रामकृष्ण
परमहंस मठ में माँ काली के पुजारी थे। साधना के बल पर दिव्य व्यक्तित्व का विकास
करके वे जन-जन के आदर्श बन गये। उनको परमहंस इसलिए कहा गया कि उन्होंने अपने जीवन
में सभी धर्मों की आचार - पद्धति अपनाकर सीमित अवधि में साधनापूर्ण जीवन जिया था।
वे भारत की
यज्ञ-योगमयी जीवन-पद्धति में से विश्वास करते थे। याज्ञवल्क्य ने कहा था कि
योगपूर्वक सबमें आत्मदर्षन ही परम धर्म है। इसको रामकृष्ण ने प्रयोग करके दिखाया।
उनकी सबसे बड़ी देन है - विवेकानन्द। नरेन्द्र के रूप में जो केवल तर्क करता था, ईश्वर
को नकारता था उस नरेन्द्र को उन्होंने शक्तिपात के द्वारा विराट् व्यक्तित्व
प्रदान किया।
नरेन्द्र पहली
बार उनके पास आया तब उसने प्रश्न किया था - क्या आपने ईश्वर को देखा है ? उनका
उत्तर था - ‘हाँ, देखा है। वैसे ही, जैसे तुम्हें देख रहा हूँ।’
नरेन्द्र ने
जिज्ञासा की कि मुझे भी दर्शन कराइये। तब उन्होंने नरेन्द्र को दूसरे दिन निश्चित
समय पर अपने पास बुलाया। वे उस समय समाधि में बैठे हुए थे। उनके पास आकर नरेन्द्र
बैठ गया। रामकृष्ण ने अपना हाथ नरेन्द्र के सिर पर रख दिया। शक्तिपात हुआ।
रामकृष्ण ने
समाधि टूटने पर नरेन्द्र से प्रश्न पूछा - बोलो क्या देखना-जानना चाहते हो ? नरेन्द्र का
उत्तर था - कुछ नहीं पूछना। जो जानना था - वह जान लिया।
परिवार की
अकिंचनता नरेन्द्र के लिए चिन्ता का कारण थी। रामकृष्ण ने कहा - जा, काली
माता से जो चाहे माँग ले। वे मंदिर में गए। चिन्मयी माता के सामने हाथ जोड़कर खड़े
हुए और माँगा - माँ मुझे ज्ञान दो, भक्ति दो, वैराग्य दो।
मनुष्य को
परमात्मा ने बुद्धि दी है जिसकी वृत्ति है - विवेक। अपने हित-अहित की पहचान तो
पशु-पक्षी भी कर लेते हैं। मनुष्य स्वविवेक से हित-अहित की पहचान करता है। ‘विवेकानन्द’ यह
नाम तो खेतड़ी में महाराज अजीतसिंह ने दिया; पर विवेकी रामकृष्ण परमहंस ने ही बनाया।
लोक कल्याण के
लिए स्वामी विवेकानन्द ने ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की।
उन्होंने रामकृष्ण के आशीर्वाद से देशभर
में आम आदमी के लिए शिक्षण संस्थाएँ, चिकित्सा केन्द्र और ध्यान योग केन्द्र स्थापित किए।
ठाकुर का विवाह
माँ सारदा से हुआ था, इसके बावजूद भी उन्होंने कभी सांसारिक जीवन नहीं जिया। उनके साधनामय
जीवन से माता सारदा को कोई शिकायत या असुविधा नहीं थी। उनके सान्निध्य में वे
स्वयं साधिका बन गयी थी।
रामकृष्ण तर्क
से अधिक भावना को महत्त्व देते थे। साधना को सुविधा से अधिक महत्त्व देते थे। उनके
उपदेश सुनकर कई लोगों के जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया। उनके जीवन की दशा ही
बदल गई।
स्वामी दयानन्द
भी उनसे मिलने के लिए गए थे। मिलने के पहले स्वामी दयानन्द हाथ में दण्ड लेकर
जल्दी-जल्दी घूम रहे थे। समाधि टूटने पर रामकृष्ण को उनके शिष्य ने बताया कि
स्वामी दयानन्द आपसे मिलने आये हैं। रामकृष्ण ने पूछा कि ये इतने उतावले क्यों है।
इस तरह तो इनको मोक्ष नहीं मिलेगा। शिष्य ने कहा कि ये समाज का उत्थान चाहते है।
समाज में वेद को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं। ये मोक्ष नहीं चाहते। यह सुनकर
रामकृष्ण दयानन्द से बहुत प्रभावित हुए और उनसे आदरपूर्वक मिले।
अपने विकास और
उद्धार के लिए तो सब प्रयास करते हैं; रामकृष्ण परमहंस ने दूसरों के विकास में रुचि
ली। इसलिए उनको महान् व्यक्ति निर्माता और समाज निर्माता के रूप में प्रसिद्ध मिली
और वे सबकी श्रद्धा के पात्र बन गये।