Saturday, 30 November 2024

गीता जयन्ती 2024

प्रिय बहनों और भाइयों,

सप्रेम नमस्कार,

इस वर्ष गीता जयन्ती ११ दिसम्बर को है। श्रीकृष्ण का आगमन द्वापर युग के अन्त में हुआ था और कलियुग का प्रारम्भ उनके शरीर त्यागने के साथ हुई थी। इस प्रकार उनका सन्देश आनेवाले युग के लिए, अर्थात हमारे समय के लिए था। उनका सन्देश क्या है?
जब समय शान्तिपूर्ण होता है और हर कोई धर्म के पक्ष में होता है, तो धर्म की समझ सरल हो जाती है। लेकिन जब समाज जटिल हो जाता है, जब यह एकरूप नहीं होता है, जब धार्मिक शक्तियां विद्यमान होती हैं तो धर्म की समझ गहरी होनी चाहिए और इसका प्रयोग अधिक सूक्ष्म होना चाहिए।
श्रीकृष्ण ने हमें यह ज्ञान दिया। सामान्यतः यह कहा जाता है कि श्रीकृष्ण ने हमें उपनिषदों का सार दिया। परन्तु यह इस अर्थ में सत्य है कि श्रीकृष्ण की शिक्षाएं वेदान्तिक दृष्टि पर ही आधारित हैं। किन्तु वह सदियों पुरानी परम्पराओं को और अधिक संश्लेषित, गहन और विविध, तथा सामयिक व्याख्याएं और अनुप्रयोग देता है। श्री ज्ञानेश्वर इसे बहुत सुन्दर ढंग से समझाते हैं। उनका कहना है कि वेदों को सोते हुए ईश्वर की सांस माना जाता है। किन्तु भगवद्-गीता स्वयं भगवान ने कही थी इसलिए यह कितनी सामयिक और स्पष्ट होनी चाहिए। इस प्रकार हम भगवद्गीता में वैदिक दृष्टि के नए आयाम देखते हैं।
श्रीकृष्ण के समय से पहले दो प्रकार के साधकों के लिए दो अलग-अलग मार्ग थे। संन्यास का मार्ग उन लोगों के लिए था जो आत्मज्ञान चाहते थे। चूंकि आत्मा कर्ता नहीं है, इसलिए यह मार्ग भी सभी कर्मों को छोड़ने पर जोर देता है - सर्वकर्म संन्यास मार्ग। कर्महीनता को संन्यास का लक्षण माना गया। दूसरा मार्ग उन लोगों के लिए था जो इहलोक और परलोक में सुख पाना चाहते थे। अतः इसमें केवल कर्मकाण्डीय यज्ञों पर बल दिया गया था। इन दो प्रकार के साधकों के लिए, ऐसे मार्ग उस समाज में ठीक हैं जहाँ उसका कोई शत्रु न हो और समाज आन्तरिक रूप से संगठित और स्व-चालित हो। किन्तु जब ऐसी आसुरी या अधार्मिक ताकतें होती हैं जो हिंसक और अनन्य होती हैं तो समाज यह सहन नहीं कर सकता कि उसका एक बड़ा हिस्सा या तो निष्क्रिय हो या अपने ही लक्ष्य में डूबा रहे।
श्रीकृष्ण ने दोनों मार्गों का संश्लेषण किया। उन्होंने संन्यास-मार्ग की क्रियाहीनता को दूर किया लेकिन आत्मज्ञान को ही परम माना। उन्होंने वांछित-आधारित कर्म (काम्य कर्म) को हटा दिया लेकिन आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए नियत कर्म (नियत कर्म) करने के महत्त्व पर बाल दिया। इस प्रकार दोनों मार्गों का दृष्टिकोण और उद्देश्य एक हो गया और दोनों मार्ग एक-दूसरे के पूरक बन गए। एकता की दृष्टि किसी के कर्तव्यों को पूरा करने का आधार बन गई क्योंकि ईश्वर को प्रसाद देते हुए श्रीकृष्ण ने कहा कि यदि कोई आनंद या आत्मज्ञान (दोनों अन्ततः एक ही है) चाहता है तो उसे कर्म करना होगा। आत्मज्ञान प्राप्त होने के बाद भी व्यक्ति कर्म करता रहता है, क्योंकि आत्मा अकर्ता है। इस प्रकार आत्मज्ञान के आकांक्षी और आत्मज्ञानी समाज के उत्थान के लिए, योगदान के रूप में कर्म करते हैं - समाज धारणा। अपने स्वयं के निर्धारित कर्म को करना, यह ईश्वर के साथ सम्बन्ध बन जाता है जो हर जगह विद्यमान है। यही कारण है कि हमारी ‘केन्द्र प्रार्थना’ में ब हम ‘कर्मयोगैकनिष्ठा’ कर्मयोग को ही एकमात्र प्रतिबद्ध जीवन-शैली मानते हैं। 
श्रीकृष्ण अवतार की घटनाओं की भी चर्चा करते हैं, जो उपनिषद् ग्रंथों में नहीं है। गीता के अनुसार, भगवान ने संसार को उसके भाग्य पर नहीं छोड़ा है। किन्तु ईश्वर की अत्यन्त सतर्क और सक्रिय देख-रेख में यह संसार प्रगति कर रहा है। जब भी धर्म का पतन होता है, अर्थात जब भी संसार आन्तरिक विकास, आगे के विकास की दिशा खो देता है, तब भगवान उसकी रक्षा के लिए जन्म लेते हैं। ‘मैं धर्म की रक्षा के लिए बार-बार जन्म लेता हूँ', के आश्वासन के साथ एक और बात भी है जो गीता में है और वह है विश्वरूप दर्शन।
श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं,- “निमित्तमात्रं भव सव्य साचिन्” - मेरा साधन बनो। यदि हम सम्पूर्ण गीता का अध्ययन करें तो हम देखते हैं कि ईश्वर स्वयं कार्य नहीं करता अपितु अपने साधन के रूप में मनुष्य का चयन करता है। महाभारत युद्ध में भी, कृष्ण सीधे नहीं लड़ते थे, बल्कि हर चरण में पांडवों को धर्म की स्पष्ट और गहरी समझ देकर अधार्मिक शक्तियों से लड़ने की उनकी क्षमता में सुधार करते थे। धर्म की समझ, उद्देश्य की स्पष्टता कलियुग में हमारे भीतर की दिव्यता है। दुर्भाग्य से हमारी समझ बिगड़ हो गई; हम गीता का पाठ भूल गए। हमने केवल गीता का जाप किया लेकिन श्रीकृष्ण की शिक्षा को जीवन में लागू करने में असफल रहे। इस कारण हमने सोचना प्रारम्भ कर दिया कि अधार्मिक शक्तियों से लड़ने और धर्म की स्थापना के लिए भगवान को ही जन्म लेना पड़ता है। यदि किसी ने धर्म के लिए कठिन परिश्रम किया; उसने ईश्वर के पूर्ण साधन के रूप में किस तरह कार्य किया और ऐसा करके स्वयं को ऊँचा उठाया, तो यह परिश्रम देखने के बजाय हमने उस व्यक्ति को अवतार बना दिया और धर्म की रक्षा के लिए प्रयत्न करने के अपने दायित्व से पलायन कर गए।
धर्म का अर्थ है – अपने शब्दों और कार्यों द्वारा इस परस्पर जुड़े और अन्योन्याश्रित ब्रह्माण्ड के शाश्वत सिद्धान्तों को संजोना और उनकी रक्षा करना। धर्म का अर्थ है - परिवार, समाज, राष्ट्र इन सबका विकास करना। धर्म, राष्ट्र, समाज या किसी सामूहिकता के लिए कार्य करते समय कोई अपनी छवि, पसंद-नापसंद, लगाव आदि की रक्षा करने में लिप्त नहीं हो सकता। भीष्म अपनी प्रतिज्ञा को लेकर अधिक चिन्तित थे जबकि उनकी सौतेली माँ ने विवाह करके पारिवारिक वंश को बचाने का अनुरोध किया था। कर्ण को कौरवों की जीत से अधिक अपनी छवि ‘दानवीर’ बनाए रखने की चिन्ता थी। द्रोणाचार्य का अपने पुत्र के प्रति लगाव संसार की किसी भी अन्य चीज से अधिक महत्त्वपूर्ण था। किन्तु कृष्ण ने हमेशा वही किया जो धर्म आधारित समाज के लिए अच्छा था। हालांकि उन्होंने कहा था कि वे शस्त्र हाथ में नहीं लेंगे फिर भी जब भीष्म अनियंत्रित हो गए तो उन्होंने सुदर्शन चक्र उठा लिया। आवश्यकता पड़ने पर ही वे क्रोधित होंगे; अन्यथा नहीं, चाहे कोई कितना भी प्रयत्न कर ले। कृष्ण बताते हैं कि हमारी छवि, हमारा नाम भी सामूहिकता की भलाई के लिए है। आवश्यकता पड़ने पर हमें समाज की भलाई के लिए उसका भी त्याग करना होगा। श्रीकृष्ण ने यह शिक्षा युधिष्ठिर को यह कहकर दी कि ‘अश्वत्थामा हत्’ – ‘अश्वत्थामा मारा गया’ ऐसा कहो। जो कुछ घटित हुआ उसे ज्यों का त्यों बता देना सत्य नहीं है। लेकिन सत्य शब्द वह है जिससे समाज की रक्षा होती है। ‘यद् भूतहितम् अत्यन्तम् तद् सत्यम्’ – जो सबके लिए हितकर है, वही सत्य है।
श्रीकृष्ण ने धर्म के अनुयायियों के लिए बताया कि सिद्धान्तों के आधार पर (अधीन होकर) अधर्मी या आसुरी शक्तियों से निपटना (पराजित) अधर्म है। जब अर्जुन ने कर्ण पर वाण चलाने से मना कर दिया क्योंकि वह रथ पर नहीं है, तो वे अर्जुन को समझाते हैं कि उसे अधर्मियों के साथ किस तरह का व्यवहार करना चाहिए। महाभारत में ऐसे अनेक उदाहरण हैं। किन्तु इसका हम सभी के लिए यही सार है कि हर स्थिति में धर्म की एक समान व्याख्या नहीं कर सकते। इसकी समझ सदैव इस सन्दर्भ में होती है कि समाज के लिए उचित क्या है। व्यक्तिगत लाभ, पसंद-नापसंद और आत्म-छवि महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। केवल तभी जब ऐसे पुरुष आस-पास हो, अर्थात जब राष्ट्रीय-चरित्र और वैयक्तिक चरित्रवाले लोग होते हैं तब समाज की जीत और कल्याण होता है। इन सभी बिंदुओं का सम्बन्ध दूसरों के साथ हमारे संवाद से है। हमारा भी अपने प्रति एक कर्तव्य है जिसे हमें निभाना चाहिए। धर्म का अभ्यास हमारे लिए सहायक है किन्तु हमें कुछ और करने की आवश्यकता है क्योंकि जीवन बहुत जटिल है। इसे एक सुन्दर कहानी से समझा जा सकता है। एक रोचक कहानी है। कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने पांडवों से कहा था कि उनके शरीर त्यागने के उपरान्त कलियुग प्रारम्भ हो जाएगा। पांडवों ने उनसे पूछा कि कलियुग में क्या होगा? श्रीकृष्ण ने उनसे कहा, “आप अलग-अलग दिशाओं में जाएँ और जो भी असामान्य लगे, वापस आकर उसके बारे में बताएं।” कुछ दिनों के बाद सभी पांडव एक-एक करके वापस आए। श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा कि उन्होंने क्या देखा? युधिष्ठिर ने कहा कि उन्होंने बहुत ही असामान्य चीज देखी, एक हाथी जिसकी दो सूंड थीं। श्रीकृष्ण ने बताया कि कलियुग में प्रशासक शपथ अलग होगा और वह काम कुछ और ही करेगा। भीम ने बताया कि उन्होंने एक पक्षी देखा जिसके बड़े पंख थे जिन पर सुनहरे अक्षरों में वेद लिखे थे किन्तु वे पक्षी मरे हुए जानवरों का मांस खा रहे थे। श्रीकृष्ण ने कहा, “हाँ, ऐसा ही होगा - वेदों के रक्षक सभी मानदण्डों और सही आचरण के आदेशों का पालन नहीं करेंगे और इसलिए वेदों का अध्ययन और सम्मान कम हो जाएगा। तब अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा कि उन्होंने एक बहुत ही रोचक बात देखी, कि एक स्थान पर तीन अन्य कुओं से घिरा हुआ केन्द्र में एक कुआं था। तीनों कुओं में पर्याप्त पानी था, वास्तव में पानी निकल भी रहा था लेकिन बीच वाला कुआं सूखा था। श्रीकृष्ण ने बताया कि कलियुग में ऐसा ही होगा, लोगों के पास बहुत पैसा होगा फिर भी वे इसका उपयोग अभावग्रस्त लोगों की सहायता के लिए नहीं करेंगे। तब सहदेव ने बताया कि उन्होंने एक गाय को देखा जिसने अभी-अभी एक बछड़े को जन्म दिया था और उसे साफ करने के लिए उसे चाट रही थी। लेकिन बछड़ा साफ होने और अपने पैरों पर खड़ा होने के बाद भी वह उसे चाटती रही। लोगों ने बछड़े को ले जाने की प्रयत्न किया, लेकिन वह नहीं मानी, और इतनी जोर से चाटती रही कि बछड़ा घायल हो गया। श्रीकृष्ण ने कहा, “हाँ, कलियुग में यही होगा। माता-पिता अपने बच्चों को इतना लाड़-प्यार करेंगे कि उनका समुचित विकास बाधित होगा।” नकुल ने बताया कि मैंने एक और बहुत ही रोचक बात देखी। मैंने पहाड़ी से एक बड़ा पत्थर लुढ़कता हुआ देखा। पहाड़ी की ढलान पर बड़े पेड़ उसे गिरने से नहीं रोक सकते थे, किन्तु एक छोटा-सा पौधा उस पत्थर को गिरने से रोक सकता था। श्रीकृष्ण ने कहा कि कलियुग में मनुष्य के साथ यही होगा। वह पतित हो जाएगा। कलियुग में ईश्वर के स्मरण से बढ़कर कोई भी चीज उसके पतन को नहीं रोक पाएगी। कहानी हमें क्या बताती है? यह बताती है कि प्रशासक अपना धर्म भूल जाएँगे, ब्राह्मण ज्ञान की रक्षा करने के अपने मूल कर्तव्य को भूल जाएँगे, धनवान व्यक्ति स्वार्थी हो जाएँगे और अभावग्रस्त लोगों के सहायता के लिए अपने धन का उपयोग नहीं करेंगे। परिवार तनाव में आ जाएँगे क्योंकि माता-पिता अपने बच्चों को इतना लाड़-प्यार करेंगे कि बच्चे बिगड़ जाएँगे। किन्तु यदि हम अपने हर काम में ईश्वर को याद रखें और उनका नाम लें, तो हम अपनी रक्षा कर सकते हैं। तो यह एक बहुत ही रोचक कहानी है जो हमें बताती है कि कलियुग के प्रभाव को कम करने के लिए हमें क्या करना चाहिए। हम परिवार सम्मेलन आयोजित करके गीता जयन्ती मनाते हैं क्योंकि गीता का अध्ययन और अभ्यास बचपन से ही शुरू हो जाना चाहिए। संकुल प्रमुख आयोजन टीम का हिस्सा हो सकते हैं। उपरोक्त कहानी संकुल के बच्चों द्वारा अभिनीत की जा सकती है। प्रत्येक संकुल की एक संक्षिप्त रिपोर्ट भी उत्सव का हिस्सा हो सकती है। यदि हम ठीक से आयोजन करते हैं, कई परिवारों को बुलाते हैं, तो यह संकुलों की संख्या बढ़ाने का उत्तम अवसर हो सकता है। पत्र, नाटक, संकुलों की रिपोर्ट, कुछ खेल और समूह चर्चा पर आधारित बातचीत करें और अन्त में अधिक संकुल बनाने का आह्वान करें। तो आइए, इस वर्ष गीता जयन्ती समारोह में इन बिंदुओं पर ध्यान केन्द्रित करें।
१. कर्मयोगैकनिष्ठा - हमारा स्थान, आयु और दायित्व के अनुसार हमें कार्य करते रहना है।
२. ईश्वर अपना धर्म स्थापना का कार्य मानवीय उपकरणों के माध्यम से करता है। हम उनके हाथों के साधनमात्र हैं; आइए, हम दोषरहित (शून्य-दोष) साधन बनने के लिए स्वयं को सुधारें।
३. उद्देश्य की स्पष्टता और धर्म की समझ तथा अभ्यास यह अपने भीतर देवत्व की अभिव्यक्ति है।
४. धर्म सूक्ष्म है और अधर्मियों पर इसका प्रयोग धार्मिकों के समान नहीं है।
५. ईश्वर का स्मरण करके अपने प्रत्येक कार्य को पूरा करें, उनका नाम जपें तथा उस कार्य को ईश्वर को अर्पित करें।
सादर
निवेदिता
उपाध्यक्ष,
विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी
मूल अंग्रेजी, अनुवाद : लखेश