
वेदोपनिषद
में प्रणव मंत्र ‘ॐ’
को प्रथम स्थान पर पूजने की विधि
बताई गई है। यह ‘ॐ’
कार अ, ऊ और म से मिलकर बना है, इसका तात्पर्य है उत्त्पत्ति,
संवर्धन और लय। अपने यहाँ विनाश
की संकल्पना नहीं है। क्योंकि कुछ भी समाप्त नहीं होता। हमारी संस्कृति में
विसर्जन कहा जाता है अर्थात् विशेषत्व से जिसका सर्जन होता है। इसलिए ॐ विनाश नहीं
करता, वह निर्माण,
संवर्धन और विसर्जन कर पुनः सृजन
करने की शक्ति का स्रोत है। हम महर्षि वेदव्यास की जयंती को ‘गुरु पूर्णिमा’ के रूप में मनाते हैं। महर्षि वेदव्यास ने लक्षावधि
वैदिक ऋचाओं को संकलित और सम्पादित किया, इतना ही नहीं तो उसे उचित ढंग से वर्गीकृत भी किया। ऋग्वेद,
यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के साथ ही भागवत पुराण और
श्रीमद्भगवद्गीता को समाज के लिए लिपिबद्ध किया। उन्हीं की कृपा है कि आज हम भाषा,
ज्ञान, अनुभव और अपनी जिज्ञासा की पूर्ति के लिए जिस
प्रकार की भी सहायता चाहते हैं वह भगवान वेदव्यास द्वारा रचित वेदों और 18 पुराण से प्राप्त होता है।
ॐ
का उच्चारण करते ही हम वैदिक परम्परा से जुड़ जाते हैं। ॐ स्वयं ब्रम्ह का प्रतीक
है, इसलिए विवेकानन्द केन्द्र
ने ॐ को गुरु माना है। गुरु पूर्णिमा के अवसर पर अपने अंतःकरण के संकल्प को गुरु
चरणों में अर्पित कर हम अपने सामाजिक दायित्व को पूर्ण करने की शक्ति प्राप्त कर
सकते हैं। संयम, शुचिता
और धैर्य बहुत आवश्यक गुण है। जिस तरह तुरटी (फिटकरी) दूषित और मटमैले जल को शुद्ध
कर देती है, उसी
तरह इन गुणों को आत्मसात करने से अन्दर का दोष दूर हो जाता है। मनुष्य के जीवन में
ये सारे गुण गुरु की कृपा से ही आते हैं।
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