राष्ट्र शब्द ‘नेशन’ का समानार्थ नहीं है। हिन्दी में दो अलग-अलग अर्थों के वाचक राष्ट्र शब्द प्रचलित हैं। एक शब्द राज् धातु से बना हुआ शब्द है - राज-दीप्तौ़त्र प्रत्यय त्र अतिशय प्रकाशमान्, द्युतिमान्, दीप्तिमान। यह दीप्ति मनुष्य में पैदा होती है। वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहितः - वेद की उक्ति है - हम राष्ट्रभाव में जागरूक होकर अग्रणी बनें।
जब व्यक्ति में सच्चरित्र और विचारों में सत्त्व गुण का उद्रेक होता है तो वह दीप्तिमान् हो जाता है। उस समय उसे राश्ट्र कहा जाता है। ऐसे कई राष्ट्रसंज्ञर्क व्यक्ति जहाँ रहते हैं वह भूमि भी राष्ट्र कही जाती है। महर्षि पतंजलि ने सत्त्व गुण का लक्षण लिखा है - सत्त्वं लघु प्रकाशकम्। सात्त्विक गुण ही व्यक्ति को राष्ट्र बनाता है। यह राष्ट्र संज्ञक दीप्ति चारित्रि दीप्ति के रूप में भी पहचान बनाती है। इस सदीप्ति से सम्पन्न व्यक्ति ही इस देश के वे अग्रजन्मा होते हैं जो संसार के लोगों को अपने-अपने चरित्र की शिक्षा दिया करते हैं –
एतद्देशेप्रसूतस्य सकाशाद ग्रजन्यनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्याः सर्वमानवाः ।।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्याः सर्वमानवाः ।।
(मनु स्मृति)
भारत का अर्थ है - प्रकाश में लीन - भायांरतः। जो प्रकाश में लीन होगा वह द्युतिमान् तो होगा ही।
दूसरा राष्ट्र शब्द रा-दाने धातु से ष्ट्रन् प्रत्ययपूर्वक बनता है। इसका अर्थ है - अतिशय दानशील, अतिशय त्यागषील। भारत को त्याग भूमि कहा जाता है और संसार की अन्य भूमियों को भोगभूमि। जीवन जीने की दो ही पद्धतियाँ होती हैं। पहली शैली यज्ञयोगमयी शैली है। अभी-अभी संघ प्रमुख माननीय मोहन भागवत ने कहा है कि हिन्दू जीवन शैली है। भोगमय जीवन हिन्दुत्व की पहचान नहीं है।
हिन्दू वस्तुतः हिन्धु शब्द है - हियं द्युनोति इति - जो अपने भीतर की जड़ता को दूर भगावे वह हिन्धु होता है। विप्र शब्द का अर्थ भी अपने भीतर की जड़ता को कैपा कर दूर भगाने वाला है - वेपति इति। इसी के आधार पर कहा गया है -
जन्मना जायते विप्रः संस्कार् द्विज उच्यते ।
‘ऋणं ह वै जायमानः’ उक्ति के अनुसार मानवी माता से ऋण मानव, ब्राह्मणी माता से ऋण ब्राह्मण, क्षत्रिया माता से ऋण क्षत्रिय, वैष्य माता से ऋण वैष्य और शूद्र माता से ऋण शूद्र पैदा होता है। इनमें से प्रत्येक को धन मानव, धन ब्राह्मण, धन क्षत्रिय, धन वैष्य और धन शूद्र बनना पड़ता है। इसी से ये सब धन्य होते हैं।
इसी तरह व्यक्ति प्र-ज - प्रकृष्ट जन्मा बने तो प्रजातंत्र सफल होगा। जन नया जन्म लेने में सक्षम हो तो जनतंत्र बनेगा। अवलोकनक्षम बनने पर लोकतंत्र सफल होगा और गणमान्यों से गणतंत्र सफल होता है। नागरिक कुछ भी न बनने की स्थिति में हो तो कोई भी तंत्र सफल नहीं होगा। जिम्मेदार नागरिक ही राष्ट्र बनकर राष्ट्र संज्ञा को सार्थक बनाते हैं। मातृभूमि को राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने सर्वेशर की सगुण मूर्ति कहा है।
अथर्ववेद में कहा गया है - माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः। ऋग्वेद में कहा गया है - उप सवर्प मातरं भूमिम्। भूमि की उपासना को भौम ब्रह्म की उपासना कहा गया है। भौम ब्रह्म की उपासना करने वाला राष्ट्राराधन के पुण्य का भागी बन जाता है।