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Tuesday 2 June 2020
माय फेथफुल गुडविन
जोशिया
जॉन गुडविन
वह
भाग्यवान आशुलिपिक जिन्हें स्वामी विवेकानन्द कहते थे “माय फेथफुल गुडविन”
(2 जून, गुडविन की पुण्य तिथि पर विशेष)
स्वामी
विवेकानन्दजी के विश्वप्रसिद्ध भाषण लिखने का श्रेय ‘जोशुआ जॉन गुडविन’ को है।
स्वामीजी उन्हें बड़े प्रेम से कहा करते थे- “मेरा
निष्ठावान गुडविन (My faithful Goodwin)”। गुडविन का जन्म 20, सितम्बर,
1870 को इंग्लैंड के बैथेस्टोन में हुआ था। उनके पिता जोशिया
गुडविनजी भी एक आशुलिपिक (stenographer) एवं सम्पादक
थे। गुडविन ने भी कुछ समय पत्रकारिता की, पर सफलता न मिलने
पर वे ऑस्ट्रेलिया होते हुए अमेरिका आ गए।
स्वामी
विवेकानन्दजी के सन 1895 में न्यूयार्क प्रवास के दौरान एक ऐसे आशुलिपिक की
आवश्यकता थी, जो उनके भाषण ठीक तरह से और तेजी से
लिख सके। इसके लिए कई लोग लगाए गए, पर इस कसौटी पर केवल
गुडविन ही खरे। 99 प्रतिशत शुद्धता के साथ 200 शब्द प्रति मिनट लिखने में गुडविन
को कौशल प्राप्त था, यह उनकी विशेषता
थी। स्वामी विवेकानन्दजी के भाषणों को सुनकर उसे शुद्धता के साथ तेजी से लिखने में
माहिर गुडविन इसके पहले कई वरिष्ठ एवं प्रसिद्ध लोगों के साथ काम कर चुका था। अतः
उसे उचित पारिश्रमिक पर इस कार्य के लिए नियुक्त कर लिया गया, पर स्वामीजी के भाषण सुनते-सुनते गुडविन का हृदय परिवर्तन हो गया।
उन्होंने पारिश्रमिक लेने से स्पष्ट मना कर दिया और अपनी सेवाएं नि:शुल्क देने
लगे। उन्होंने अपने एक मित्र को लिखा, “मुझे अब पैसा
मिले या नहीं, पर मैं उनके प्रेमजाल में फंस चुका हूं। मैं
पूरी दुनिया घूमा हूं। अनेक महान लोगों से मिला हूं, पर
स्वामी विवेकानन्द जैसा महापुरुष मुझे कहीं नहीं मिला।”
एक निष्ठावान
शिष्य की तरह गुडविन स्वामीजी की निजी आवश्यकताओं का भी ध्यान रखते थे। वे उनके
भाषणों को आशुलिपि में लिखकर शेष समय में उन्हें टाइप करते थे। इसके बाद उन्हें
देश-विदेश के समाचार पत्रों में भी भेजते थे। स्वामीजी प्रायः हर दिन दो-तीन भाषण देते थे। अतः गुडविन को अन्य
किसी काम के लिए समय ही नहीं मिलता था। सन 1895-96 में स्वामीजी ने कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग पर जो भाषण दिए,
उसके आधार पर स्वामीजी के सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ बने हैं। स्वामीजी
ने स्वयं ही कहा था कि ये ग्रन्थ उनके जाने के बाद उनके कार्यों का आधार बनेंगे।
उन दिनों गुडविन छाया के समान स्वामी विवेकानन्दजी के
साथ रहते थे।
स्वामीजी भाषण
देते समय किसी और लोक में खो जाते थे। कई बार तो उन्हें स्वयं ही याद नहीं आता था
कि उन्होंने व्याख्यान या श्रोताओं के साथ हुए प्रश्नोत्तर में क्या कहा था? ऐसे में गुडविन उन्हें उनके भाषणों का सार दिखाते थे। स्वामीजी ने उसकी
प्रशंसा करते हुए एक बार कहा कि गुडविन ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है। उसके बिना
मैं कठिनाई में फंस जाता।
अप्रैल,
1896 में स्वामीजी के लंदन प्रवास के समय भी गुडविन उनके साथ थे।
जनवरी, 1897 में वे स्वामीजी के साथ कोलकाता आ गए। गुडविन
वहां सब मठवासियों की तरह भूमि पर सोते थे तथा दाल-भात खाते थे। वे दार्जिलिंग,
अल्मोड़ा, जम्मू तथा लाहौर भी गए। लाहौर में
उन्होंने स्वामीजी का अंतिम भाषण लिखा। फिर वे मद्रास आकर रामकृष्ण मिशन के काम
में लग गए। उन्होंने ‘ब्रह्मवादिन’ नामक पत्रिका के प्रकाशन में भी सहयोग दिया। पर मद्रास (अब चेन्नई) की गरम
जलवायु से उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया। अतः वे ऊटी आ गए। वहीं 2 जून, 1898 को केवल 28 वर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया। स्वामीजी उस समय
अल्मोड़ा में थे। समाचार मिलने पर स्वामीजी के मुँह से निकला, “मेरा दाहिना हाथ
चला गया।” ऊटी में ही स्वामी विवेकानन्द के
इस प्रिय शिष्य का स्मारक बनाया गया है।
गुडविन इस लिखित
सामग्री को ‘आत्मन’ कहते थे।
शार्टहैंड में लिखे ऐसे हजारों पृष्ठ उन्होंने एक छोटे संदूक में रखकर अपनी मां के
पास इंग्लैंड भेज दिए थे, जिनका अब कुछ भी पता नहीं है।
इनमें स्वामीजी के भाषणों के साथ ही उनके कई भाषाओं में लिखे पत्र भी हैं।
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