भारत धर्म प्राण और आध्यात्मनिष्ठ देश है। यहाँ केवल श्वास लेने निकालने को जीवन नहीं माना जाता। भारत ने मानव जाति को परिवार नामक संस्था दी है। परिवार संसार का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय है, सबसे बड़ा चिकित्सालय है, सबसे बड़ा प्रशिक्षणालय है और सबसे बड़ा साधना केन्द्र भी है। परिवार में सभी सदस्यों को अपनी ओर से दोष निवारण करने का अवसर मिलता है। परितः वारयति स्वदोषान् यस्मिन् इति।
परिवार में साधनामय जीवन जीने का खुला अवसर होता है। परिवार एक अनुशासित संस्था होती है। इसमें अपने-पराये का भेद मिट जाता है। उदार चरितता का विकास होता है और वसुधा को कुटुम्ब मानने का शुद्ध आधार बनता है -
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।
-मनुस्मृति
वेद के अनुसार प्रत्येक जन्म लेने वाला ऋण स्वरूप होता है - ऋणं ह वै जायमानः। मानवी माता से पैदा होने वाला ऋण मानव होता है। ब्राह्मणी माता से ऋण ब्राह्मण] क्षत्रिया माता से ऋण क्षत्रिय] वैष्य माता से ऋण वैष्य और षूद्र माता से पैदा होने वाला ऋण शूद्र पैदा होता है।
इनमें से प्रत्येक को ऋण से धन बनना होता है। ऋण से धन बनने की प्रक्रिया मानव जीवन की सबसे बड़ी साधना होती है। जो ऋण से धन बनने की साधना करे उसको धन्य कहा जाता है।
मनुश्य सदा मनुश्य नहीं होता। मनुष्य बन जाने पर भी उसे पद पद पर मनुष्य होने का प्रमाण देना पड़ता है। यदि किसी ऐतिहासिक मोड़ पर] जहाँ उसे मनुष्योचित आचरण करना चाहिए] वैसा आचरण नहीं करता तो उसकी मानवी साधना अधूरी कही जायगी।
सामान्य बोलचाल में भी कहा जाता है - सिधि चाल्या साहब ! (सिद्धि के लिए जा रहे हो श्रीमन् !) वेद में कहा गया है –
मधुमन्मे आक्रमणं मधुमन्मे निक्रमणम् ।
अर्थात् मेरा घर से निकलना और घर में आना मधुमय हो। ऐसा साधना से ही संभव हो सकता है। साधना से सिद्धि मिलती है।
साधना के लिए साधन आवश्यक होते हैं( पर साधन बाहरी साधन हैं। साधना में सिद्धि पाने के लिए साध (उत्कट चाह) होना आवश्यक है। वह साध ही लक्ष्य सिद्धि करने वाला संकल्प बन जाता है। उसी को सिद्ध करके मनुष्य अपने मनुष्य होने का प्रमाण देता है।
परिवार घर होता है। वह साधना मन्दिर भी होता है। उसे वटवृक्ष की तरह माना गया है। उसमें सबको प्रवेश करने का अधिकार होता है। उसी में साधना करके मनुष्य पूर्ण मनुष्य बनता है।