भारत में जीवन, साधना का पर्याय माना जाता है। सुसंस्कृत व्यक्ति वही है जो साधना करके जीवन का श्रेष्ठ सम्पादित करने के लिए प्रयत्न करें। परमहंस रामकृष्ण काली माता के मंदिर के पुजारी थे। काली माता के भक्त थे। उन्होंने अपने जीवन में प्रयोग करके प्रमाणित कर दिया कि सभी पन्थों, मतों और सम्प्रदायों का एक ही लक्ष्य है - भगवत्प्राप्ति।
तपोनिष्ठ जीवन जीकर उन्होंने समाज का मार्गदर्शन किया और भारत राष्ट्र को विवेकानन्द जैसा शिष्य दिया, जिसने सारे संसार में भारतीय जीवन पद्धति को प्रसिद्ध करने के लिए अभूतपूर्व प्रयत्न किया। विवेकानन्द का मूल नाम नरेन्द्र था। उसने स्वामी रामकृष्ण से युवकोचित जिज्ञासा की कि क्या उन्होंने ईश्वर को देखा है ? उनका उत्तर था हाँ देखा है - उसी तरह स्पष्ट रूप से जैसे तुमको देख रहा हूँ। तुमको भी दिखा सकता हूँ।
विवेकानन्द उनके पास ईश्वर दर्शन के लिए नियत समय पर गए और रामकृष्ण ने उनके सिर पर हाथ रख कर उनकी जिज्ञासा को शान्त कर दिया। आगे उनका कथन था कि जो देखना था, उसे देख लिया। स्वामी रामकृष्ण ने उनको अपने अनुभव से लोक कल्याण में प्रवत्त होने का अनुरोध किया। नरेन्द्र विविदाषानन्द बन गए। खेतड़ी नरेश से सम्पर्क में आने के बाद उनका नाम विवेकानन्द प्रसिद्ध हो गया। शिकागो के विश्व-धर्म सम्मेलन में अपने ऐतिहासिक भाषण से उन्होंने लोगों को मंत्र-मुग्ध कर दिया। उनका सम्बोधन था - अमरीका के बहिनों और भाइयों ! इस प्रकार का व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ने वाला सम्बोधन विश्व मंच पर लोगों ने प्रथम बार सुना था। तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गूँज उठा। उनके मुख से संसार में पहली बार हिन्दू-धर्म का परिचयात्मक उपदेश सुना, हृदयंगम किया। अमरीका से लौट कर स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण भारत की यात्रा की। अंग्रेजों की गुलामी से त्रस्त और शोषण से त्रस्त भारतीयों को देखकर उन्होंने कन्याकुमारी के पास समुद्र की शिला पर तीन दिन तक चिन्तन किया और पीड़ित मानवता का उद्धार करने का संकल्प ले लिया। उनका विचार था कि देश का अध्यात्म निष्ठा के आधार पर नव निर्माण करना चाहिए। इसके लिए अपने गुरु की स्मृति में रामकृष्ण मठ की स्थापना की।
स्वामी विवेकानन्द का मन्तव्य था कि सर्व श्रेष्ठ मानव का जन्म भारतीय ग्रामों में ही हो सकता है। इससे आधुनिकता के चाकचिक्य से संत्रस्त ग्रामीणों में अभूतपूर्व आत्मविश्वास जागा और स्वतंत्रता की चाह तीव्र हुई। भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में स्वामी विवेकानन्द का यह अभूतपूर्व योगदान है।
स्वामी विवेकानन्द के विचारों से प्रेरित होकर एकनाथ रानडे ने देश भर में जागरण का नया अभियान छेड़ा। उन्होंने कन्याकुमारी में विवेकानन्द केन्द्र स्थापित किया। विवेकानन्द के चिन्तन स्थल शिलाखण्ड पर विवेकानन्द स्मारक बनाया जिसके लिए प्रत्येक व्यक्ति से एक-एक रुपया लिया। इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए अपेक्षित धनराशि कोई भी लक्ष्मी पुत्र दे सकता था; पर एकनाथजी चाहते थे कि विवेकानन्द स्मारक के लिए जो एक रुपया दे, उसके पास विवेकानन्द का सन्देश भी पहुँचे और वह अनुभव करे कि इस महान् कार्य में उसका अपना भी योगदान है।
विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी ने देशभर में विविध प्रकल्पों के माध्यम से राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दिया। संस्कार वर्ग के माध्यम से नई पीढ़ी को सनातन धर्म के संस्कार देने का काम हो रहा है। योगाभ्यास के द्वारा नागरिकों के सुस्वास्थ्य का प्रबन्ध किया जा रहा है। स्वाध्याय वर्ग लगा कर लोगों को सजग और विचारवान् बनाने का काम हो रहा है।
एक जीवनव्रतियों की पीढ़ी तैयार हो गई है, जो देश के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करके अध्यात्मनिष्ठ भारत के नवनिर्माण में योगदान कर रही है। विवेकानन्द सार्द्धशती, एकनाथ रानडे जन्मशती समारोह के कार्यक्रमों के माध्यम से अधिकाधिक लोगों तक राष्ट्र निर्माण का सन्देश पहुँचाया गया। यह वर्ष भगिनी निवेदिता की डेढ़ सौ वीं जयन्ती का है। भगिनी निवेदिता ने हिन्दू जीवन पद्धति की महत्ता को समझा, उसका समर्थन और प्रचार किया था। वे स्वामी विवेकानन्द की शिष्या थीं।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने जन जागरण का जो सपना देखा था, वह धीरे-धीरे साकार हो रहा है। धीरे-धीरे अनेक कार्यकर्ता की चमू तैयार हो गई है जो तब तक चैन से नहीं बैठेगी, जब तक राष्ट्र निर्माण का कार्य पूरा नहीं हो जाता। भारत अपनी चरित्र गरिमा और यज्ञयोगमयी जीवन शैली के माध्यम से विश्व गुरु रहा है। उसे पुनः विश्व गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने का स्वप्न साकार हो - यह सभी भारतवासियों की कामना है।