संपादकीय जुलाई २०१४
सम्पूर्ण प्रकृति, संसार और हमसब, पंच तत्वीय (आकाश, अग्नि, वायु, धरती और
जल) पुतले हैं। इन्हीं के बल पर सबका जीवन, जीवन है। किसी भी एक तत्व की
अनुपस्थिति मौत का कारण बन जाती है। जबतक इनमें संतुलन कायम रहता है, तबतक
हम स्वस्थ, सम्पन्न और सुखी रहते हैं। इसीका अस्तित्व हरियाली में प्रकट
होता है। हरियाली यानी खुशियाँ और उजाडने यानी बर्बादी। जीवन में हरियाली
को विस्तृत आयाम हैं, जिनमें हर क्षेत्र समाया हुआ है। जीवन में हरियाली का
अस्तित्व प्रेम, त्याग, सत्य, करुणा, अहिंसा, श्रम, शुद्ध
आचरण-विचार-विहार, संवेदना, रहनसहन, खानपान जैसे मूल्यों की जीवनशैली पर ही
टिका होता है। जो भी इन्हें तोडने का प्रयास करता है वह हरियाली का
हत्यारा है।
एक बालिश्त जिन्दगी में सबको क्या चाहिए सिर्फ खुशियाँ और
सम्पूर्ण खुशहाली। प्रकृति अपने आँचल की हरियाली में हम सबको खुशियाँ ही
परोसती रहती है, लेकिन हम हैं कि उसे उजाडने में कोई कोर-कसर नहीं छोडते।
प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध शोषण, रसायन-कचरा-विष्ट का बेहिसाब उत्सर्जन
यानी पर्यावरण को तहस-नहस करने पर आमादा होकर, हम अपनी नकली खुशियों के
चक्कर में असली खुशियाँ होम करते आ रहे हैं। सदैव ही लेते रहने से खुशियाँ
नहीं मिलतीं, देते रहने पर खुशियों का अंबार लग जाता है। आदमी के सोच में
आई यह मोच, हरियाली की हत्यारिन है।
सुबह से शाम वाले इस जीवन में धूप-छाँव के बीच, व्यक्ति को सिर्फ दो अदद उस सकून की जरूरत होती है, जो हरियाली के मकसद यानी खुशियों से उसकी झोली भर दे। इसके लिए जरूरी है कि वह शुचिता की छतरी लेकर उस सहज-सरल मार्ग पर चले, जो उसे सुगंधित करते हुए मानवीयता से ओत-प्रोत रखे। दूसरों की आँख का आँसू अपनी ही आँख का महसूस करने वाला आदमी, सदा ही खुशियों से भरा रहता है। लेकिन, परोपकार की समझ का अकाल इस कदर पसरा हुआ है कि उसे केवल निज-हित के सिवाय और कुछ दिखाई नहीं देता। घनीभूत होते इस स्वार्थ ने दूसरों की हरियाली छीनकर अपने आँगन में रोपने की कोशिश तो भरपूर की, लेकिन अंतत... उसे काँटों के सिवा कुछ नहीं मिला इतिहास इसका गवाह है। स्वयं के जीवन की हरियाली के लिए अपनी विशुद्ध जीवनशैली को बनाए रखना जरूरी है। अपनी बे-काबू भूख को मिटाने की फिराक में प्रतिस्पर्धा, टाँग खिचाई, झूठ-फरेब, लूट-खसोट, आपा-धापी, चालाकी के सहारे हरियाली बटोरने के सभी जतन करने वाला, नीयत की नियति के फलस्वरूप अपनी बची-खुची हरियाली का हत्यारा बन जाता है।
परिवार और समाज की हरियाली, व्यक्ति - व्यक्ति में व्याप्त हरियाली की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। परिवार की हरियाली आपसी प्रेम, त्याग, सहयोग और एकजुटता पर टिकी होती है। किसी एक सदस्य की मति में यदि स्वार्थ, लोभ, अहंकार आदि छा जाएँ, तो फिर परिवार की हरियाली उजाडने में देर नहीं लगती। पूरा जीवन धूप में तपाकर अपनी संतान को छाया देने वालों को जीवन के अंतिम प‹डाव पर हरियाली की अधिक आस रहती है, परन्तु बुलन्दियों को छूने वाली औलाद, माता-पिता का ॠण उनकी स्वप्निल हरियाली को रेतीली बनाकर चुकाती है। संस्कारों की ऐसी भारी गिरावट पर हरियाली के भी आँसू नहीं थमते। औलाद जब बूढी होगी, तो उनकी हरियाली कैसी होगी... जैसे बीज बोओगे, वैसी ही हरियाली होगी। लोभ से भ्रष्टाचार, स्वार्थ से मनमुटाव, वासना से व्यभिचार, अवसाद से आत्महत्या, द्वेष से हिंसा, छल-कपट से शोषण, दुर्भावना से दुश्मनी आदि आदि घटनाएँ तब घटित होती हैं, जब आदमी मानवीय मूल्यों को ताक में रखकर, अपनी अंतहीन कामनाओं के साथ तथाकथित हरियाली को पाने के लिए नापाक हथकंडे अपनाने लगता है। ऐसे पतित लोग औरों की हरियाली के साथ, स्वयं की हरियाली की हत्या करने के भी दोषी हैं।
हरियाली की चाहत तो सभी को होती है, लेकिन उसे
उगाने, बढाने और संवारने वाले कम होते हैं। चहुँ ओर सब प्रकार की उजड़ती
हरियाली का दोषी किसे मानें । सच तो यही है कि कमोबेश हम सब ही हैं, एकदूसरे
की - हरियाली के हत्यारे