गुरु पूर्णिमा इस साल 27 जुलाई को आनेवाली है। विवेकानन्द केन्द्र में हम इस उत्सव को मुख्यतः कार्यकर्ताओं के संवर्धन के लिए मनाते हैं। हम राष्ट्र के मूल को मजबूत करने, या यूँ कहें कि राष्ट्रीय पुनरुत्थान के लिए काम कर रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, ‘प्रत्येक राष्ट्र के पास देने के लिए एक संदेश है, उसे पूरा करना ही उसका भाग्य और मिशन है’। भारत की नियति है आध्यात्मिकता में दुनिया का मार्गदर्शन करना अर्थात् जीवन के सभी क्षेत्रों में एकत्व की अभिव्यक्ति। वेदों ने ‘‘एकत्व - एक से अनेक की उत्पत्ति’’ की इस दृष्टि को संदर्भित किया, निकाला, पोषण किया, उस पर चर्चा की और उसका वर्णन किया।
वेदों को संरक्षित करने के लिए (अस्तित्व के शाश्वत सत्य को प्रकट करनेवाले मन्त्रों का संग्रह), महर्षि श्री व्यास ने गुरु परम्परा स्थापित की। वह जानते थे कि किसी भी ज्ञान की निरंतरता, ज्ञान को आगे बढ़ाने हेतु प्रतिबद्ध और चरित्रवान व्यक्तियों की शृंखला पर निर्भर है। उन्होंने गुरु परम्परा बनाकर और ज्ञान की प्रत्येक शाखा को अलग-अलग परिवारों को सौंपकर इसे यथार्थ बना दिया।
महर्षि वेदव्यास के ये प्रयास और दृष्टि इतनी सफल थी कि भारत एक ऐसी भूमि बन गई जहाँ गुरु से शिष्य या पिता से पुत्र को ज्ञान की विभिन्न शाखाएँ प्राप्त होती रहीं । गुरु से शिष्य दृ गुरु परंपरा ने ज्ञान के इस प्रवाह को संरक्षित और समृद्ध करके, प्रत्येक युग के लिए इसे प्रासंगिक किया। इस प्रकार भारतमाता, जिसके जीवन में सनातन धर्म स्थापित है और सनातन धर्म जो नित्य नूतन और चिर पुरातन है, सदैव प्रासंगिक और शाश्वत हो गए। भगवान वेदव्यास द्वारा निर्मित गुरु परम्परा की यह प्रथा इतनी अनोखी थी कि उनकी जन्मतिथि अर्थात आषाढ़ पूर्णिमा को हमारी इस भूमि पर इसे गुरुपूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है।
भारत आंतरिक रूप से पूर्ण व्यवस्थित और आक्रमणों का सामना करने के लिए अच्छी तरह सुसज्जित था। लेकिन जब भारत में संगठित सेन्य बल और हिंसक विचारधाराओं का आगमन प्रारम्भ हुआ, तो हम असफल सिद्ध हुए। विभिन्न संगठित शत्रुतापूर्ण ताकतों और विचारधाराओं की शक्ति ने हमारी विभिन्न प्रणालियों को नष्ट कर दिया। अतः, संगठित होकर काम करने की आवश्यकता उत्पन्न हुई। यह समय की माँग है कि जो लोग राष्ट्र के बारे में चिंतित हैं, वे एक साथ आएँ और इसलिए धर्म को पुनः स्थापित करने के लिए, रामकृष्ण मिशन, चिन्मय मिशन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विवेकानन्द केन्द्र, माता अमृतानंदमयी मिशन और कई अन्य संस्थाएँ अस्तित्व में आईं।
संगठित कार्य आवश्यकता बन गई है। हमारा हिन्दू समाज बहु-स्तरीय है और इसमें विभिन्न सम्प्रदाय समाहित हैं। स्वामी विवेकानन्द जानते थे कि हमें व्यवस्थित होना है, लोगों को एक साथ लाने की आवश्यकता है। उन्होंने लिखा, ‘‘हमारे पास एक मंदिर होना चाहिए, क्योंकि हिन्दुओं के लिए, धर्म पहले आना चाहिए। फिर, आप कह सकते हैं, सभी सम्प्रदाय इसके बारे में झगड़ा करेंगे। लेकिन हम गैर-साम्प्रदायिक मंदिर बनायेंगे, जिसमें प्रतीक के रूप में केवल ‘‘ॐ’’ होगा, जो किसी भी सम्प्रदाय का सबसे बड़ा प्रतीक होगा। यदि यहाँ कोई ऐसा सम्प्रदाय है, जो मानता है कि ‘‘ॐ’’ प्रतीक नहीं होना चाहिए, तो उसे स्वयं को हिन्दू कहने का कोई अधिकार नहीं है... इसके बाद मंदिर के संबंध में शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए एक संस्थान होना चाहिए जो धर्म प्रचार करे और हमारे लोगों को धर्मनिरपेक्ष शिक्षा दे... फिर यह काम इन शिक्षकों और प्रचारकों के माध्यम से आगे बढ़ाया जाएगा, और धीरे-धीरे हमारे पास अन्य स्थानों पर भी ऐसे ही मंदिर होंगे, जब तक कि हम पूरे भारत को कवर न कर लें। यही मेरी योजना है। यह विशाल दिख सकती है, लेकिन यह बहुत जरूरी है। आप पूछ सकते हैं, इसके लिए पैसा कहां है। पैसे की जरूरत नहीं है... मनुष्य कहां हैं? यह सवाल है। मनुष्य, केवल मनुष्य की ही आवश्यकता हैः बाकी सब तो स्वतः हो जाएगा, लेकिन शक्तिवान, सामथ्र्यवान, आस्थावान युवा पुरुष जिनकी रीढ़ की हड्डी शुद्ध हो, जरूरी हैं।“
यही स्वामी विवेकानन्द की योजना थी, जिसने माननीय एकनाथजी को विवेकानन्द केन्द्र के लिए प्रेरित किया। युवा, अग्निपुंज और जीवंत युवाओं को सक्षम बनाने की दृष्टि से एकनाथजी ने विवेकानन्द केन्द्र की स्थापना की। केन्द्र में ‘‘ॐ’’ हमारे गुरु हैं। ॐकार अर्थात ईश्वर, जो लोगों को एक साथ लाने, संगठित तरीके से टीमवर्क के साथ काम करने हेतु मार्गदर्शक है। अतः हम अपने प्रार्थना कक्ष में ‘‘ॐ’’ के सामने प्रार्थना करते हैं। ॐ भगवान का नाम है, जो किसी भी भाषा से संबंधित नहीं है। भगवान का कोई भी अन्य नाम किसी विशिष्ट भाषा के मूल शब्दों से संबंधित है जो विशिष्ट अर्थ देता है और इस प्रकार उस भाषा को समझने वाले भक्त में सम्मान, भक्ति, प्रशंसा आदि के स्पन्दन पैदा करता है। लेकिन ॐकार किसी भी विशिष्ट भाषा तक सीमित नहीं है। यह भाषा से परे है और इस प्रकार सभी भाषाओं में भगवान के लिए आदर्श अभिव्यक्ति बन जाता है। ॐकार ब्रह्मांड के सभी चरणों- सृजन, जीवन और विसर्जन का प्रतिनिधित्व करता है। यह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। यह सभी लोगों के देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है। यह सर्व समावेशी है- इसमें सभी जातियाँ और पंथ समाहित है। योगशास्त्र कहते हैं, ‘‘तस्या वाचका प्रणवः’’ ॐकार ईश्वर की सबसे गहन अभिव्यक्ति है। ॐ ईश्वर है, जो हम सभी के लिए प्रेरणा का सदासर्वदा स्रोत है।
हम ऐसी भूमि पर पैदा हुए हैं जिसने सदैव संसार का मार्गदर्शन किया है और भविष्य में भी उसे दुनिया का मार्गदर्शन करना है। संगठन, जो धर्म स्थापित करने के लिए अस्तित्व में आया है, ईश्वरीय कार्य करने के लिए है, हमारे लिए ईश्वरीय है। अतः, जैसे गुरु को महत्व दिया जाता है, इसी प्रकार हम संगठन को महत्व देते हैं। हमारी इस भूमि ने अपने बच्चों को यही सिखाया है कि अपने सभी बुजुर्गों को गुरु के रूप में देखें, ताकि प्रत्येक में गुरुता-महानता और दिव्यता को देखा जा सके। यह वह जगह है जहां न केवल मनुष्यों बल्कि जानवरों और पक्षियों समेत पूरी प्रकृति को कई लोगों द्वारा गुरु के रूप में सम्मानित किया है, और किसी ने नहीं, बल्कि स्वयं दत्तात्रेयजी ने दृ जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु, महेश का संयुक्त अवतार माना जाता है। ऐसा कहा जा सकता है कि चूँकि दत्तात्रेयजी ने अपने आस-पास गुरुता को देखा, अपने आस-पास की हर चीज से सीखने के लिए अपने दिमाग को प्रशिक्षित किया, अतः वे गुरुओं के गुरु बन गए। जब हम कहते हैं कि ॐकार हमारा गुरु है तो हमें इसका गहरा अर्थ समझना होगा। ॐकार से ही सृजन हुआ है, अतः ईश्वर हर जगह है। हमें अपने दिमाग को दत्तात्रेय जैसे ही, अपने आसपास के उन सभी से सीखने के लिए प्रशिक्षित करना है।
कभी-कभी कार्यकर्ता आसपास की स्थिति को देखकर निराशा का अनुभव करता है या दैनंदिन गतिविधि में यांत्रिक बन जाता है, या श्रद्धा की कमी के कारण रूचि खो देता है। ऐसा क्यों होता है? कहीं न कहीं व्यक्ति केवल दूसरों की कमियों और दुर्गुणों को देखता है और प्रत्येक वस्तु में गुरुता को देखने में विफल रहता है। या आत्मविश्वास की कमी से जूझता है, या ’मैं पृथ्वी पर और इस संगठन में क्यों हूँ’ यह प्रश्न महत्वहीन हो जाता है, या टीम के स्थान पर ’मैं’ बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। ऐसे समय में ॐकार से सीखना यानी हमारे चारों ओर की सब चीजों से सीखना, विभिन्न स्तरों पर हमारी टीमों में यह भाव जरूरी है। जैसा कि माननीय एकनाथजी ‘‘साधना आॅफ सर्विस’’ में कहते हैं, ‘‘हमें केवल बहरा और गूंगा बनकर हर बात पर आत्मसमर्पण नहीं करना चाहिए, बल्कि हमारे आस-पास की हर चीज के प्रति एक प्रबुद्ध दृष्टिकोण होना चाहिए। समीक्षकों की तरह अपने चारों ओर देखो और आप पाएंगे कि प्रतिक्षण और प्रकृति की महत्वहीन चीजों में भी आपके लिए एक सन्देश है, जो आपके लिए लाभकारी और प्रगति के लिए है। बस उन संदेशों को सुनने के लिए और उचित प्रकाश में उन्हें समझने और विमुक्त होने के लिए ग्रहणशील कान और एक चैकस मन होना चाहिए। हमारे चारों ओर सबकुछ के अर्थ को समझने की कोशिश करें। ये सब चीजें वहां क्यों हैं? उनमें क्या अर्थ निहित है और उनका उद्देश्य क्या है? मेरा जन्म क्यों हुआ? मुझे कन्याकुमारी (विवेकानन्द केन्द्र) क्यों लाया गया है? जब मैं अपनी शिक्षा प्राप्त कर रहा था तब तो मैंने कभी इसका सपना भी नहीं देखा।... अब जब यह निर्धारित किया गया है कि मुझे यहां होना चाहिए, तो मुझे अपने भविष्य को एक योग्य तरीके से आकार देना है। मेरा दृष्टिकोण सही होना चाहिए। कई बार मैंने देखा है कि लोग अपनी बस मिस कर देते हैं। यह अपने साथ नहीं होने दो। मैं यहाँ इस प्राचीन पवित्र भूमि में हूँ, न कि अमेरिका या जर्मनी में। क्यों?... हमें अपने आस-पास की दुनिया को सही तरीके से देखना है। अन्यथा सुस्त दिनचर्या के कारण जीवन नीरस और उबाऊ हो जाता है। उन सभी लोगों में यह असंबद्ध एकता है, जिनमें इस दृष्टिकोण की कमी हैं क्योंकि वे बाह्य प्रकृति को देखने और इसके अर्थ को समझने के कौशल से सुसज्जित नहीं हैं। हमारे आस-पास की दुनिया और घटनाओं में हमारे लिए निहित सन्देश को समझकर सही भावना से अनुकरण करनेवाला प्रत्येक व्यक्ति अच्छे समापन की ओर जाता है। ईश्वरीय प्रस्तावों पर अडिग रहना और उन्हें हल्के में न लेना ही एकमात्र तरीका है।’’
हमारे लिए गुरुपूर्णिमा का अर्थ है कि हम स्वयं को ईश्वरीय प्रस्तावों से जोड़ते हैं, ‘हमें भारत को विश्वगुरु बनाकर मानवता के लिए काम करने हेतु एक साथ लाया गया है’।
पिछले साल से, हम विषय ‘जल ही मूल है’ विषय पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि हम एकत्व-आत्मीयता जैसे उद्देश्यपूर्ण सिद्धांतों पर काम करते हुए, निरर्थक प्रयासों में समय बर्बाद न करें और स्वयं का विलय उस चमू में कर दें जिनके साथ हम काम करते हैं - ‘मैं’ नहीं ‘हम’। तभी हमारे टीमों का विस्तार होगा, अधिक कार्यकर्ता हमारे पास आएंगे। सभी स्तरों पर विस्तार और समावेशी चमुओं का निर्माण करने की आवश्यकता है। हम प्रत्येक के अच्छे गुणों की सराहना करना सीखते हैं और टीम के हित में स्वयं को विलय करने के लिए बड़ा दिल रखते हैं, ताकि हम टीमों का निर्माण कर सकें। गुरु-उपासना, हमारे लिए आध्यात्मिक साधना ही है।
इस वर्ष गुरुपूर्णिमा के उत्सव के लिए हम अपने सभी परिचितों - कार्यकर्ताओं, संरक्षकों, शुभचिंतकों, सभी योग सत्रों और अब तक किए गए सभी वर्गों के प्रतिभागियों, हमारी पत्रिकाओं के सदस्यों आदि को बुला सकते हैं। वे सभी गुरुपूर्णिमा उत्सव में शामिल हो सकते हैं, साथ ही साथ विवेकानन्द केन्द्र की गतिविधियों के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए ताकि वे देश के लिए अपना समय और ऊर्जा प्रदान कर सकें। कम से कम ‘राष्ट्र के लिए सप्ताह में एक घंटे’ देने के लिए और इस प्रकार उन्हें केन्द्र के वर्गों में सहभागी होने के लिए अपील की जा सकती है। जैसे-जैसे वे नियमित रूप से आते हैं, देश के लिए और अधिक समय देने के प्रति उनकी रुचि विकसित होगी।
गुरु पूर्णिमा का अवसर - ॐकार उपासना, सृष्टि में दिव्यता को देखने के लिए साधना शुरू करने का सही समय है, प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की टीमों में ‘‘स्व’’ को विसर्जित कर उसके लिए कार्य करना।