प्राणी माना जाता है। वह अमृत पुत्र
है, देवांश
है, अतः
यदि वह ठान ले तो सागर का भी मंथन कर अमृत निचोड़ सकता है, मनुष्य यदि ठान ले तो इस
संसार में कोई काम कठिन नहीं है, फिर तुम्हारा तो जन्म ही रामकाज के लिए हुआ है।
जिस कार्य के लिए हमारा जन्म हुआ, वह कार्य करने में हम सफल हो जाएं इसी में जन्म
लेने की सार्थकता है :-
“प्रभु की कृपा भयउ सब काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू।।”
(सुन्दरकाण्ड 3॰/4)
जब तक ईश्वरीय कार्य, प्रभु-काज न होने तक चित में शांति न रहे, प्रभु कार्य न
होने पर ग्लानि भाव रहे तब ही रामकाज के लिए सतत् प्रयत्न होता है :-
“अहह दैव मैं कत जग जायऊं। प्रभु के एकहु काज न आयऊं।।”
(लंकाकाण्ड 6॰/3)
रामकाज में रत व्यक्ति की मनोदशा कैसी होती है? व्यक्ति अपनी सुध-बुध खोकर
पूर्ण समर्पित भाव से कार्य करता है तब संकल्पित कार्य पूर्ण होता है :-
“चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह।
रामकाज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह।।”
(किष्किंधाकाण्ड-23)
रामकाज में तत्परता कितनी होती है? जब जीवन का ध्येय रामकाज होता है तो वह
कार्य प्राथमिकता बन जाता है और शेष कार्य उसी के पूरक होते हैं। रामकाज में वानर
यूथ सरिता, सर, गिरि-कंदरा में किस प्रकार माता सीता की खोज कर रहे हैं? वे रामकाज
में इतना तन्मय हैं कि अपने शरीर से स्नेह को भी विस्मृत कर चुके हैं, सुध-बुध
खोकर कार्य कर रहे हैं। नागपाश काटने के लिए मन की गति से उड़नेवाला गरुड़ भी उसमें
तीव्रता लाता है, यह है रामकाज में प्राथमिकता का मापदण्ड :-
रन सोभा लगि प्रभुहि बंधायो। नागपास देवन्ह भय पायो।।
(लंका काण्ड 73/13)
इहां देवरिषि गरूड पठायो। राम समीप सपदि सो आयो।।
(लंका काण्ड 74/1॰)
रामकाज में लगा व्यक्ति प्रलोभन में फंसता नहीं, संकटों से डरता नहीं - हर
परिस्थिति में अपने ध्येय को याद रखता है। कपट मुनि सत्कर्म में लगे लोगों को
प्रलोभनों में फंसा कर मार्ग से विचलित करने का प्रयत्न करते हैं। लक्ष्मण के
प्राण संकट में हैं, सूर्योदय से पूर्व का समय बचाने के लिए है, हनुमानजी संजीवनी
लेने जा रहे हैं और कपट मुनि मार्ग में प्रलोभन का बाजार सजाए बैठा है :-
“मारूत सुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम।”
ऐसे इन्द्रजाल से बचने की कुशलता बुद्धि-विवेक के माध्यम से ही सम्भव होती है।
संकट में भी प्रभु स्मरण से आपकी सफलता के लिए सभी सहानुभूति प्रकट करने लगते हैं
:-
“राम काजु सब करिहहु, तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।”
राम काज में लगे व्यक्ति को सफलता अवश्य मिलती है, निराशा का कोई कारण नहीं
है। क्यों? क्योंकि वह ईश्वरीय कार्य करने के लिए प्रवृत्त है :-
“पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं। अति अपार भव सागर तरहीं।।
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई। राम हृदयं धरि करहु उपाई।।”
(किष्किंधा काण्ड 29/3-4)
जब हृदय में राम, स्मृति में राम, वचन में राम, कृति में राम होता है तब
रामकाज में रत व्यक्ति संकट में तो अपना स्वीकृत कार्य भूलता ही नहीं- और यह तो
सुगम है, क्योंकि संकट व्यक्ति को ध्येय के प्रति अधिक दृढ़ बनाता है, किन्तु सुविधा में
लक्ष्य का विस्मरण न करना ही सबसे बड़ी चुनौती होती है। विलासिता कर्त्तव्य का
विस्मरण कराती है और समझौतावादी बनाती है। सुविधा में जो डिगता नहीं है, अनुकूलता
में जो रमता नहीं है वही रामकाज करने में सफल होता है। मैनाक द्वारा विश्राम के
प्रस्ताव पर हनुमानजी का कथन हमारे लिए प्रेरक है :-
“हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां बिश्राम।।”
(सुन्दर काण्ड-1)
जब कार्यकर्ता स्वयं स्वीकृत राम काज में रत रहता है तो सदैव सफलता में आनंदित
तो होता है पर श्रेय स्वयं नहीं लेता, ‘प्रभु की कृपा भयउ सब काजू’ यह भाव रहता है,
दूसरों को श्रेय देने की विनम्रता का तेज ही ऐसा होता है :-
“मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि राम चन्द्र कर काजा।।”
(सुन्दर काण्ड 3॰/4)
तो यह है श्रीरामचरितमानस में रामकाज का विविध रूपा वर्णन। रामकाज और राम-राज
अन्योन्याश्रित क्रियाएं हैं। यह धर्म राज्य है, धर्म का तात्पर्य वह नहीं है जो
कम्यूनिस्ट या स्यूडो सेकुलर समझाते हैं। धर्म है जिससे रामराज्य स्थापित हो, जिसमें
प्रत्येक व्यक्ति त्रितापों- दैहिक, दैविक, भौतिक से मुक्त हो। इसी को तो
कल्याणकारी राज्य कहते हैं। इसी में से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘कृण्वन्तो
विश्वमार्यम्’ की अवधारणा आती है, ये भारत की मूल अवधारणाएं हैं, हमारे दर्शन
का आधार हैं। अब बताइए कन्नू कुमारजी आपको कुछ कहना है?”
“नहीं, यदि रामराज का अर्थ सर्वसमावेशी, कल्याणकारक, कौटुम्बिक भाव से विकास
है तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। मुझे लगता था राम राज्य यानी हिन्दू राष्ट्र
और रामकाज यानी हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए प्रयत्न, जो भगवा ब्रिगेड करती
है।” कन्नू कुमार बोला।
“राम राज्य और हिन्दू राष्ट्र अन्योन्याश्रित हैं, ये अलग नहीं हैं। हिन्दू
राष्ट्र का अर्थ ही सर्व समावेशी है। सीरियन ईसाइयों, यहूदी, पारसी आदि जो भी
विश्व में प्रताड़ित हुआ उनको स्नेह के साथ अपनाने वाला अपना देश है। उसका कारण यहां
का जड़-चेतन की चिंता करनेवाला हिन्दू दर्शन है। कम्यूनिस्ट सहजता से सत्य स्वीकार
नहीं कर सकता क्योंकि जो वर्ग-संघर्ष पर अवलम्बित विचार है, वह सर्वसमावेशी हो ही
नहीं सकता। अतः वे अन्य लोगों में भ्रम पैदा करने का प्रयत्न करने के लिए कभी राम
का अस्तित्व नकारते हैं कभी राम राज्य को साम्प्रदायिक घोषित करते हैं। हिन्दुइज्म
को लिबरल और हिन्दुत्व को कट्टर घोषित करते हैं। बौद्धिक भ्रमजाल से बाहर निकलकर
विचार करोगे तब सब ठीक से समझ में आएगा।”
………………
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