Saturday, 8 June 2019

योग का वास्तविक प्रभाव कैसे दिखेगा ?

भई, ज्येष्ठ का महीना है और गर्मी का बड़ा ही जोर है। गर्मी के कारण गला सूखता है, और प्यास भी लगती है। हम अपनी प्यास बुझाने के लिए जलस्रोतों की ओर चल पड़ते हैं। जिन क्षेत्रों में पर्याप्त जल है वहां नलों तथा कूपों से बड़ी आसानी से जल मिल जाता है। जबकि अनेक स्थानों पर नदी, तालाब आदि सूखने लगते हैं। पर ऐसे समय में वह नदी, वह जलस्रोत हमें पूजनीय लगता है जो भीषण गर्मी के बावजूद हमारी प्यास बुझाता है। 

सद्गुरु कबीर साहब ने भक्तिभाव के निरन्तर बने रहने के सम्बन्ध में बड़ी मार्मिक बात कही है :-   
भक्ति भाव भादो नदी, सबे चले उतराय।
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय।।
अर्थात् भादो के महीने में तो हर नदी, तालाब लबालब भरे होते हैं; परन्तु ज्येष्ठ माह में प्रत्येक नदी में पानी नहीं होता। वह नदी सराहनीय है जिसमें ज्येष्ठ माह के दौरान भी पर्याप्त जलराशि होती है। उपर्युक्त साखी में भक्तिभाव को भादो नदी कहा गया है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भक्ति भादो के महीने में ही प्रगट होती है, वरन भक्ति की नदी प्रतिपल, निरन्तर, सदैव प्रवाहित होती रहती है। इसलिए अपने भीतर विद्यमान भक्तिभाव का अवलोकन करना आवश्यक है कि वह कब-कब प्रगट होता है? या फिर वह भाव हमारे मन, वचन और कर्म में निरंतन प्रगट हो रहा है अथवा नहीं।         

भारत का विश्व के लिए सर्वश्रेष्ठ उपहार है – “योग”। 21 जून को सारा विश्व “अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस” मना रहा है। भारत में भी सभी राज्यों में बड़े-बड़े मैदान से लेकर छोटे से छोटे प्रांगण में 21 जून को योगासन-प्राणायाम कर इस दिन को बड़े उत्साह और श्रद्धा से मनाया जाता है। इस दिन विशेष बात यह भी होती है कि जो लोग चादर तानकर वर्षभर सोते हैं, वे भी सुबह उठकर योग करते दिखाई देते हैं। ऐसे में क्या लाभ? सिर्फ फोटोबाजी करने के लिए आसन किया जाएगा तो भला शरीर मजबूत कैसे होगा? हमें नियमित आसन-प्राणायाम करना होगा, तभी शरीर और मन शुद्ध होगा।    

फिर सवाल उठता है कि क्या शरीर के स्वास्थ्य, मजबूती अथवा सुगठन के लिए ही योग किया जाना चाहिए या फिर उसके आगे भी कुछ है। जो लोग नित्य रूप से बाग-बगीचे में एकत्रित होकर योगासन करते हैं उनके शरीर, मन, बुद्धि पर निश्चित रूप से सकारात्मक प्रभाव तो पड़ता ही है। पर केवल आसन, प्राणायाम और सूर्यनमस्कार को ही योग समझ लेना सही नहीं है। 

योग के आठ अंग हैं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनमें से प्रारम्भिक दो अंगों का महत्त्व सबसे अधिक है। इसलिए उन्हें सबसे प्रथम स्थान दिया गया है। यम और नियम का पालन करने का अर्थ मनुष्यत्व का सवर्तोन्मुखी विकास है। योग का आरम्भ मनुष्यत्व की पूर्णता के साथ आरम्भ होता है। बिना इसके साधना का कुछ प्रयोजन नहीं। इसलिए यम और नियम को छोड़कर हम केवल आसन और प्राणायाम पर केन्द्रित हो जाएं तो बात नहीं बनेगी। 

यम के पांच आयाम हैं : अहिंसा (अपने विचार, शब्द और कृति से किसी को भी पीड़ा नहीं देना) सत्य (विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, सत्य का पालन) अस्तेय (चोर-प्रवृत्ति का न होना), ब्रम्हचर्य (ब्रम्ह का साक्षात्कार और इन्द्रिय संयम) और अपरिग्रह (आवश्यकतानुरूप संचय)। इसी तरह नियम के भी पांच अंग हैं : शौच (शरीर और मन की शुद्धि), संतोष (संतुष्ट और प्रसन्न रहना) , तप (स्वयं से अनुशासित रहना), स्वाध्याय (आत्मचिंतन करना) तथा ईश्वर-प्रणिधान (ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण)। 

“युज्यते अनेन इति योगः” अर्थात् योग जुड़ने की प्रक्रिया है। आत्मा को परमात्मा से, व्यक्ति को परिवार से, परिवार को समाज से, समाज को राष्ट्र से और फिर समष्टि से जोड़ने की साधना है योग। 

योग के ऐसे अनेक सूत्र हमारे मनीषियों ने दिए हैं। हम आसन को देखकर उसके अनुरूप अपनी स्थिति तो बना सकते हैं, अपने शरीर को स्वस्थ भी रख सकते हैं पर चित्त की शुद्धि, मन की पवित्रता आदि के लिए यम और नियम का पालन तो करना ही होगा। यम-नियम को अपने आचरण का अंग बनाना होगा। तभी विश्व में योग का वास्तविक प्रभाव दिखेगा।