Friday, 5 October 2018

जैसी श्रद्धा वैसा इष्ट

श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है - यो यच्छ्रद्धः स एव सः। अर्थात् जिसकी जैसी/जिसमें श्रद्धा हो वह वही हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है - जैसी रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन देखी तैसी।

श्राद्ध पक्ष में अपने पुरुखों के प्रति श्राद्ध किया जाता है। माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी जीवित हो तो उनका आदर करना भी श्राद्ध ही है। बुजुर्गों के पास बैठकर सेवा-शुश्रूशा करना श्रद्धा प्रकट करने की विधि है।

कुछ दिन पूर्व लोगों ने अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्वीकृत फादर्स-डे और मदर्स-डे को मनाया था। हमारी परम्परा के अनुसार वह एक अश्लील धारणा है। माता-पिता जीवित हैं तो उनका नित्य अभिवादन करना चाहिए। यदि माता-पिता दिवंगत हो गए हों तो क्वार के महीने में श्राद्ध पक्ष में उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त की जाय।

जीवित माता-पिता का अभिवादन करने से आयु, विद्या, यश और बल की वृद्धि होती है -
अभिवादनशीलस्य, नित्य वृद्धोपसेवनात्।
चत्वारि तस्य वर्ऋन्ते, आयुर्विद्या यशोबलम्।।

माता-पिता दिवंगत हो जाते हैं तब श्राद्ध पक्ष में उनके नाम से विद्वानों को भोजन करा कर दक्षिणा दी जाती है। गोग्रास निकाला जाता है। कुत्ते को रोटी दी जाती है। कौए को भोजन कराया जाता है। चींटियों को भी चुग्गा दिया जाता है।

आजकल दान का रूप बदल गया है। निर्धन परिवार के बच्चों-विशेषतया कन्याओं को पढ़ाने का संकल्प किया जाता है। सामाजिक उत्थान के लिए यह एक दिशा दृष्टि है।

याज्ञवल्क्य ने धर्म की परिभाषा करते हुए कहा है - अयं तु परमो धर्मः यद्योगेनात्मदर्शनम्।
सब प्राणियों में योग- दृष्टि से आत्मभाव का दर्शन करना परम धर्म है। आत्मदर्शन कण-कण में हो सकता है।

मगध सम्राट् ने श्राद्ध के लिए ब्राह्मण को भोजन पर बुलाया तो मंत्रियों ने चाणक्य को बुला लिया। चाणक्य बहुत काला था। उसे देखकर सम्राट ने उसकी चोटी खींच कर बाहर निकाल दिया। उसी दिन चाणक्य ने घोषणा कर दी सम्राट धनानन्द को मार कर चोटी बांधूँगा। चाणक्य ने मुरा के पुत्र को चन्द्रगुप्त को भारत का नया सम्राट् बना दिया।
तैत्तिरीय ब्राह्मण में यज्ञ को सर्वश्रेष्ठ कर्म कहा गया है - यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म।

तैत्तिरीय ब्राह्मण की शिक्षावल्ली में कहा गया है - मातृ देवो भव। पितृ देवो भव। आचार्य देवो भव। अतिथि देवो भव। पंचम देव समझ कर गन्य मानना चाहिए - आत्म देवो भव। गीता में कहा गया है - उद्धरेत् आत्मनात्मानं नात्मानभव सादयेत्।

अपना उद्धार स्वयं करे। आत्मा की अवमानना न करे। श्रद्धा का सर्वश्रेष्ठ रूप है - आत्म भाव में श्रद्धा प्रकट करना। मस्तक झुका कर, सीना तान कर आत्म भाव में श्रद्धा प्रकट की जानी चाहिए।

मनु का कथन विश्व के सब प्रकार के तनावों से मुक्त करने वाली औषधि है - यन्मनुरवदत् भैशणं हि तत्।
मनु का कथन है -
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम्।।

यह मेरा है, यह तेरा है - यह छोटे मन वालों का काम है। अहंकार हीन उदार चरित व्यक्ति के लिए तो सारी पृथ्वी ही एक कुटुम्ब है। 
कुछ कर्म श्रेष्ठ हों और कुछ निकृष्ठ हों, ऐसा मानना ठीक नहीं है। कोई भी काम सामने आये उसे समर्पित भाव से पूरा करके अपने इष्टदेव को समर्पित कर देने से वह श्रेष्ठ, भगवत्कर्म और यश हो जाता है और इस तरह काम करनेवाले को आर्य कहा जाता है। भारत आर्यावर्त इसलिए कहलाता है कि इसमें बार-बार आर्य पैदा हो जाते हैं - आर्याः अस्मिन् आवर्तन्ते पुनः पुनः इति।
मानव जाति के इतिहास को भारत की सबसे बड़ी देन परिवार नामक संस्था है जो संसार का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय है, सबसे बड़ा चिकित्सालय है, सबसे बड़ा प्रशिक्षणालय है और सबसे बड़ा साधन केन्द्र भी है। इसमें प्रत्येक सदस्य को अपने दोश दूर करने का अवसर मिलता है - परितः वारयति स्वदोषान् यत्र इति। 
हमारी सनातन परम्परा से द्वेष रखने वालों ने परिवार पर ही लगातार आक्रमण किए। इसका दुष्फल यह हुआ कि देश की आबादी अस्सी वर्ष में चैगुनी हो गई। परिवार में पाँच भाइयों के बीच एक बेटा हो तो वह सबका लाडला होता था। छोटे परिवार के नाम से ‘हम दो - हमारे दो’ की धारणा ने आबादी को बढ़ाया।

परम्परा थी - म्हारो भायो रायाँ को - दूध पिये दस गायाँ को। घर में दस माताएँ हो तो बेटा पैदा करो। कुपोषित माताओं से कुपोषित सन्तान हुई। यो आबादी चैगुनी हुई।

श्राद्ध केवल पुरुखों को याद करना मात्र नहीं है। उनके आदर्शों को अपनाने की भी है। हम पुरुखों के आदर्शों को अपाने की योग्यता खो चुके हैं। देश में गरीबी, भूखमरी का यह कारण है। क्या प्रभू मुर्ति अपने अनुकूल बनाने के लिए भावना में बदलाव नहीं लाएँगे? श्रद्धा का रूप नहीं बदलेंगे?