संपादकीय
सेवा एक प्रकार
की कृत्य अभिव्यक्ति है, जो पीड़ित या अभावग्रस्त की आवश्यकताओं
की पूर्ति करती है। यह भावात्मक, भौतिक और श्रम के रूप में भी हो सकती
है, जो सेवक और सेव्य, दोनों
के लिए सुखदायी होती है। अगर सेवा में कोई भी पक्ष कट जाता है या दुःख का अनुभव
करता है, तो वह सेवा नहीं है। सेवा में आनन्द का अनुभव
होता है। आनन्द की शून्यता में सेवा का कोई अर्थ, कोई
मूल्य नहीं रहता। सेवा, स्वतःस्फूर्त
होती है, थोपी नहीं जाती। मजबूरी में की गई सेवा,
ढोंग की सहचरी कहलाती है। कामनाओं से लदी सेवा, अहंकार को सींचती है। सेवा का प्रकाशन व्यक्तित्व को खोखला बनाती हुई, ईर्ष्या का कारण बनती है। अपेक्षाओं से भरी सेवा, कर्म की गति को धीमा करती हुई, निराशा
की भावनाओं को जन्म देती है। सुख की अनुभूति के साथ की गई सेवा, वासना बढ़ाती है, र्निलिप्तता से सनी सेवा काम, क्रोध, लोभ, अहंकार
जैसे दोषों से बचाती है। अर्थपूर्ण और मौलिक सेवा में समर्पण की महत्ता सर्वोपरि
होती है। सही मायने में तो समर्पण ही सेवा का प्राण है।
भीतर से उपजा
समर्पण ही सच्चा समर्पण होता है। यह निखालिस, स्वैच्छिक
और आनन्द से परिपूर्ण होता है। दुराचारियों से कराया गया समर्पण, स्वाभाविक नहीं होता। विवशता से भरा समर्पण हमेशा दुःखदायी होता
है। दिखावे वाले विवश समर्पण में प्रतिशोध
की चिंगारी बुझती नहीं है, बल्कि मौका मिलने पर तेजी से धधक उठती
है। संस्कार और जीवन-मूल्यों से वंचित लोगों में समर्पण को ढूँढ़ना, घास के ढेर में सुई को ढूँढ़ना जैसा होता है और समर्पण-शून्यता में
सेवा की कल्पना तक करना, एकदम निरर्थक है। बिना समर्पण के सेवा
असंभव है। समर्पण का होना, सेवा की पहली शर्त है। समर्पण के बिना,
सेवा का अस्तित्व ही नहीं है। समर्पण है, तो
सेवा का भाव स्वतः ही पैदा होता रहता है। सेवा में प्रयास होता है और समर्पण में
सहजता। यह सहजता ही, प्रयास में ऊर्जा भर देती है।
प्राचीन भारत
में शिष्यों का समर्पण, गुरुओं की सेवा को स्वतः ही प्रेरित
करता था। सेवा में अनुशासन जैसी आज्ञाओं की, समर्पण
में आवश्यकता ही नहीं पड़ती। स्वयं अकेला समर्पण ही जीवन-मूल्यों से सराबोर कर
देने में समर्थ होता है। उसे किसी आदेश, आदर्श, सीख या प्रेरणा की जरूरत नहीं होती। समर्पण अपनेआप में परिपूर्ण है।
स्वयं, परिवार, समाज
और देश के प्रति पूर्णतः समर्पित लोग ही सेवा करने में सक्षम होते हैं। समर्पित हुए
बिना, की जाने वाली सेवा, तथाकथित
सेवा कहलाती है समर्पण का अभाव सेवा को पंगु बना देता है।
माँ-बाप के
प्रति समर्पित हुए बिना, उनकी सेवा कर पाना असंभव है। श्रीराम
और श्रवण कुमार जैसे उदाहरणों से साहित्य भरा पड़ा है। सेवा के सन्दर्भ में श्री
हनुमान का अद्भुत समर्पण एक अनुपम मिसाल है, जो
समर्पण की श्रेष्ठता दर्शाता है। समाज सेवा में समर्पण ही वह केन्द्र है, जिसमें रहकर हमारे अनेकानेक समाज सुधारकों ने समाज की सेवा की। देश
पर मर-मिटने वाले शहीदों में यदि मातृभूमि के प्रति अटूट समर्पण भाव नहीं होता,
तो भारतमाता की बेडि़याँ नहीं टूटती। पति-पत्नी, रिश्ते-नाते, अड़ौस-पड़ौस, मालिक-कर्मचारी,
शासक-जनता, व्यक्ति-व्यक्ति में आपसी समर्पित भाव
से ही एक दूसरे की सेवा का भाव पनपता है। समर्पण में अहंकार तिरोहित रहता है।
मीराँ का समर्पण भक्ति का अनुपम उदाहरण है। श्रीरामकृष्ण परमहंस के प्रति
विवेकानन्द के समर्पण ने उनको देश-सेवा से ओत-प्रोत कर दिया। विवेकानन्द
शिलास्मारक के प्रति एकनाथ रानडे का पूर्ण समर्पण ही सफलता का जनक था। देश में
समर्पित लोगों की कभी भरमार थी, तभी यह देश सोने की चिडि़या और विश्व
गुरु कहलाया। आज परिवार, समाज और देश के प्रति समर्पण भाव की
हमें अत्यन्त आवश्यकता है।
जीवन का कोई भी
क्षेत्र हो, बिना समर्पण सफलता मिल पाना संभव नहीं
है। समर्पण भाव से ही सच्ची सेवा संभव है वरना सिर्फ स्वार्थ का ही बोलबाला रहता
है। स्वस्थ, सुखी और सर्वांग सम्पन्नता के लिए,
जरूरी है - सेवा में समर्पण
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