Wednesday, 1 May 2019

ग्रीष्मकालीन अवकाश : संस्कार सिंचन का अवसर

स्कूली बच्चे बहुत प्रसन्न हैं कि परीक्षा समाप्त हो गई है और अब वे सोच रहे हैं कि हम ग्रीष्मकालीन छुट्टी का लाभ उठाएंगे, आनंद लेंगे। वहीं विद्यालय के संचालक गण ‘विज्ञापन का बीज’ बोने लगे हैं ताकि अगले वर्ष अधिकाधिक बच्चों का एडमिशन उनके विद्यालय में हो सके। कुछ विद्यालय में तो गायन, वादन, नृत्य, कराटे, स्केटिंग, चित्रकला आदि कलाओं पर आधारित वर्ग चलाए जाते हैं। अभिभावकों के मन में योजना बन रही होगी कि बच्चों को इस अवकाश में क्या सिखाया जाए? या फिर कहीं घूमने के लिए परिवार सहित जाएं। यह सब स्वाभाविक है।

विद्यार्थी वर्षभर स्कूल के होमवर्क, विविध प्रतियोगिताओं तथा परीक्षा की तैयारी में व्यस्त रहते हैं। इसलिए कम से कम ग्रीष्मकाल के अवकाश में वे चिन्ताविमुक्त होकर आनंदित रहना पसंद करते हैं। स्कूली जीवन की व्यस्तताएं इतनी अधिक है कि स्कूल के पाठ्यक्रम से इतर वे कुछ भी पढ़ नहीं पाते। वहीं गणित, विज्ञान, अंग्रेजी आदि विषयों के ट्यूशन के चलते बच्चों का मैदान में दिखना, मानो दुर्लभ हो गया है। जब बालक मैदान में नहीं खेलेगा तो भला वह मजबूत कैसे बनेगा? कभी अभिभावकों से चर्चा होती है तो उनका जोर केवल बच्चे की मार्कशीट पर ही होता है। हर कोई चाहता है कि उनके बच्चे कक्षा में अव्वल आए और कुछ अभिभावक इतने अधिक महत्वाकांक्षी होते हैं कि देश में उनका ही पुत्र या पुत्री सबसे आगे हो। अभिभावकों का ऐसा सोचना अनुचित नहीं है। फिर इस सोच में कमी किस बात की है, इसपर विचार करना होगा। 

प्रतिस्पर्धा के इस युग में दृढ़ता से खड़े होने के लिए केवल परीक्षा में अव्वल आना ही पर्याप्त नहीं है। बुद्धि के साथ ही शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक बल की आवश्यकता होती है और भावनात्मक रूप से भी मजबूत होना पड़ता है। शरीर, मन, बुद्धि, हृदय और विचार सब एक दूसरे से जुड़े हैं, परस्पर पूरक हैं। इसलिए सर्वांगीण विकास के लिए प्रयत्न करना चाहिए। शरीर स्वस्थ होगा तो प्रत्येक चुनौती से लड़ा जा सकता है। पढ़ने के लिए बैठक क्षमता को बढ़ाना होगा। मन की एकाग्रता के बिना स्मरणशक्ति का विकास नहीं हो सकता। निर्भयता, समझ, आत्मविश्वास और धैर्य बल को प्राप्त किये बिना सफलता भी नहीं मिलती। 

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि, “प्रत्येक आत्मा एक अव्यक्त ब्रम्ह है।” उन्होंने यह भी कहा था कि, “शिक्षा का अर्थ है, - उस पूर्णता की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है।"

ये ‘पूर्णता’ और ‘अभिव्यक्ति’ बहुत गम्भीर विषय है। भला बालक इसे कैसे समझ सकता है? यह प्रश्न हमारे मन में उठना स्वाभाविक है। परन्तु स्वामीजी के उक्त कथन पर हम विचार करते हैं तो प्रतीत होता है कि पूर्णता तो हमारे भीतर है ही, उसे बस अभिव्यक्त करना है। जीवन में ऐसी अनेक समस्याएं या चुनौतियां आती हैं जिसका सामना करना हमारे लिए अनिवार्य होता है, और नियति हमसे वह करवा भी लेती है। अतः आवश्यक है कि अपनेआप को जानना, अपनी क्षमताओं को पहचानना और उसे निरन्तर विकसित करना, इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता निहित है। फिर प्रश्न उठता है कि क्या बालकों का सर्वांगीण विकास संभव है? इसका उत्तर है- “हाँ। सम्भव है।”

बालकों का सर्वांगीण विकास उनके आयुनुसार, उनकी रुचिनुसार और उनकी आवश्यकता के अनुसार किया जा सकता है। विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी की देशभर में फैली शाखाओं के माध्यम से विद्यालयीन बाल-बालिकाओं के लिए संस्कार वर्ग चलाए जाते हैं। संस्कार वर्ग में प्रार्थना, स्तोत्र पठन, देशभक्ति गीत, योग-सूर्यनमस्कार, मैदानी खेल, कथाकथन और प्रति सप्ताह एक छोटा, किन्तु महत्वपूर्ण संकल्प का समावेश होता है जो विद्यार्थियों के मानसपटल पर अमिट छाप छोड़ते हैं। इस ग्रीष्मकालीन अवकाश के समय में देशभर केन्द्र की सभी शाखाओं के माध्यम से छात्र-छात्राओं के लिए व्यक्तित्व विकास शिविर, संस्कार वर्ग प्रशिक्षण शिविर, युवाओं के लिए युवा प्रेरणा शिविर आदि का आयोजन किया जाता है। इन शिविरों में साहस, आत्मविश्वास, धैर्य, अनुशासन, सदाचार, देशभक्ति आदि गुणों के सिंचन के लिए व्यवस्थित पाठ्यक्रम और दिनचर्या बनाई जाती है। हजारों विद्यार्थी इस शिविर में सहभागी होते हैं। महापुरुषों के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को गढ़ने का यह स्वर्णिम अवसर होता है। अतः विवेकानन्द केन्द्र का आह्वान है कि इन शिविरों तथा संस्कार वर्ग में अपने-अपने नौनिहालों को सहभागी होने के लिए प्रेरित करें, उन्हें भेजें।