आधुनिक
वाचस्पति : डॉ.श्याम
बहादुर वर्मा
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निवेदिता रघुनाथ भिड़े
केन्द्र शिक्षा शिविर का सत्र लेकर मैं
कार्यालय में मेरी पोस्ट देख रही थी। एक पुस्तक टपाल में थी – ‘भारतीय संस्कृति के
अनवरत उपासक: डॉ.श्याम बहादुर वर्मा’। जैसे ही मैंने यह
नाम पढ़ा मेरा मन बारह वर्ष पीछे गया।
दिल्ली में विवेकानन्द केन्द्र इंटरनेशनल
का जब भवन निर्माण हो रहा था तब निधि के कार्य से कभी-कभी मेरा प्रवास दिल्ली होता
था। एक दिन श्री प्रवीणजी, केन्द्र के संयुक्त महासचिव जो उस समय वहां का दायित्व
सम्भाल रहे थे; उन्होंने मुझसे कहा, “चलिए, आज मैं आपको एक विशेष व्यक्ति से
मिलाऊंगा।” ‘किनसे’ मैंने पूछा।
उन्होंने बताया, “श्री श्याम बहादुर
वर्माजी ‘केन्द्र भारती’ के प्रथम सम्पादक, जिनके कारण ‘केन्द्र भारती’ का समाज
में मान था।” केन्द्र भारती - विवेकानन्द केन्द्र की हिन्दी मासिक पत्रिका।
हम उनके फ्लैट पर पहुंचे और बेल बजाई। थोड़ी
देर बाद स्वयं उन्होंने दरवाजा खोला और हँसते हुए स्वागत करते हुए हमें अन्दर
बुलाया। जैसे ही हम अन्दर आए, मैं घर देखकर हैरान हो गई। सर्वत्र पुस्तकें थीं। सर्वत्र
यानी – अलमारी, टेबल, पलंग, कुर्सी, बेंच और पूरे फर्श पर। उन पुस्तकों में से राह
निकालते हुए हम अन्दर के कक्ष में उनके पीछे पीछे गए, वहां भी वही चित्र। थोड़ी
पुस्तकें कुर्सी और बेंच से उठाकर हमने आसन ग्रहण किया।
मैं पहली बार ही मिल रही थी लेकिन जिस
आत्मीयता और सहजता से उन्होंने बात की, ऐसा लगा मैं उनको बरसों से जानती हूं। बीच
में वे उठकर घुटने और पाँव के दर्द के कारण लंगड़ते हुए कक्ष के बाहर गए। मैं उनके
बारे में जानती तो कुछ नहीं थी, इसलिए प्रवीणजी से पूछा तो उन्होंने उनके बारे में
बताया। थोड़े समय में वे चाय और बिस्कुट लेकर आए।
“लेकिन आपने मुझसे क्यों नहीं कहा, मैं
बना देती” मैंने कहा।
“नहीं, नहीं, आप पहली बार आईं हैं और यह
तो मेरा रोज का काम है।” उन्होंने कहा।
फिर हमारी गपशप चलती रही। केन्द्र
का कार्य, उनका जो हिन्दी सूक्ति कोष हो गया था और हिन्दी शब्द कोष चल रहा था उसके
बारे में, हँसी मजाक भी चल रहा था। आखिर हम जाने के लिए उठे। उन्होंने कहा, “नहीं,
खाना खाकर जाइए।”
मैंने पूछा, ‘खाना कौन बनाता है?’
वे बोले, “है, है, ...हमारी एक लड़की आती
है। दो तीन घरों का काम निपटाकर, वह आएगी।”
हमें छोड़ने का न उनका मन हो रहा था और न ही
हमारा जाने का। हम और बैठे, बाद में खाना खाया। मैंने
पूछा, “आप अपने पैरों का इलाज करवाइए, केरल में अच्छा इलाज होता है।”
उन्होंने कहा, “नहीं, मुझे बुलावा आने के
पहले यह हिन्दी शब्द कोष पूरा करना है। समय नहीं है और काम बहुत बड़ा है।”
मैंने पूछा, “लेकिन क्या हुआ पैरों को?”
उन्होंने सहजतापूर्वक कहा, “घण्टों बैठकर
काम करने के कारण उनकी स्थिति बिगड़ गई है।”
थोड़ी देर बाद भोजन हुआ। फिर से हमने जाने
का प्रयास किया और उनके आग्रह के कारण थोड़ी देर रुक गए। आखिर जब उनसे अनुमति मांगी।
उन्होंने कहा, “हां, कब तक रोकूं, जाना तो होगा ही।” उनकी आत्मीयता से मेरा हृदय
भर आया। पुस्तकों के बीच से राह बनाते जैसे ही हम निकले, मैं उनकी कर्तव्यनिष्ठा
से अभिभूत होकर स्वयं को ही बता रही थी,
“हां, मैंने आज आधुनिक वाचस्पति मिश्र देखा।” उनपर लेख लिखने की तीव्र इच्छा हुई
लेकिन व्यस्तता के कारण रह ही गया। २००९ में उनके निधन के बाद विचार तो था लेकिन
फिर से रह गया। आज जब उनपर लिखी गई पुस्तक मिली तब उनकी फोटो को देखकर सोचा कितनी
भी व्यस्तता क्यों न हो, अब अवश्य लेख लिखूंगी।
एक ही भेंट में शायद ही मैं किसी व्यक्ति
से प्रभावित होती हूं। अब सोचती हूं तो लगता है कि श्याम बहादुर वर्माजी वाचस्पति
मिश्र से थोड़े अलग हैं। वाचस्पति मिश्र पुस्तक लिखते समय उसके साथ इतने एकाकार हो
गए थे कि आस-पास के लोगों का, यहां तक कि उनको अपनी पत्नी का भी भान नहीं रहा और
उन्होंने ‘भामती’ जैसे बेजोड़ ग्रन्थ की रचना की। श्याम बहादुर वर्माजी ने राष्ट्र कार्य
के लिए विवाह ही नहीं किया। संघ के कार्यकर्ता होने के नाते उन्होंने बहुत लोगों
को भी जोड़ा। आत्मीयता से वे सभी से जुड़ते थे लेकिन साहित्य सेवा में भी उतने ही
डूब जाते थे।
ऐसे भारतीय संस्कृति की अनथक, अविरत
उपासना करनेवाली विभूति का जीवनचरित्र मेरी टेबल पर देखकर १२ वर्ष पहले २००६ में
उनसे हुई एकमेव भेंट याद आई। स्वभावतः मैंने उनका जीवन चरित्र एक दिन में पढ़ लिया।
अर्थाभाव के कारण ‘केन्द्र भारती’ का प्रकाशन कुछ वर्ष स्थगित कर दिया गया था। उनको
इसका बहुत दुःख हुआ किन्तु फिर से जब केन्द्र भारती का प्रकाशन शुरू हुआ तो व्यस्तता
के कारण वे इसके सम्पादक तो नहीं बने, परन्तु उनके विशाल हृदय में ‘केन्द्र भारती’
के लिए स्नेह बना रहा, और वे लेख लिखते रहे।
उनकी प्रतिभा देखकर कार्यकर्ताओं के मन
में आता है, यदि उस समय आर्थिक कठिनाई के बावजूद विवेकानन्द केन्द्र की दिल्ली
प्रबंधन समिति ‘केन्द्र भारती’ का प्रकाशन
स्थगित नहीं करती तो श्याम बहादुर वर्माजी के प्रतिभाशाली और समर्पित सम्पादन के
कारण आज ‘केन्द्र भारती’ देश की सुप्रसिद्ध और लोकप्रिय पत्रिका होती अर्थात ‘गतं
न शोच्यते’।
मैंने पूरा २२५ पन्नों का चरित्र एक ही
दिन में पढ़ा। उनके छोटे भाई डॉ.धर्मेन्द्र वर्मा
ने बहुत ही वास्तविक चित्रण पूरे ग्रन्थ में किया है। श्याम बहादुर वर्माजी ने ‘बृहत
हिन्दी शब्द कोष’ का कार्य तो २००९ में देह छोड़ने के पहले पूरा किया लेकिन उसका प्रकाशन
बाद में हुआ।
विवेकानन्द केन्द्र को उनका स्नेह सदैव
प्राप्त हुआ। उनके जैसे आधुनिक वाचस्पति से प्रेरणा केन्द्र कार्यकर्ता भी नित्य
लेते रहेंगे।
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उपाध्यक्षा,
विवेकानन्द
केन्द्र कन्याकुमारी
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