Friday 4 December 2015

एक जीवन एक ध्येय

         यह वर्ष विवेकानन्द केन्द्र के लिए एक अति विशिष्ट वर्ष है। यह माननीय श्री एकनाथजी रानडे का जन्म शताब्दी वर्ष है। सम्पूर्ण राष्ट्र को प्रेरित करने वाले वे प्रमुख संगठक थे और सभी के सहयोग से उन्होंने एक कीर्तिमान समय में कन्याकुमारी में, समुद्र के मध्य-स्थित चट्टान पर, स्वामी विवेकानन्द के एक विशाल स्मारक का निर्माण किया। इस स्मारक के स्वाभाविक परिणामस्वरूप उन्होंने विवेकानन्द केन्द्रकी स्थापना की जो आज इस देश में 813 स्थानों पर कार्यरत है। उनके जीवन का सम्पूर्ण मंत्र एक जीवन - एक ध्येयथा अतः इसे शताब्दी समारोह के केन्द्रीय विषय के रूप में चयनित किया गया है। आज हमारा देश एक महत्वपूर्ण उड़ान भरने हेतु तत्पर है, ऐसे समय में हममें से प्रत्येक को इस कार्य में योगदान देना होगा। प्रत्येक क्षेत्र में उत्कृष्टता के लिए हमें संघर्ष करना होगा, हम जो कुछ करें, वह हमारे देश के विकास के लिए हमारा योगदान होना चाहिए और इसके लिए मंत्र है - एक जीवन एक ध्येय। यह आलेख एकनाथजी के शब्दों में, उनके एक व्याख्यान में से ही है।

मानव-जीवन, वस्तुतः मानव-नियति का लक्ष्य सभी के लिए समान है। प्रत्येक व्यक्ति, आज नहीं तो कल अपने जीवन के उच्चतर स्तर के अनुसार उत्कृष्टता के लिए इस आकांक्षा का प्रारम्भ कर देता है। अतः ईश्वर तक पहुँचने के अतिरिक्त अन्य कोई भी मानव-नियति कैसे हो सकती है? आपकी ईश्वर की अवधारणा भिन्न हो सकती है। आप उसे ईश्वर नाम से भी पुकारना न चाहें ! व्यक्ति उसे सम्पूर्ण अथवा ब्रह्म कहना चाहे, आप चाहे जो नाम चुनें परन्तु अन्ततः इससे यही प्रतीत होता है कि आप सम्पूर्ण की अपनी अवधारणा को वह नाम दे रहे हैं। इसलिए जब हम किसी सम्पूर्ण का वर्णन करना चाहें तो उसे हम दैविक कह कर पुकारते हैं। अतः देवत्व ही लक्ष्य है। यह निःसन्देह है। आप कुछ पाना चाहते हैं परन्तु ज्योंहि आप वहाँ तक पहुँच जाते हैं तो वहीं रुक नहीं जाते। तब आप देखते हैं कि वह पर्याप्त नहीं है। आपको आगे जाना चाहिए। आप कहाँ जाएंगे। अन्त में आपको सम्पूर्णता, दैवत्व की ओर जाना ही होगा।

अपने सामान्य जीवन में भी हम देखते हैं कि हम आगे बढ़ रहे हैं। हमें संतोष होता है। अरे ! तुमने प्रगति कर ली है। पर अभी भी हम इसे अपर्याप्त मानते हैं। आप एक अच्छे गायक हो सकते हैं। गायन-विज्ञान के अनुसार आप श्रेष्ठ गायक हो सकते हैं। दूसरों की तुलना में आप प्रवीण हैं। अन्य लोग इससे ईर्ष्या करते हों परन्तु जब आप आत्मपरीक्षण करते हैं तो आप संतुष्ट नहीं होते। आप अनुभव करते हैं कि ‘‘प्रवीणता तो बिल्कुल सही है परन्तु बहुत कुछ अभी और सीखना है। मैं तो अभी भी सीढ़ी के नीचले पायदान पर हूँ, मुझे अभी भी ऊपर चढ़ना है।’’ परन्तु उस स्तर तक पहुँचने पर भी आप प्रसन्न नहीं होते। आप और अधिक के लिए प्रयत्न करते हैं। आपने अत्यधिक कुशल व्यक्ति देखे हों। आप उनमें अधिक अनुरक्त हो गए हों। फिर भी जब आप उनसे साक्षात्कार करेंगे तो वे कहेंगे, ‘‘हमने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह कुछ भी नहीं है। ज्ञान तो असीम है।’’ अतः वह आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है। आप जीवन के किसी भी स्तर पर किसी भी व्यक्ति को देखिए, वह हमेशा आगे की ओर देखता मिलेगा वह सम्पूर्ण के साथ एकाकार हो जाने अथवा देवत्व के साथ एकत्व प्राप्त करने से पूर्व नहीं रुकेगा।

यदि हमारी अंतिम नियति यही है तो जीवन को इस प्रकार नियोजित क्यों नहीं करते कि हम कम से कम समय में वहाँ तक पहुँच जायें? वहाँ तक पहुँचने का जो भी मूल्य चुकाना हो, मैं उसे चुकाऊँगा। पूरा मूल्य चुका करके भी मैं अपनी वांछित वस्तु अवश्य ही प्राप्त करूँगा। इसे ही उद्देश्यपूर्ण जीवन कहते हैं। यदि व्यक्ति वहप्राप्त कर लेता है जिसके लिए जिया या मरा जा सके तब वह जीवन, उद्देश्य पूर्ण बन जाता है। जब आप किसी विशेष दिशा में जाना चाहें तो आप उस दिशा में आगे बढ़ जाते हैं और उस विशेष दिशा में जाने के प्रयास में यदि कोई बाधा या संकट आ जाता है और आपको यदि मृत्यु का सामना करना पड़ जाए तो भी आप बलिदान होने की परवाह नहीं करते क्योंकि वह कुछ ऐसा है जिसके लिए जिया जा सकता हो और मरा जा सकता हो। उद्देश्यपूर्ण जीवन इस प्रकार प्रारम्भ होता है। अतः इस सन्दर्भ में हमें समझना पड़ेगा और हमें जीवन का मास्टर प्लानबनाना पड़ेगा।

‘‘मेरे जीवन की सार्थकता क्या है ? वह क्या है जिसे मैं प्राप्त करना चाहता हूँ? वह क्या है जिसका मैं योगदान देना चाहता हूँ ? उसी के लिए मुझे प्राप्त समस्त उपकरणों और जो कुछ मुझे प्राप्य है उसे प्रयुक्त करना पड़ेगा। वह क्या है जिसके लिए मुझे अपने समय का प्रत्येक क्षण, अपनी ऊर्जा का प्रत्येक औंस प्रयुक्त करना पड़ेगा ? सम्पूर्ण जीवन का एक उद्देश्य है और मेरा अस्तित्व एक उद्देश्यपूर्ण अस्तित्व होना ही चाहिए। मेरा अस्तित्व एक-एक क्षण का नहीं होना चाहिए।’’ अनेक सड़केंअनेक गलियाँअनेक मार्ग और अनेक कार्य उपलब्ध हैं। आपको एक का ही चयन करना है। जब मैं कहता हूँ कि केवल एक का ही चयन करना है, तो मैं कहता हूँ शेष सभी को अस्वीकृत करना है। ऐसा नहीं है - वह अच्छा है और वह भी बुरा नहीं है।इस प्रकार का विचार आपको कभी भी उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने नहीं देगा। आपको उसका चयन करना है जो इस जीवन के लिए सार्थक है। इसलिए मैं कहता हूँ, ‘एक जीवन एक ध्येय।

आपको अपने मार्ग का स्वयं चयन करना है। जब आप एक बार अपने मार्ग का चयन कर लेते हैं तो अन्य सभी मार्ग - चाहे वे कितने ही अच्छे क्यों न हों - परन्तु वे इस जीवन में संबद्ध नहीं हैं। मैं हज़ारों चीज़े गिना सकता हूँ जो अच्छी हैं। क्या आप वे सभी हज़ारों चीज़े करेंगे ? आप ऐसा नहीं कर सकते। आपका जीवन अत्यन्त छोटा है। जीवन-काल इतना छोटा है कि आप इनमें से दो कार्य करने का भी सोच नहीं सकते। आप एक कार्य भी विधिवत नहीं कर सकते। परन्तु दो, तीन अथवा पाँच कार्यों को करने का सोचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता; क्योंकि जीवन अल्प है। अतः जीवन के अल्प समय को देखते हुए, ‘मुझे कौनसा मार्ग चुनना हैयह सोचने में समय बर्बाद नहीं कर सकते। कभी-कभी लोग कहते हैं, ‘‘अच्छा, मुझे ही निर्णय लेना होगा कि मुझे क्या करना है। मैं सोचूँगा। सर्वप्रथम इस संबंध में ज्ञान प्राप्त करूँगा। मैं अध्ययन करूँगा और जब अंत में मुझे पता लग जाएगा कि तुलनात्मक दृष्टि से यह मार्ग अच्छा है तो फिर मैं उस मार्ग का चयन कर लूँगा।’’

क्या कोई भी व्यक्ति सभी मार्गों की जाँच कर सकता है ? जीवन व्यर्थ हो जायेगा। अतः जीवन का प्रातःकाल में ही उसे निर्णय करना ही होगा। अन्यथा अपने जीवन के मध्याह्न तक वह दो या सैकड़ों विचारों में ही लगा रहेगा। अपराह्न अथवा जीवन के संध्याकाल में निर्णय लेने का कोई लाभ नहीं होगा। अपने जीवन मार्ग का निर्णय जीवन के प्रातःकाल में ही कर लीजिए ताकि उस उपलब्धि को प्राप्त करने हेतु आपको पर्याप्त समय मिल सके। अतः जीवन अल्प हैइस कठोर वास्तविकता के सन्दर्भ में, ज्योंहि आप वयस्क हो जाएँ; आप चिंतन, आत्म निरीक्षण करें, अपने भीतर देखें, अपने भूतकाल पर विचार करें, अपने उपलब्ध साधन, अपनी परिस्थिति, अपने द्वारा किये जाने वाले कार्य के बारे में सोचें। ज्यों-ज्यों आप सोचते जाएँगे, आपको अपने जीवन में क्या करना चाहिए, यह अंतर्दृष्टि प्राप्त हो जाएगी और एक बार निर्णय लेने के पश्चात् तो केवल उसकी क्रियान्विति ही शेष रहेगी।

जब आप एक बार निर्णय कर लें, तब एक मन्तव्य की निष्ठा के साथ - इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि लोग आपको एक-मार्गीय मन वाला व्यक्ति कहें - कार्य करें। जब तक आप एक-मार्गीय मन वाले व्यक्ति नहीं बनेंगे, आप जीवन में एक भी महान उपलब्धि प्राप्त नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार की मानसिक-स्थिति यह भी कहा जा सकता है, वह भी किया जा सकता है, इसकी भी या उसकी भी कोशिश कर लेनी चाहिए, थोड़ा यह, थोड़ा वह।’’ - जीवन का अल्प-काल इस प्रकार की विलासिता की अनुमति नहीं देता।

परन्तु प्रत्येक बात को ध्यान में रखते हुए आपको यह पता लगाना ही होगा कि क्या आप इसे करने में समर्थ हैं ? क्या आप, अपने आप को सुदृढ़ बनाते हुए वहाँ तक पहुँच सकते है ? यह आपके स्व-मूल्यांकन पर निर्भर करता है और अपनी दैविक सामर्थ्य पर, आपके दृढ़ विश्वास पर निर्भर है। यह अधिकांश में इसी पर निर्भर करता है। यदि व्यक्ति इस विश्वास से परिपूर्ण है तो फिर यह संभव क्यों, नहीं हो सकता ?

यदि एक व्यक्ति इसे कर सकता है तो फिर मैं इसे क्यों नहीं कर सकता ? मैं भी इसे कर सकता हूँ तो मेरे स्व-मूल्यांकन का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? यदि यह व्यक्ति इसे कर सकता है, वह व्यक्ति इसे कर सकता है तो मैं एक व्यक्ति ही हूँ, मैं भी उसी प्रजाति का हूँ। मैं उसे करने में समर्थ क्यों नहीं हूँ ? मुझे केवल स्वयं का ही मूल्यांकन करना है। मैं भी एक मानव हूँ। मैं इसे अवश्य ही करूँगा।

यदि ऐसा आत्म विश्वास है तो आपको अपने जीवन के ध्येय का निर्धारण करने हेतु आत्ममूल्यांकन करने की कोई आवश्यकता नहीं है। देश को जिसकी आवश्यकता है वह कीजिए। तथ्य यह है कि आपने मनुष्य के संभावित देवत्व को समझ लिया है - मनुष्य दैविक ऊँचाइयों तक पहुँच सकता है - तो आपके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। आपका इसमें विश्वास है तो इसका अर्थ यह है कि आपका स्वयं में विश्वास है। इसका अर्थ है आपका ईश्वर में विश्वास है। ईश्वर में विश्वास रखना और स्वयं में विश्वास रखना एक समान ही है ! मैं ऐसे मनुष्य के बारे में सोच भी नहीं सकती कि जिस व्यक्ति का ईश्वर में विश्वास हो उसका स्वयं में विश्वास न हो। अतः आप सदैव अनुभव करते रहेंगे कि यदि किसी व्यक्ति ने इसे किया है तो मैं भी इसे कर सकता हूँ।अतः इस आत्मविश्वास के साथ व्यक्ति को अपनी जीवन-योजना बनानी चाहिए।

प्रश्न है मैं इसे कैसे कर सकता हूँ ? क्या मैं असफल हो जाऊँगा ?’ अच्छा ! यदि आप असफल हो गए, आप पुनः उत्थान करेंगे ! ऐसा क्या है ? जिसे आप प्रथम प्रयास में प्राप्त नहीं कर सकते। आप इसे दूसरे या तीसरे प्रयास में प्राप्त कर लेंगे। आप दस बार प्रयत्न करेंगे। एक बच्चा, सौ बार गिरता है पर फिर चलने लगता है। अंततः वह चलना ही नहीं दौड़ना भी सीख जाता है। बच्चे के गिरने पर उसकी कोई हँसी नहीं उड़ाता। अतः इस आत्मविश्वास के साथ व्यक्ति को अन्य उच्च बातों के बारे में सोचना चाहिए। इसी आत्मविश्वास के साथ आपको अपने जीवन के लिए योजना बनानी है। तभी योजना आपके लायक होगी। अतः जीवन के मास्टर प्लानके निर्माण के संबंध में, जिसे व्यक्ति को शीघ्रताशीघ्र बना लेना चाहिए ताकि अपने शेष जीवन में वह उसकी क्रियान्विति करता रहे।

                                                                                                                          - निवेदिता रघुनाथ भिड़े

राष्ट्रीय उपाध्यक्ष
विवेकानन्द केन्द्र, कन्याकुमारी

Tuesday 3 November 2015

ध्येयनिष्ठ एकनाथ रानडे

संपादकीय

एकनाथ रानडे नाम है एक स्वप्नदर्शी का। मन में ठान लिया कि कन्याकुमारी में विवेकानन्द स्मारक का निर्माण किया जाए। स्मारक उस चट्टान पर बनाया जाए जहाँ स्वामी विवेकानन्द ने तीन दिन तक ध्यान लगा कर भारत के आम आदमी की स्थिति में बदलाव लाने का संकल्प किया था। कैसे बनाया जाए ? इस पर गंभीर चिन्तन किया।

रानडे ने संकल्प किया कि प्रति व्यक्ति से एक रुपया लेकर एक करोड़ रूपये एकत्र किए जाएँ। उससे विवेकानन्द स्मारक बनाया जाए। कई लोग अधिक देने को तैयार थे। पर वे संकल्प से डिगने वाले नहीं थे। उनका मानना था कि विवेकानन्द स्मारक के लिए एक रुपया देने वाला व्यक्ति विवेकानन्द के विषय में अधिकाधिक जिज्ञासु बनेगा।

इतनी ही छूट दी कि घर में पाँच आदमी हो तो उनके पाँच रुपये एक व्यक्ति दे दे। स्वामी विवेकानन्द ने पहले सारे भारत की यात्रा की थी। उन्होंने देखा कि भारत में अँग्रेज़ घुसपैठिए भारतवासियों को आपस में लड़ाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। देश में अशिक्षा और गरीबी के कारण लोग त्रस्त और सन्तप्त हैं। गाँव अँग्रेज़ों की लूट के शिकार हुए थे।

स्वामी विवेकानन्द का कहना था कि सर्वश्रेष्ठ मानवता का जन्म भारतीय गाँवों में ही हो सकता है। रानडे ने शिलास्मारक का निर्माण किया। उसमें सफलता पाई। सफल हो जाना ही पर्याप्त नहीं है। उन्होंने अपने कार्य को सार्थकता भी प्रदान की। विवेकानन्द केन्द्र संस्था स्थापित की जिसका लक्ष्य था - परम्परागत अध्यात्मनिष्ठ भारत का पुनर्निर्माण।

ऐसा श्रेष्ठ भारत श्रेष्ठ नागरिकों से ही बन सकता है। इसके लिए श्रेष्ठ नागरिकों के निर्माण की योजना बनाई - संस्कार शिविर, योग शिविर लगा कर लोगों में उत्साह जाग्रत किया। देशभर में केन्द्र की कई शाखाएँ कार्य कर रही है। जीवनव्रती कार्यकर्ता अपना लक्ष्य पूरा करने में जुटे हुए हैं। युवकों को सन्देश दिया गया है - जीवने यावदादानं स्यात प्रदानं ततोऽधिकम्।

विवेकानन्द केन्द्र ने देशभर में स्वामीजी की १५०वीं जयन्ती मनाई। विद्यार्थियों और युवकों ने इसका भरपूर लाभ उठाया। इसके बाद एकनाथ जन्मशती समारोह मनाया जा रहा है। इसका उद्घाटन दिल्ली में विज्ञान भवन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया था। उन्होंने कहा था कि एकनाथजीने जिस काम को हाथ में लिया उसे पूरा करके ही छोड़ा। 

ऐसे ध्येयनिष्ठ व्यक्तित्व से प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्र और समाज के हित में काम करने की प्रेरणा मिलती है। वे राष्ट्र और समाज के हित को ही सबसे बड़ा हित मानते रहे। जो उनसे एक बार मिला वह उनका हो गया। उनमें अद्भुत चुम्बकीय शक्ति थी। भारतरत्न ए.पी.जे. अब्दुल कलाम युवकों से कहते थे कि सपने देखो और उनको पूरा करने के लिए जुट जाओ। रानडे सपने भी देखते थे और उनको पूरा भी करते थे।

आमतौर पर लोगबाग बड़े काम करने के लिए सरकार का मुँह ताका करते हैं। एकनाथजी आम आदमी की क्षमता पर विश्वास करते थे। जो विचार मन में आया उसको उन्होंने जनसहयोग से पूरा करके दिखाया। ऐसे सफल और सार्थक व्यक्तित्व के धनी को शत-शत नमन और आत्मीयता भरी श्रद्धांजलि !



Monday 26 October 2015

शक्ति का संधान फिर-फिर


संपादकीय

भारत में वर्षा ऋतु में हम देवताओं को सुला देते है और देवोत्थानी एकादशी को उनको जगाते है | वेद की उक्ति है - न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवा: अर्थात् परिश्रम करके थके नहीं, तब तक देवता सखा नहीं बनते | देवताओं को सखा बनाकर रहने की ललक वेदमंत्रों में व्यक्त हुई है - देवानां सख्यम् उपसेदु: |


देवों को जगाना है तो शक्ति तो प्राप्त करनी होगी | आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नौ दिन तक शक्ति साधना की जाती है | दसवा दिन विजयलाभ का होता है - विजयादशमी |

शक्ति का अर्थ है- कर सकने का भाव | संस्कृत भाषा की शक् धातु से क्तिन् प्रत्ययपूर्वक यह शब्द बनता है | मन की तीन वृत्तियाँ होती है - इच्छा, ज्ञान और क्रिया | इसके अनुसार एक शक्ति त्रिधा विभक्त हो जाती है - इच्छा करने की शक्ति, ज्ञान प्राप्त करने की शक्ति और क्रिया (कर्म) करने की शक्ति | दुर्गासप्तशती में शक्ति के स्वरूप की व्याख्या की गई है |

मनुष्य अपने स्वभाव को भूल जाए तब शक्तिहीन होता है | अपने स्वभाव को भूल जाने वाला अर्जुन अनुभव कर रहा था कि वह इतना शक्तिहीन हो गया है कि उसके हाथ से गाण्डीव तक खिसकता चला जा रहा है | कृष्ण ने उसको प्रबोधित करके स्मरण कराया कि वह क्षत्रिय है और अन्याय के विरुद्ध युद्ध करना ही उसका धर्म है तो वह कह उठता है - नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा |

श्राद्ध में श्रद्दापूर्वक पुरखों का स्मरण किया गया और उनके पराक्रम की गाथा आत्मविश्वास पैदा करेगी - इस विश्वास के साथ श्राद्ध कर्म किया गया, तब नवरात्र के प्रथम दिन अपने कुलगुरु की प्रेरणा से व्रत धारण किया -
अग्ने व्रतपते ! व्रतम् अहं चरिष्यामि |
यत् शक्यं तत् मे राध्यताम् |
इदम् अहम् अनृतात् सत्यम् उपैमि |
अर्थात् हे व्रतपति अग्नि ! मैं व्रत करूँगा ! जो मैं कर सकता हूँ उसको करने की शक्ति मुझे प्रदान करो | इस तरह मैं अनृत से सत्य की जाता हूँ |

संकल्प करके साधक घटस्थापन करता है - घर के ढकने, बिजौरे में वह जौ बो देता है | नौ दिन तक अपने संकल्प का जल वह बिजौरे में छोड़ता है जिससे जौ अंकुरित हो जाते है और ज्वारे बन जाते है | साधक बीज से ज्वारे के विकास की प्रक्रिया को प्रत्यक्षत: देखता है | इससे आत्मविश्वास और सुदृढ़ हो जाता है | अपने इष्टदेव में आस्था बढ़ जाती है | 

साधक नौ दिन तक उपवास करता है अथवा एक समय पर भोजन करता है | नित्य दुर्गासप्तशती, श्रीमद्भगवद्गीता अथवा रामचरितमानस का पाठ करता है | दुर्विचारों और दुष्प्रवृत्तियों से बचता है | चित्त वृत्ति के निरोध के लिए योग साधना करता है | वह नित्य यज्ञ भी करता है | यज्ञ का अर्थ है- श्रेष्ठ कर्म |
यज्ञ में आहुति के साथ कहा जाता है- इदं अग्नये न मम यह सर्व प्रकारेण समर्पण की भाषा है -
तेरा तुझको सौंपते का लागत है मोहि |

नौ दिन तक साधना से शरीर और मन को पवित्र करने के बाद दशमी को साधक विजयोत्सव मनाता है | वेद की उक्ति है - वयं जयेम त्वा युजा अर्थात् प्रभो हम तुम्हारा सायुज्य पाकर विजयी हों | 

शक्ति-साधना वस्तुत: विजय-साधना ही है | वेद में साधक की उक्ति है कि अपने सामर्थ्य से जो कुछ मैं कर सकता हूँ , वह न कर पाऊँ तो मेरी दसों अंगुलियाँ गलकर झड़ जाए | भारत कर्मभूमि है | इसमें कर्म के प्रति इतनी उत्कटता वेद के आदेश से ही उत्पन्न हुई है - 
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीवित् शतं समाः |

शक्ति साधना के लिए संकल्पित होकर हम गाएँ - 
शक्ति हो आराध्य फिर-फिर
शक्ति का संधान फिर-फिर



Sunday 6 September 2015

संपूर्णता यानि श्रीकृष्ण

संपादकीय

मनुष्य के जीवन का ऐसा कोई कोना नहीं है, जिसे कृष्ण ने न छुआ हो। जिन्दगी के हर पहलू पर कृष्ण की नज़र रही और बड़ी संजीदगी के साथ उसका सरल समाधान भी दिया। वैसे तो हर युग में अनेक महापुरुषों ने लोगों का मार्गदर्शन किया, परन्तु अकेले कृष्ण ही थे, जिन्होंने जीवन के सभी आयामों पर गहरी दृष्टि डाली और सहज, सरल अनुगामी दिशा-बोध दिया। संपूर्ण जगत् के मानव मन की व्यथा-कथा को जानते हुए, श्रीकृष्ण ने ऐसे-ऐसे अद्भुत उपाय प्रस्तुत किए, जिनको अपनाकर प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन की संपूर्णता को आसानी से प्राप्त कर सकता है। ईश्वर-अवतार तो कई हुए हैं, लेकिन कृष्ण जैसा हरफनमौला-आलराउन्डर मिलना मुश्किल है। लगभग सवा पाँच हजार बरस पहले के लोग और समाज कैसा रहा होगा, आज से काफी उन्नत। फिर भी उनको कृष्ण की जरूरत पड़ी। मानव स्वभाव की शायद यही नियति है, जो हर युग में अपना रंग दिखाती है।

कृष्ण के बारे में प्रायः सभी जानते हैं कि उनकी लीलाएँ कितनी अनुठी और हम सबके जीवन का आईना थी। यदि उनको गहराई से समझकर अनुसरण करें, तो यह जीवन सफल हो जाए, संपूर्णता को प्राप्त कर ले। समाज के कंटकों, दुराचारियों से निपटना, अपनी मातृभूमि की रक्षा, रासलीलाओं द्वारा वासना-शून्य प्रेम, प्रगाढ़ मित्रता का निर्वहन, सफल कूटनीति, उत्कृष्ट प्रबन्धन, त्याग की पराकाष्ठा, ज्ञान की प्रभुता, सच्चा मार्गदर्शन, दलित-मसीहा, न्यायप्रिय, सकारात्मक बोध, अद्वितीय साहस, विलक्षण चातुर्य आदि जीवन के ऐसे महत्वपूर्ण घटक हैं, जिनका व्यावहारिक प्रयोग करके, कृष्ण ने हमारा मार्गदर्शन किया। मनुष्य के भीतर बैठी पशुता जब-जब भी उछाल मारती है, तब-तब अस्थिरता जन्म लेकर दुःखी बना देती है। कृष्ण ने दुःख निवारण की वह दिशा बताई, जो मानव कल्याण में अत्यन्त उपयोगी है, गतिमान जीवन की प्राण-वायु है।

कृष्ण का कर्म-दर्शन जीवन की समग्रता को समेटे हुए है। यदि सकाम और निष्काम की गूढ़ता समझ आ जाए और उसे जीवन में उतार लिया जाए, तो यह जीवन यात्रा सुगम हो सकती है। उनका प्रकृति प्रेम अपनाकर पर्यावरण सुधारा जा सकता है। संतुलित आहार-विहार-योग के द्वारा आरोग्य पाया जा सकता है। कर्म-ज्ञान-भक्ति-सांख्य योग जीवन के दिशा-निर्धारक हैं। कृष्ण की दुःख-सुख में समभाव की देशना, अवसाद और निराशा से बचा सकती है। उनका कुशल नेतृत्व जीवन की सफलता का बोधक है। उनका सौन्दर्यबोध जीवन को सकारात्मकता से भर सकता है। मोह-माया से बचकर, इस नश्वर-अनित्य शरीर के कर्म को व्यष्टि से समष्टि की ओर ले जाने का कृष्ण का सन्देश, जन-जन को खुशियों से भर सकता है। कृष्ण के वासना-रहित प्रेम को यदि व्यवहार में उतारा जाए, तो समाज में फैल रहा व्यभिचार घट सकता है। कृष्ण की गौ-सेवा और पशु-प्रेम हमें जीव-दया की ओर प्रेरित करता है। करुणा के सागर कृष्ण की सीख हृदय में प्रेम भरकर, समाज में भाई-चारा और शांति ला सकती है।

आधुनिक युग में स्वामी विवेकानन्द ने भी प्रायः वही काम किया, जो कृष्ण किया करते थे। जाति-पांति, धर्म आदि से ऊपर उठकर, सभी मनुष्यों को एक मानकर, मनुष्य निर्माण की दिशा में स्वामीजी का योगदान अविस्मरणीय है। मातृभूमि से प्यार, चरित्र-निर्माण, युवकों में साहस भरने और उनको बलशाली बने रहने की प्रेरणा देने में, वे अग्रणी रहे। निर्बल और दलित के प्रति प्रेम, करुणा की अवधारणा के साथ दरिद्र को नारायण मानकर, उसकी सेवा करने का आह्वान, मानव-कल्याण की दिशा में उनकी अद्भुत सोच थी, जो आज अधिक प्रासंगिक है। भारत को वैभव की ओर ले जाने में स्वामीजी के अथक प्रयासों की सफलता, अब वर्तमान युवाओं के कंधों पर है। कृष्ण और स्वामीजी के बताए मार्ग पर चलकर, चारित्रिक-समाज की रचना संभव है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिपूर्णता और संपूर्णता की अभिलाषा हर मन में होती है। इसकी प्राप्ति के लिए कृष्ण को अपनाना होगा। केवल पूजा-पाठ, वंदना करके कृष्ण को नहीं पाया जा सकता। उनके जीवन-मूल्यों के अधिकाधिक अंशों को स्वयं के जीवन में उतारना जरूरी है। पग-पग पर उत्सव मनाने वाले कृष्ण कोइसलिए कहा जाता है - संपूर्णता यानि कृष्ण

Sunday 9 August 2015

सेवा में समर्पण

संपादकीय

सेवा एक प्रकार की कृत्य अभिव्यक्ति है, जो पीड़ित या अभावग्रस्त की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। यह भावात्मक, भौतिक और श्रम के रूप में भी हो सकती है, जो सेवक और सेव्य, दोनों के लिए सुखदायी होती है। अगर सेवा में कोई भी पक्ष कट जाता है या दुःख का अनुभव करता है, तो वह सेवा नहीं है। सेवा में आनन्द का अनुभव होता है। आनन्द की शून्यता में सेवा का कोई अर्थ, कोई मूल्य नहीं रहता। सेवा, स्वतःस्फूर्त होती है, थोपी नहीं जाती। मजबूरी में की गई सेवा, ढोंग की सहचरी कहलाती है। कामनाओं से लदी सेवा, अहंकार को सींचती है। सेवा का प्रकाशन व्यक्तित्व को खोखला बनाती हुई, ईर्ष्या का कारण बनती है। अपेक्षाओं से भरी सेवा, कर्म की गति को धीमा करती हुई, निराशा की भावनाओं को जन्म देती है। सुख की अनुभूति के साथ की गई सेवा, वासना बढ़ाती है, र्निलिप्तता से सनी सेवा काम, क्रोध, लोभ, अहंकार जैसे दोषों से बचाती है। अर्थपूर्ण और मौलिक सेवा में समर्पण की महत्ता सर्वोपरि होती है। सही मायने में तो समर्पण ही सेवा का प्राण है

भीतर से उपजा समर्पण ही सच्चा समर्पण होता है। यह निखालिस, स्वैच्छिक और आनन्द से परिपूर्ण होता है। दुराचारियों से कराया गया समर्पण, स्वाभाविक नहीं होता। विवशता से भरा समर्पण हमेशा दुःखदायी होता है। दिखावे वाले विवश समर्पण में प्रतिशोध की चिंगारी बुझती नहीं है, बल्कि मौका मिलने पर तेजी से धधक उठती है। संस्कार और जीवन-मूल्यों से वंचित लोगों में समर्पण को ढूँढ़ना, घास के ढेर में सुई को ढूँढ़ना जैसा होता है और समर्पण-शून्यता में सेवा की कल्पना तक करना, एकदम निरर्थक है। बिना समर्पण के सेवा असंभव है। समर्पण का होना, सेवा की पहली शर्त है। समर्पण के बिना, सेवा का अस्तित्व ही नहीं है। समर्पण है, तो सेवा का भाव स्वतः ही पैदा होता रहता है। सेवा में प्रयास होता है और समर्पण में सहजता। यह सहजता ही, प्रयास में ऊर्जा भर देती है।

प्राचीन भारत में शिष्यों का समर्पण, गुरुओं की सेवा को स्वतः ही प्रेरित करता था। सेवा में अनुशासन जैसी आज्ञाओं की, समर्पण में आवश्यकता ही नहीं पड़ती। स्वयं अकेला समर्पण ही जीवन-मूल्यों से सराबोर कर देने में समर्थ होता है। उसे किसी आदेश, आदर्श, सीख या प्रेरणा की जरूरत नहीं होती। समर्पण अपनेआप में परिपूर्ण है। स्वयं, परिवार, समाज और देश के प्रति पूर्णतः समर्पित लोग ही सेवा करने में सक्षम होते हैं। समर्पित हुए बिना, की जाने वाली सेवा, तथाकथित सेवा कहलाती है समर्पण का अभाव सेवा को पंगु बना देता है।

माँ-बाप के प्रति समर्पित हुए बिना, उनकी सेवा कर पाना असंभव है। श्रीराम और श्रवण कुमार जैसे उदाहरणों से साहित्य भरा पड़ा है। सेवा के सन्दर्भ में श्री हनुमान का अद्भुत समर्पण एक अनुपम मिसाल है, जो समर्पण की श्रेष्ठता दर्शाता है। समाज सेवा में समर्पण ही वह केन्द्र है, जिसमें रहकर हमारे अनेकानेक समाज सुधारकों ने समाज की सेवा की। देश पर मर-मिटने वाले शहीदों में यदि मातृभूमि के प्रति अटूट समर्पण भाव नहीं होता, तो भारतमाता की बेडि़याँ नहीं टूटती। पति-पत्नी, रिश्ते-नाते, अड़ौस-पड़ौस, मालिक-कर्मचारी, शासक-जनता, व्यक्ति-व्यक्ति में आपसी समर्पित भाव से ही एक दूसरे की सेवा का भाव पनपता है। समर्पण में अहंकार तिरोहित रहता है। मीराँ का समर्पण भक्ति का अनुपम उदाहरण है। श्रीरामकृष्ण परमहंस के प्रति विवेकानन्द के समर्पण ने उनको देश-सेवा से ओत-प्रोत कर दिया। विवेकानन्द शिलास्मारक के प्रति एकनाथ रानडे का पूर्ण समर्पण ही सफलता का जनक था। देश में समर्पित लोगों की कभी भरमार थी, तभी यह देश सोने की चिडि़या और विश्व गुरु कहलाया। आज परिवार, समाज और देश के प्रति समर्पण भाव की हमें अत्यन्त आवश्यकता है।

जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, बिना समर्पण सफलता मिल पाना संभव नहीं है। समर्पण भाव से ही सच्ची सेवा संभव है वरना सिर्फ स्वार्थ का ही बोलबाला रहता है। स्वस्थ, सुखी और सर्वांग सम्पन्नता के लिए, जरूरी है - सेवा में समर्पण

Thursday 16 July 2015

चरित्र की शिक्षा


संपादकीय

भारतीय समाज की आम धारणा है कि गुरु के बिना ज्ञान नहीं हो सकता- गुरु बिन होइ न ज्ञान | गोस्वामी तुलसीदास ने गुरु को ज्ञान प्रदाता और शंकर रूप माना है- वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकर रुपिणं | गुरु को अभिवादन करने की परंपरा है | माता-पिता और  गुरु तीनों प्रणम्य है | इनका अभिवादन करने से आयु, विद्या यश और बल बढ़ते है -

अभिवादनशीलस्य नित्यपादाभिवन्दनात्  |
चत्वारि तस्य वर्ध्दन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्  ||

अथर्ववेद के ब्रह्मचारी सूक्त में आता है कि उपनयमान ब्रह्मचारी आचार्य के पास जाता है, तब आचार्य उसे तीन दिन तक अपने गर्भ में रखता है | इसके बाद वेदारम्भ संस्कार करता है | तीन दिन तक मातृभाव से आचार्य उसकी रूचि और क्षमता की परीक्षा लेता है, तदुपरान्त वैसी ही शिक्षा की व्यवस्था करता है | यह वैयक्तिकता ही शिक्षा को जीवनोपयोगी बनाती थी | इसका आजकल नितांत अभाव है जिसके कारण विद्यार्थी अत्यधिक तनाव में रहते हैं | परीक्षा से भय खाते हैं और अनुकूल परिणाम न आए तो आत्महत्या भी करते है |

विद्या दान के लिए कोई शुल्क नहीं होता था | विद्या समाप्ति के उपरांत समावर्तन संस्कार होता था- तब शिष्य अपनी ओर से दक्षिणा देता था | स्वामी विरजानन्द को दयानन्द ने वेद का उद्धार करने का वचन ही दक्षिणा के रूप में दिया था | सत्य के खोज के लिए उन्होंने अपना जीवन अर्पित कर दिया |

कौत्स के आचरण से वरतन्तु प्रसन्न और गर्वोन्नत थे ; पर कौत्स ने बार-बार दक्षिणा के लिए आग्रह किया तो वरतन्तु ने चौदह विद्याओं के बदले में चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ मांग ली | गुरु दक्षिणा चुकाने के लिए कौत्स राजा रघु के पास गए | रघु विश्वजित् यज्ञ करके अकिंचन हो गए थे | मिट्टी के पात्रों का उपयोग कर रहे थे ; पर कौत्स की मांग पूरी करने के लिए उन्होंने कुबेर पर आक्रमण करने का मानस बनाया | आक्रमण के पहले ही कुबेर ने राजकोष में स्वर्ण वृष्टि कर दी | कौत्स ने दक्षिणा चुकाई ; पर वरतन्तु ने वह धनराशि लोक कल्याण के लिए राजा रघु को ही सौंप दी |

शिवाजी के निर्माता समर्थ गुरु रामदास भिक्षावृत्ति से जीवन यापन करते थे | अध्यात्म निष्ठ भारत में गुरु, शिष्य की चेतना को जगाने का कार्य करता था | इसलिए उसे अच्छे शिष्य की परख करनी पड़ती थी | शिक्षा गुरुकुल और आश्रमों में होती थी | शिष्य परिश्रम करके शिक्षा प्राप्त करता था | आज शिक्षा का स्वरुप बदल गया | शुल्क देकर बालक विद्यालय में प्रवेश पाता है, इसलिए शिक्षक धनक्रीत सेवक मात्र बन गया है | शिक्षा व्यापार बन गई | विद्यार्थी से अधिकाधिक राशि वसूलना ही उद्देश्य बन गया | इससे शिक्षक का सम्मान कम हुआ और शिक्षा का स्तर गिरा | चारित्रिक स्तर गिरा | भारत विश्व गुरु था, चरित्र की शिक्षा देने के कारण |
वह स्थिति आज नहीं है |

आज की प्रथम आवश्यकता है - चरित्र की शिक्षा | चरित्रवान शिक्षक ही चरित्र की शिक्षा दे पाएगा | भारत को ऐसे शिक्षकों की आवश्यकता है | ऐसे शिक्षक देश को पुन: विश्व गुरु बना सकेंगे |







Wednesday 3 June 2015

योग से मनुष्यता

 संपादकीय

भारत योगियों का देश रहा है | व्यक्ति और समाज को उच्च से उच्चतर दिशा में ले जाने में, हमारे ऋषि-मुनियों ने अपना जीवन समर्पित कर दिया | हमारी संस्कृति और संस्कारों का विश्व में अन्य कोई दावेदार नहीं है | व्यक्ति के जीवन को सम्पूर्णत: सुखी बनाने और समाज में एकरसता घोलने में, हमारा अध्यात्म शिखर पर रहा है | इसलिए भारत को विश्वगुरु का दर्जा मिला | आज भी, संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जो नवीनतम दिवस 'अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस' घोषित किया गया है, वह भारत की ही विश्व को एक महान देन है | पूरे विश्व में योग की चर्चा है | घरों, विद्यालयों, संस्थानों से लेकर सार्वजनिक स्थानों तक में लोगों को योग करते देखा जा सकता है |

सामान्यत: जो योग हमें दिखाई देता है- वह मात्र शरीर के स्वास्थ्य से जुड़ा है | ऐसा स्वास्थ्य तो किसी भी प्रकार के श्रम से प्राप्त किया जा सकता है | योग का असली मक़सद शरीर-मन-बुद्धि-आत्मा से जुड़ते हुए, अंततः परमात्मा से जुड़ना है | जिसे भुलाकर, इसे केवल शरीर के स्वास्थ्य के लिए उपयोगी माना जा रहा है | व्यष्टि में सिमटा ऐसा योग, समष्टि के लिए उपयोगी नहीं लगता | योग का मतलब जोड़ना है | यदि व्यक्ति- स्वयं से, परिवार से, समाज से और अपनी मातृभूमि से नहीं जुड़ता, तो ऐसा तथाकथित योग अर्थहीन ही माना जाएगा | अपने प्राण-प्रण से सकारात्मक सोच के साथ विधिनुसार योग करने पर ही, योग की उपलब्धियों से साक्षात्कार कर पाना संभव हो पाता है | पाश्चात्य जीवनशैली से ग्रसित इस भागम-भाग में व्यक्ति में आपसी प्रेम, सहयोग, त्याग, नैतिकता, संवेदना यानी मनुष्यता लुप्त होती जा रही है | गलाकाट प्रतिस्पर्धा के साथ भौतिकता की आकंठ चाहना ने मनुष्य की विशालता को बौना कर दिया है | समाज में व्याप्त हो रही बद से बदतर घटनाएँ हमारे लगातार गिरते चरित्र को दर्शाती है | इसलिए हमें आज योग की अधिक आवश्यकता है और संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इसकी महत्ता को समझा है | विश्व पटल पर सुख और शांति को डसती अमानवीयता के रोग का इलाज़ है- योग |

योग के नाम पर आसन और प्राणायाम पर ही ध्यान दिया जा रहा है, जबकि यम और नियम को साधे बिना, इनकी शरीर सौष्ठव के अलावा कोई उपयोगिता नहीं है | पतंजलि के अष्टांग योग की विधिनुसार पालना पर ही, यथार्थ में योग का महत्व है | इन आठ अंगों में सबसे पहले यम और नियम आते हैं | योग के लिए इन्हें साधना अत्यावश्यक है | यम- यानी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह | इन मूल्यों को जीवन में धारण करके, व्यवहार में लाना होता है | हिंसा नहीं करना, सत्यता को अपनाना, चोरी नहीं करना, वासना पर नियंत्रण और आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करना | अपने सुदृढ़ चित्त के साथ इन यमों का अभ्यास करके अमल में लाया जाए, तो यह मनुष्यता की ओर बढाया गया पहला कदम होगा | लोभ, क्रोध, वासना, अहंकार, द्वेष आदि विकार मनुष्यता के दुश्मन हैं |

दूसरा अंग है- नियम | इसमें शौच- यानी शरीर और मन को शुद्ध करना, शुद्ध सात्विक आहार लेना | दूसरा नियम है- संतोष यानी जो है- जितना है, उसी में संतोष करना | सभी प्रकार का असंतोष दुःख का कारण बनता है | कहा भी गया है- संतोषी सदा सुखी | उफनती कामनाएँ, गलत काम करने को प्रेरित करती है | तीसरा नियम है- तप यानी शरीर, मन और अपनी इन्द्रियों में शुचिता लाकर, उन्हें ऊर्जावान बनाना | चौथा नियम है- स्वाध्याय यानी स्वयं का, उत्तम ग्रंथों का मनोयोग से अध्ययन करना और उनकी देशनाओं से सीख लेना | यह हमें विवेकी बनाता है  और पाँचवा नियम है- ईश्वर प्रणिधान यानी फल की कामना किए बगैर कर्म करना, कर्म का फल परमात्मा पर छोड़ देना, अहंकार को त्यागकर समाज के प्रति पूर्णत: समर्पित हो जाना | यह मनुष्यता की सीढ़ी पर दूसरा कदम है | अनुशासित जीवनशैली के साथ अपने-अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन- मनुष्यता की सुगंध  है |

यम और नियम के बाद योग का तीसरा अंग आता है- आसन | यह शरीर को लचीला, स्वस्थ बनाता है | इससे सहन शक्ति और एकाग्रता को बल मिलता है | आसन से श्रम और विश्राम का संतुलन बनता है, जो उत्तम स्वास्थ्य के लिए जरुरी है | यह मनुष्यता को साधे रखने का तीसरा कदम है | बढ़ते कदमों से ही मंजिल मिलती है |

योग का चौथा अंग है- प्राणायाम | आसन के सध जाने पर प्राणायाम का प्रारम्भ होता है, जो श्वास-प्रश्वास की गति का नियमन है | प्राण, प्रकृतिदत्त वह ऊर्जा है, जिस पर हमारा जीवन टिका हुआ है | शरीर की समस्त बाह्य गतिविधियाँ हमारे प्रयासों से संचालित होती है | आंतरिक गतिविधियों में शरीर के भीतरी अवयवों की क्रियाएँ, बिना हमारे प्रयास के, प्रकृति द्वारा सम्पन्न होती हैं ,लेकिन प्राण उनका आधार है | प्राण पर नियंत्रण के लिए अपनी श्वासों को विधिपूर्वक साधना होता है | ऊर्जावान बने रहने पर ही मनुष्यता फलती- फूलती है, जो इसका चौथा चरण है |

प्राणायाम सध जाने के बाद प्रत्याहार का स्थान है, जो योग का पाँचवा अंग है | प्रत्याहार में हम अपने चित्त से इन्द्रिओं की प्रवृत्ति को साधने का प्रयास करते हैं | इससे हम अपनी इन्द्रियों पर काबू करना सीखते हैं, जो मनुष्यता की दिशा- निर्धारण का पाँचवा कदम है |

प्रत्याहार के पश्चात् योग का छठा अंग है- धारणा | धारणा में मन को दीर्घावधि तक किसी अंगविशेष पर स्थिर किया जाता है | इससे संयम और एकाग्रता को बल मिलता है | संयमित रहना मनुष्यता का छठा कदम है | योग का सातवा अंग ध्यान है, जो अनर्गल विचारों को संयोजित और संयमित करते हुए, विचार शून्यता की ओर ले जाता है | मनुष्यता का सदैव बने रहना, ध्यानावस्था का प्रमाण है, जो मनुष्यता का सातवा कदम है | ध्यान की गहनता भेद-भाव निवारक है |

अंत में योग का आठवा अंग है- समाधि, जो परमात्मा से मिलने का द्वार है | हमारी संस्कृति, प्रत्येक चर और अचर जीव में आत्मा देखती है | हर प्राणी में परमात्मा बसते हैं | इसलिए आपसी भाईचारा, समदृष्टि, प्रेम, व्यक्तियों का आपस में जुड़ना, प्रकृति-पूजा, ये सभी मूल्य परमात्मा से मिलन में ही है, जो मनुष्य का अंतिम लक्ष्य है | यह व्यष्टि का समष्टि में समा जाना है |

आधुनिक मनुष्य की जीवनशैली में यदि संपूर्ण योग द्वारा मनुष्यता की इतनी लम्बी यात्रा संभव न भी हो, तो भी वह केवल यम और नियम को अपने जीवन में उतारकर मनुष्यता की ओर कदम बढ़ा सकता है | इतना भर कर लेने पर समाज में फैली दूषितता रुक सकती है | स्वयं, घर-परिवार, समाज और राष्ट्र स्वस्थ-सुखी और सम्पन्न हो सकता  है | दोगला चरित्र कथनी और करनी की दूरियाँ बढ़ाकर व्यक्तित्व को खण्डित कर देता है | व्यक्ति निर्माण और उसकी गरिमा के लिए सर्वश्रेष्ठ उपाय है- योग | इस योग दिवस पर संकल्प लेकर, हम सीखें - योग से मनुष्यता...

Sunday 31 May 2015

श्रम को प्रणाम

संपादकीय मई २०१५

ब्रह्माण्ड का कण-कण गतिमान है | प्रकृति भी अनवरत अपना कार्य कर रही है | शरीर के समस्त अवयव भी चुपचाप अपना धर्म यानी कर्म निभा रहे हैं | हमारा हृदय निरंतर धड़क रहा है | दो धडकनों के बीच का समय ही उसका विश्राम है, बहुत लम्बा यानी स्थायी विश्राम जीवन की विदाई भी है | बिना श्रम के कोई भी सृजन संभव नहीं है | गति में ही जीवन है और इसके लिए मति का श्रमशील बने रहना जरूरी है | जड़ और चेतन के समस्त निखार के पीछे श्रम का ही परिश्रम है | पाषाण युग से लेकर आधुनिक युग की कहानी का महानायक भी श्रम ही है |

श्रम के अभाव में स्वास्थ्य की रक्षा भी संभव नहीं हो पाती | अच्छे स्वास्थ्य के लिए कुछ करना पड़ता है और यह 'करना' ही श्रम है | निठल्ला आदमी भी थोड़ा स्वस्थ और ज़िन्दा, इसलिए है कि उसके शरीर के भीतर स्वप्रेरित प्राकृतिक श्रम चल रहा है | भीतरी श्रम, बाह्य श्रम की मांग करता है | यदि यह तालमेल बाधित हुआ तो शनैः - शनैः भीतरी श्रम रूठने लगता है और शरीर रोगग्रस्त हो जाता है | विचार या सोच भी मानसिक यानी भीतरी श्रम ही है | यदि कृत्य के रूप में इसकी परिणति नहीं हुई, तो फिर सोच भी कुंद हो जाती है | इसलिए सभी प्रकार के परिपाक के लिए श्रम का आपसी सामंजस्य जरूरी है | कोरी कल्पना या सपने मानसिक विलासता तो दे सकते हैं परन्तु उनको साकार करने के लिए श्रम का प्रगटीकरण जरूरी है | कदाचित् श्रमयुक्त विचारशीलता को कर्मयुक्त श्रमशीलता भी मिल जाए, तो स्वस्थ सृजन स्वत: ही हो जाता है | विश्राम, श्रम का सहोदर है | दोनों का संतुलित सहयोग कृतित्व का मूल है | श्रम हो या विश्राम, दोनों ही एक सीमा के बाद एक-दुसरे के प्यासे हो जाते हैं | इनकी प्यास बुझते रहना, अस्तित्व की गरिमा का निर्णायक तथ्य है | अति श्रम या अति विश्राम प्रगति के सौंदर्य को धूमिल कर बैठते है | किसी एक का भी संग्रहित हो जाना, विकास की गति को थामने का कारण बनता है | संग्रह हमारी प्रवृति है, जो दिनोदिन बढ़ती जा रही है | परिग्रह का गतिशील यानी खर्च होते रहना जरूरी है ताकि अहंकार का भारीपन हल्का होता रहे | अपरिग्रह से आदमी स्वस्थ रहता है | परिग्रह में श्रम की थकावट, तो अपरिग्रह में विश्राम की सुखद अनुभूति होती है | वैसे- संग्रह यानी संचय की भी अपनी उपयोगिता होती है | धन, वस्तुएँ, धान्य, जल, विचार, यादें, आवाज़, बिजली, ज्ञान-विज्ञान, ईंधन और कई तरह के पदार्थ आदि का संग्रह संभव है | कुछ संग्रह आपदा में संकटमोचक, तो कुछ धरोहर के रूप में अपना महत्त्व रखते हैं, ये बहुमूल्य हैं |

ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, लोभ, अहंकार, मोह आदि का संचय खुद के लिए सुखदायी हो सकता है, लेकिन यह दूसरों के लिए दुखदायी साबित होता है | यह परिग्रह का पोषक तत्त्व है | प्रेम, करुणा, ममता, दया, मदद आदि जीवन के ऐसे गतिशील घटक हैं, जिनका संचय नहीं होता | इनका निरंतर बहते रहना ही, इनकी प्राणशीलता दर्शाता है | अपरिग्रह जीवन का सौंदर्य है | जो सुन्दर है, उसका परिग्रह यानी बांधे रखना सड़ांध पैदा करता है | बिखरते रहने पर ही वह सुगन्धित है | परिवार, समाज और राष्ट्र के उत्थान में बहाया गया पसीना, सबको विकास की गरिमा से भर देता है | 

श्रम का संग्रह या संचय भी संभव नहीं है, इसलिए संसार इसकी खुशबू से महक रहा है| इसके संग्रह का प्रयास उसे बोथरा बना देता है | इसे सरलता से यूँ समझें - एक आदमी अपने श्रम से एक दिन यानी आठ घंटे में तीन फीट ऊँची, एक फीट चौड़ी और दस फीट लम्बी दीवार बनाता है | अब श्रम के संचय की सोच के साथ यदि उस आदमी को पांच दिन पूर्ण विश्राम के साथ खूब पौष्टिक आहार दिया जाए कि वह छठे दिन कम से कम साठ फीट लम्बी दीवार जरूर बना देगा, तो हकीकत में इस संचय का परिणाम क्या होगा- समझ आ जाएगा | वह मुश्किल से अब पांच फीट लम्बी दीवार ही बना पाएगा ! अति विश्राम, श्रम को पंगु बना देता है | श्रम का परिग्रह कृतित्व का जनक है | उचित विश्राम के साथ श्रम की गहनता व्यक्तित्व और कृतित्व को निखारती है |

श्रम और विश्राम के महत्त्व को समझने वाले, परिग्रह की अति से बचते हुए स्वस्थ, सम्पन्न और सुखी रहकर परिवार, समाज और देश के सर्वांगीण विकास में सहयोगी बनते हैं | भारतीय संस्कृति कर्म प्रधान संस्कृति रही है- कर्म को योग मानते हुए कर्मयोगी बनने का आह्वान करती है और दान में श्रमदान को श्रेष्ठ मानती है | श्रम को तपस्या मानते हुए, इसे पूजा भी माना गया है | श्रम के महत्व को समझते हुए हमारा कृषक और श्रमिक वर्ग विपरीत परिस्थितियों में भी पल-प्रतिपल जुटा ही रहता है...फिर भी, 'श्रम-दिवस' के इस अंतर्राष्ट्रीय अवसर पर , हम करें - श्रम को प्रणाम 

Thursday 2 April 2015

मन की शुचिता

संपादकीय 

जीवन के समस्त रोग-शोक शुचिता और ज्ञान के अभाव में ही पनपते है | आनन्दित जीवन के लिए आन्तरिक और बाह्य दोनों ही शुचिता जरुरी होती है, परन्तु आन्तरिक शुचिता अधिक महत्वपूर्ण है | सारा खेल अपने मन का है | यदि अपना मन स्वस्थ है, तो शरीर भी स्वाभाविक तौर पर स्वस्थ ही रहेगा | मन की शुचिता से ही समस्त प्रकार की स्वच्छता संभव है | प्राय: बाह्य स्वच्छता पर तो ध्यान दिया जाता है, लेकिन भीतरी स्वच्छता को भूला दिया जाता है | हर कार्य में हमारी इच्छा की भूमिका प्रबल होती है | बिना इच्छा के किया गया कार्य सफल भी नहीं होता | यदि इच्छा में शुचिता है तो सभी कार्य गुणवत्ता के साथ सम्पन्न होंगे | इच्छा की शुद्धता जीवन को उत्कृष्ट बनाती है | सर्व स्वच्छता की अवधारणा में सभी प्रकार की स्वच्छता समाहित है |

सबसे पहले अच्छे स्वास्थ्य की दरकार होती है | अपने खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार यानी जीवनशैली में शुद्धता न हो तो, शरीर का स्वास्थ्य अनेक रोगों से ग्रसित हो जाता है | घर और बाहर यदि गन्दगी ने डेरा जमा रखा है तो फिर, न मन स्वस्थ होगा न तन | हमारा शरीर भी किसी कचरे-घर से कम नहीं है | पल-प्रतिपल इसमें भी कचरा यानी विजातीय तत्त्व इकट्ठे होते रहते हैं | प्रकृति ने इनके निष्कासन की माकूल व्यवस्था कर रखी है | हम स्वयं ही प्रकृति के विरुद्ध जाकर अपने भीतर कचरा ठूंसते रहते हैं | शरीर और मन में ठूँसा हुआ कचरा, यदि नहीं निकाला जाता है तो इससे पनपा हुआ विष जीवन को मृत्यु के कगार पर पहुंचा देता है | स्वच्छता का महत्व स्वयं की जागरूकता पर निर्भर करता है | सभी प्रकार का प्रदूषण, जीवन के हर क्षेत्र में घातक है | हमारा मन यदि शुचिता से भरा हो, तो शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, बल्कि जीवन से सरोकार रखने वाली हर विधा स्वस्थ रहेगी | भारतीय संस्कृति और संस्कारों में शुचिता को अत्यंत महत्व दिया गया है | शुचिता के अभाव में पूरा जीवन पंगु हो जाता है | सभी बुराइयों की जड़ में विचारों की कलुषितता ही होती है |

व्यक्तिगत स्वच्छता से लेकर पूरे परिवार, पास-पडौस और समाज में शुचिता का महत्व है | हमारे आपसी संबंधों की रसमय दीर्घता, मन की शुचिता पर टिकी होती है | ईर्ष्या-द्वेष, लोभ, क्रोध, अहंकार आदि से ग्रसित व्यक्ति स्वयं, परिवार और समाज के लिए कभी हितकारी नहीं होता | यह सब उसके मन की शुचिता की अपूर्णता को दर्शाता है | आपसी प्रेम, करुणा, संवेदनशीलता,सहयोग आदि सद् गुणों का प्रादुर्भाव मन की शुचिता पर निर्भर करता है | स्वस्थ, सुखी और सम्पन्न घर-परिवार-समाज के लिए सकारात्मक बोध का होना जरूरी है, जो आपसी व्यक्तिश: मन की शुचिता से ही संभव है | पाश्चात्य भौतिक संस्कृति से ग्रसित होकर, अपनी सर्वहिताय संस्कृति और पावन संस्कारों से छिटकते जाने का ही नतीज़ा है- नकारात्मक सोच और कुकृत्यों का विस्तार | नकारात्मकता गन्दगी है और सकारात्मकता स्वच्छता |आसपास का कूड़ा-करकट स्वत: ही हटता रहेगा, यदि मन स्वच्छता की इच्छा से लबरेज हो | विचारों की शुचिता से ही व्यक्ति और समाज का विकास होता है |

शिक्षा, व्यापार, मनोरंजन, राजनीति, धर्म-कर्म, समाज आदि सभी क्षेत्रों की गन्दगी को मिटाने के लिए मन की स्वच्छता ही एकमात्र विकल्प है | इस ओर अधिक से अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है | मन की शुचिता में होने वाली गिरावट से, मन रोगी होता हुआ अनैतिकता का मार्ग पकड़ लेता है | इससे घूसखोरी, मिलावट, बलात्कार, हिंसा, धोखाधड़ी, लूट-खसोट, वैमनस्यता जैसे अनेक गंदे आचरण पनपते है, जो मन की शुचिता से ही हट सकते हैं | उजले दिखने और होने में बहुत अंतर है | उजला होकर ही सर्व-स्वच्छता को पाया जा सकता है | बाहर की तथाकथित गन्दगी से तो केवल शरीर ही रोगी बनता है, लेकिन मन की गन्दगी से तो मानवता हर मोड़ पर, पल-पल मरती रहती है | राष्ट्रहित सर्वोपरि की भावना, गंदे और कुत्सित विचारों से आहत होती रहती है | 

यदि हमें सचमुच स्वच्छता की दरकार महसूस होती है, तो मात्र उजले-उजले दिखावों से बचते हुए, सभी प्रकार की गन्दगी को मिटाने के लिए, अपने प्राण-पान से स्वयं में ही उगानी होगी - मन की शुचिता