Monday 4 June 2018

समरसता

मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः अर्थात् बन्धन और मोक्ष का कारण मन है। यह श्रीमद्भगवद्गीता का वचन है। वहीं यह भी कहा गया है कि मन को वश में करना बड़ा कठिन है पर अभ्यास और वैराग्य से मन को जीता जा सकता है। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।

मन की तीन वृत्तियाँ हैं - इच्छा, ज्ञान और क्रिया। ये मिलकर एक रस हो जाए तब समरसता पैदा होती है। महाकवि जयशंकर प्रसाद ने कहा है - समरस थे जड़ और चेतन आनन्द अखण्ड घना था।

कामायनी में उनका आनन्द दर्शन विशद् रूप में प्रकट हुआ है। उसमें इच्छा, ज्ञान और क्रिया - मन की तीनों वृत्तियाँ मिलकर एक हो जाती हैं। ये समरस न हों तब तक आनन्द की सृष्टि नहीं हो सकती। तीनों वृत्तियाँ समरस हो जावें, तब मन विज्ञानमय कोश में आत्मसात् हो जाता है। विवेक का उदय होता है। आनन्दमय कोष में अखण्ड आनन्द की अनुभूति होती है।

सुख-दुःख की परिभाषा की गई - अनुकूलवेदनीयं सुखम्; प्रतिकूल वेदनीयं दुःखम्।
 
शरीर प्रकृति से बना है। उसमें समता-समानता नहीं होती। हाथ की पाँच अँगुलियाँ तक समान नहीं होतीं। चार अँगुलियाँ और अँगूठे में समरसता होती है।

परिवार के सब लोग एक-दूसरे के पूरक बनकर, परस्पर मदद करते हैं। मदद ही नहीं करते एक-दूसरे की उन्नति में सहायक भी होते हैं। वेद का वचन है - उद्-यानम् ते नावद्रव मानम् अर्थात् हे मनुष्य तुम्हारे लिए केवल ऊपर जाने का मार्ग है, उन्नति का मार्ग है न कि अद्योगति का।

परिवार का बड़ा रूप समाज होता है। जिसमें लोग साथ-साथ गति करें उसे समाज कहा जाता है - समं अजन्ते इति समाजः। मनु ने कहा है कि यह मेरा है, वह तेरा है - यह छोटी बुद्धिवाले सोचते हैं। उदारचरित व्यक्तियों के लिए तो वसुधा ही कुटुम्ब के समान है।
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।   (मनुस्मृति)

संसार भर के मनुष्य, एक ही मनुष्य जाति के हैं जिनका धर्म मानवता है। एक शब्द और है - जाति जिसे बोलचाल में न्यात कहा जाता है। जाति वह जिससे व्यक्ति की पहचान होती है। सोने का काम करे वह स्वर्णकार, चमड़े का काम करे वह चर्मकार, लोहे का काम करे वह लौहकार, लकड़ी का काम करे वह वर्द्धकि, कपड़े धोने का काम करे वह धोबी, घड़ा बनाए वह कुम्भकार (कुम्हार)। समाज के ये सभी लोग समरसतापूर्वक एक दूसरे की आवष्यकता की पूर्ति करते हैं। यह परिवार से बड़ा संगठन है।

भारत कृषिजीवी लोगों का देश है। कृषि सामूहिक श्रम का क्षेत्र है। इसमें अनेक मानवीय सम्बन्धों का विकास होता है और उन सम्बन्धों की पवित्रता की रक्षा भी की जाती है। यह सामाजिक समरसता का प्रमाण है। जाति और जाति का अन्तर न समझने के कारण हमारे प्रगतिशील लोग जाति-पाँति तोड़ने के लिए कटिबद्ध होकर बैठे हैं। भारत के सामाजिक ढाँचे को न समझने के कारण ऐसा होता है। जाति को गाली देने का अर्थ है - जन्मदात्री माता को गाली देना। जाति को तोड़ने का अर्थ है - सामाजिक समरसता को तोड़-मरोड़ कर नष्ट करना। दोनों ही अपराध हैं।

वेद का वचन है - कृषिमित् कृशस्व मादीन्यत् अर्थात् खेती ही करो जीवन को जुआँ मत बनाओ। लोक में भी प्रसिद्ध है - उत्तम खेती, मध्यम वणिज, अधम चाकरी। आज भारतीय समरसता की जीवन पद्धति को भूल जाने के कारण लोग नौकरियों के लिए गलकांट होड़ लगा रहे हैं। राजनीतिक दल नौकरियाँ बाँटने के नाम पर उनको बहका रहे हैं। वे आसानी से बहकावे में आ जाते हैं। भारत को सुनागरिकों का देश बनाना है अथवा नौकरों का देश बनाना है - इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। मानवीय श्रम का सौदा बन्द होना चाहिए।


Subscribe Online     or      Get Online eMagazine