Wednesday 21 August 2019

देशप्रेम और देशभक्ति

15 अगस्त को हम स्वतंत्रता दिवस के रूप में बड़े उत्साह में मनाते हैं। इस दिन देशभक्ति के गीत के स्वर हर गली, चौराहे, विद्यालय, महाविद्यालय तथा विभिन्न संस्थाओं के कार्यालय में सुबह से सुनाई देते हैं। देशप्रेम के भाव तो सबके भीतर विद्यमान है। वास्तव में मानवीय जीवन में प्रेम को सबसे अधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है। महापुरुषों ने प्रेम की महिमा गाई है। सद्गुरु कबीर साहब ने प्रेमविहीन मनुष्य हृदय के सम्बन्ध में कहा है,

“जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान मसान।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेतु बिन प्रान।।”

स्वामी विवेकानन्द जब साढ़े तीन वर्षों के बाद अमेरिका से भारत लौट रहे थे, तब उनके एक विदेशी मित्र ने पूछा, “स्वामीजी, आप तीन वर्षों तक वैभवशाली देश में रहकर अपने गरीब देश भारत में लौट रहे हैं। अब अपने देश के प्रति आपकी कैसी भावना है?”

स्वामीजी ने बहुत मार्मिक उत्तर दिया जिससे प्रेम और भक्ति की अवधारणा स्पष्ट हो जाएगी।
स्वामी विवेकानन्दजी ने कहा, “पहले तो मैं अपनी मातृभूमि से प्रेम ही करता था अब तो इसका कण–कण मेरे लिए तीर्थ हो गया है।” अर्थात प्रेम से ऊपर का भाव भक्ति है। ‘हिंदी साहित्य का इतिहास” के लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने निबंध “श्रद्धा-भक्ति” में कहा है, “प्रेम का कारण बहुत कुछ अनिर्दिष्ट और अज्ञात होता है; पर श्रद्धा का कारण निर्दिष्ट और ज्ञात होता है।” आचार्य शुक्ल ने आगे कहा कि, “श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है।” इससे स्पष्ट होता है कि समर्पण की भावना का पहला आयाम प्रेम है, उसके बाद श्रद्धा और फिर भक्ति। समर्पण की सर्वोच्च स्थिति “भक्ति” है। इसलिए प्रेम, श्रद्धा और भक्ति की अवधारणा को समझे बिना देशप्रेम और देशभक्ति की संकल्पना को नहीं समझा जा सकता।

यूं तो हमारे मीडिया जगत में देशभक्ति और देशप्रेम की गाथा को बहुत बार दोहराया जाता है। विशेषकर, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में 15 अगस्त और 26 जनवरी, क्रिकेट या युद्ध के दौरान देशभक्तों का गुणगान करने और देशभक्ति जगाने के लिए सिनेमा के गीतों को दिखाने की परम्परा रही है। पर मीडिया में देशभक्ति की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कोई कार्यक्रम नहीं दिखाया जाता।

देशभक्ति के प्रगटीकरण के भी कुछ आयाम होते हैं। क्या इस बात पर हमने कभी अनुसंधान किया है? नहीं। यदि ऐसा होता तो क्रिकेट में जीत के बाद अथवा 15 अगस्त और 26 जनवरी को सड़कों पर डीजे की धुन में हो-हल्ला मचाते, थिरकते युवाओं के असभ्य और अनुशासनहीन कृत्यों को अनुशासित कृति में परिवर्तित करने के लिए कोई अभियान चलाया जाता।

हमारे देश में तो क्रिकेट, युद्ध, 15 अगस्त और 26 जनवरी के दौरान ही देशवासियों की “लिमिटेड देशभक्ति” सड़कों पर भिन्न-भिन्न प्रकार से दिखाई देती है। ऐसा नहीं है कि देशप्रेम अथवा देशभक्ति हमारे नागरिकों में है ही नहीं। निश्चित रूप से देशभक्त, देशप्रेमी अपने जीवन के महत्वपूर्ण समय निराश्रित बालकों के पोषण, स्वस्थ्य और शिक्षा के लिए लगाते हैं। सीमा पर जवान, देश में किसान, समाज में विद्वान् यहां तक कि सफाई कर्मचारी अपने कर्मों के द्वारा भारतमाता की पूजा करते हैं। पर ऐसे समर्पित लोग कभी हो-हल्ला नहीं मचाते। इसलिए देशभक्ति के आयाम को भीहमें समझना होगा।

9 फरवरी, 1897 को मद्रास (चेन्नई) के विक्टोरिया पब्लिक हॉल में “मेरी क्रांतिकारी योजना” नामक अपने व्याख्यान में स्वामी विवेकानन्द ने ‘देशभक्ति’ की तीन सीढ़ियां बतलाई। स्वामीजी ने कहा, “लोग देशभक्ति की चर्चा करते हैं। मैं भी देशभक्ति में विश्वास करता हूं, और देशभक्ति के सम्बन्ध में मेरा भी एक आदर्श है। बड़े काम करने के लिए तीन बातों की आवश्यकता होती है। पहला है – हृदय की अनुभव शक्ति। बुद्धि या विचारशक्ति में क्या है? वह तो कुछ दूर जाती है और बस वहीं रुक जाती है। पर हृदय तो प्रेरणास्त्रोत है! प्रेम असंभव द्वारों को भी उद्घाटित कर देता है। यह प्रेम ही जगत के सब रहस्यों का द्वार है। अतएव, ऐ मेरे भावी सुधारकों, मेरे भावी देशभक्तों, तुम अनुभव करो! क्या तुम अनुभव करते हो कि देव और ऋषियों की करोड़ों संतानें आज पशु-तुल्य हो गयीं हैं? क्या तुम हृदय से अनुभव करते हो कि लाखों आदमी आज भूखे मर रहे हैं, और लाखों लोग शताब्दियों से इसी भांति भूखों मरते आए हैं? क्या तुम अनुभव करते हो कि अज्ञान के काले बदल ने सारे भारत को ढंक लिया है? क्या तुम यह सब सोचकर बेचैन हो जाते हो? क्या इस भावना ने तुमको निद्राहीन कर दिया है? क्या यह भावना तुम्हारे रक्त के साथ मिलकर तुम्हारी धमनियों में बहती है? क्या वह तुम्हारे हृदय के स्पंदन से मिल गयी है? क्या उसने तुम्हें पागल-सा बना दिया है?

क्या देश की दुर्दशा की चिंता ही तुम्हारे ध्यान का एकमात्र विषय बन बैठी है? और क्या इस चिंता में विभोर हो जाने से तुम अपने नाम-यश, पुत्र-कलत्र, धन-संपत्ति, यहां तक कि अपने शरीर की भी सुध बिसर गए हो? तो जानो, कि तुमने देशभक्त होने की पहली सीढ़ी पर पैर रखा है- हां, केवल पहली ही सीढ़ी पर!”

स्वामी विवेकानन्द ने आगे कहा, “अच्छा, माना कि तुम अनुभव करते हो; पर पूछता हूं, क्या केवल व्यर्थ की बातों में शक्तिक्षय न करके इस दुर्दशा का निवारण करने के लिए तुमने कोई यथार्थ कर्तव्य-पथ निश्चित किया है? क्या लोगों की भर्त्सना न कर उनकी सहायता का कोई उपाय सोचा है? क्या स्वदेशवासियों को उनकी इस जीवन्मृत अवस्था से बाहर निकालने के लिए कोई मार्ग ठीक किया है? क्या उनके दुखों को कम करने के लिए दो सांत्वनादायक शब्दों को खोजा है? यही दूसरी बात है। किन्तु इतने से ही पूरा न होगा!” 

उन्होंने कहा, “क्या तुम पर्वताकार विघ्न-बाधाओं को लांघकर कार्य करने के लिए तैयार हो? यदि सारी दुनिया हाथ में तलवार लेकर तुम्हारे विरोध में खड़ी हो जाए, तो भी क्या तुम जिसे सत्य समझते हो उसे पूरा करने का साहस करोगे? यदि तुम्हारे सगे-सम्बन्धी तुम्हारे विरोधी हो जाएं, भाग्यलक्ष्मी तुमसे रूठकर चली जाए, नाम-कीर्ति भी तुम्हारा साथ छोड़ दे, तो भी क्या तुम उस सत्य में संलग्न रहोगे? फिर भी क्या तुम उसके पीछे लगे रहकर अपने लक्ष्य की ओर सतत बढ़ते रहोगे? क्या तुममे ऐसी दृढ़ता है? बस यही तीसरी बात है।” स्वामी विवेकानन्द ने जोर देकर आगे कहा, “यदि तुममे ये तीन बातें हैं, तो तुममे से प्रत्येक अद्भुत कार्य कर सकता है। तब तुम्हें समाचारपत्रों में छपवाने की अथवा व्याख्यान देते फिरने की आवश्यकता न होगी। स्वयं तुम्हारा मुख ही दीप्त हो उठेगा! फिर तुम चाहे पर्वत की कन्दरा में रहो, तो भी तुम्हारे विचार चट्टानों को भेदकर बाहर निकल आयेंगे और सैकड़ों वर्ष तक सारे संसार में प्रतिध्वनित होते रहेंगे। और हो सकता है तब तक ऐसे ही रहें, जब तक उन्हें किसी मस्तिष्क का आधार न मिल जाए, और वे उसी के माध्यम से क्रियाशील हो उठें। विचार, निष्कपटता और पवित्र उद्देश्य में ऐसी ही जबर्दस्त शक्ति है।”

स्वामी विवेकानन्दजी का यह कथन देशप्रेम और देशभक्ति के मर्म को समझने के लिए पर्याप्त सरल है।

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