भारत की
सनातन परम्परा में प्रत्येक साधक की पहली चाह होती है - जगने की,
जागरूक रहने की। यजुर्वेद में इसी चाह को शब्द दिए
गए हैं - हम राष्ट्र में पुरोहित बन कर जागें - वयं राष्ट्रs जागृयाम पुरोहिताः।
राष्ट्र का अर्थ होता है
- प्रकाशमान्, द्युतिमान,
दीप्तिमान्। श्रेष्ठ आचार और विचार से जीवन में
सत्त्व गुण का उद्रेक होता है तब मनुष्य
में प्रकाश प्रकट होता है। ‘सत्त्वं लघु प्रकाशकम्’ - सत्त्वगुण स्फूर्ति और प्रकाश पैदा करता है। तब व्यक्ति प्रकाश पुंज - राष्ट्र बन जाता है।
ऐसे
व्यक्तियों का समूह भी राष्ट्र होता है और वे जहाँ रहते हैं वह भूखण्ड भी राष्ट्र बन जाता है। भारत-भा-रत = प्रकाश में लीन है। भारत शब्द राष्ट्र का पर्याय है। यह राष्ट्र शब्द राज-दीप्तौ धातु से बनता है। इस नाम की सार्थकता तभी है जब प्रत्येक
व्यक्ति राष्ट्र बने - राजा बने। प्रत्येक माता अपने बेटे को ‘राजा बेटा’ बनाना चाहती है -
बेटी को ‘रानी बेटी’
बनाता चाहती है।
माता
संस्कार दात्री होती है। इसलिए उसमें यह क्षमता होती है कि वह अपनी सन्तान को
प्रकाशमान्-प्रकाशमती बना दे। इसीलिए माता महीयसी होती है। वाल्मीकि ने कहा है -
जननी जन्मभूमिष्च स्वर्गादपि गरीयसी ।
राष्ट्र संज्ञक नागरिक जब
भूखण्ड को राष्ट्र संज्ञा प्रदान करते हैं तो उसके निकट से निकट होने की साध एक मंत्र में
प्रकट की गई है - उप सर्प मातरम् भूमिम्। अथर्ववेद के पृथिवीसूक्त में कहा गया है
- माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः - भूमि माता है और मैं पृथिवी का पुत्र हूँ।
मैथिलीषरण गुप्त ने कहा था -
हे मातृभूमि ! तू सत्य ही, सगुणमूर्ति सर्वेश की ।
भूमि की
उपासना को भोंम-ब्रह्म की उपासना कहा गया है।
भारत को
त्यागभूमि कहा जाता है और भोगभूमियों से उसे पृथक् माना गया है। भारतवासी
त्यागपूर्वक ‘भोग त्यक्तेन
भुंजीथाः’ में विश्वास करते
हैं। इसके लिए दूसरा राष्ट्र शब्द है - रा-दाने धातु से बहुलार्थक = या ष्ट्रन् प्रत्यय से बना हुआ है। राज-धातु से बने
हुए राष्ट्र शब्द से यह नितान्त भिन्न है - इसी कारण अर्थ भिन्न है।
ये दोनों राष्ट्र शब्द अलग-अलग अर्थ
के वाचक हैं। डा. फतहसिंह का कहना है कि जिनकी रीतियाँ समान हों उस मानव-समुदाय को
राष्ट्र कहा जाता है। ‘अराति’ उसे कहा जाता है
जो दूसरे संगी-साथियों को उनका प्राप्य नहीं देता - न राति स अरातिः ।
भारत की
भिन्न प्रकार की एक पहचान और है - वह है - जहाँ कृष्णसार - कस्तूरी मृग
निद्र्वन्द्व होकर विचरते हों - कस्तूरी जैसी महंगी गन्ध को प्राप्त करने के लिए
उनको मारा न जाता हो - वह भारतवर्ष है अर्थात् नितान्त निर्लोभवृत्ति के लोग जहाँ रहते हों वह है भारतवर्ष।
विष्णु
पुराण में कहा गया है कि जिसके गीत देवता भी गाते हैं और स्वर्ग-अपवर्ग से
महत्त्वपूर्ण जिस भूमि में अमरत्व छोड़कर देवता भी जन्म लेने को लालायित रहते हैं -
वह है भारतवर्ष।
गयन्ति देवाः किल गीतिकानि धन्योऽयं भारतभूमिः भागः।
स्वर्गापवर्गास्पद मार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषा सुरत्त्वात् ।।
वर्षं तद्भारतं ज्ञेयः भारती यस्य सन्ततिः।
मनु के
अनुसार यह भारत पूर्व समुद्र (प्रशान्त महासागर) से पश्चिम सागर (भूमध्य सागर,
कृष्ण सागर, लाल सागर और मृत सागर का संयुक्त रूप) तक विस्तीर्ण है। उदयाचल पर्वत (प्रशान्त
महासागर का तट) से अस्ताचल तक (सिनाई प्रायद्वीप के टेरेसाँ पर्वत तक फैला हुआ है।
इसी के लिए जयशंकर प्रसाद ने कहा है -
हिमालय के आँगन में जिसे प्रथम किरणों का दे उपहार,
उशा ने हँस अभिनन्दन किया और पहनाया हीरक हार ।
इस विराट्
राष्ट्र में एक अखण्ड
परिवार रहता है। भाशा भले ही भिन्न-भिन्न बोलते हों, धर्म-आचार-पद्धतियाँ भले ही पृथक्-पृथक् हों; अलग-अलग क्षेत्रों में भले ही बसते हों, विचार भले ही पृथक् पृथक् हों - पर, है यह एक अखण्ड परिवार। सब प्रकार के मतभेदों से ऊपर उठकर - एक होकर जीने
का मार्ग हमने खोज लिया है।
अपने-पराये
के भेद को भूलकर उदारचरित बन कर वसुधा को कुटुम्ब बनाकर जीने का अभ्यास भी हमने
किया है -
अयं निजः परो बेति गुणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।
(मनुस्मृति)
धर्मप्राण
भारत ने याज्ञवल्क्य के इस कथन को माना है -
अयं तु परमो धर्मः यद् योगेन आत्मदर्शनम् ।
(याज्ञवल्क्य स्मृति)
सब प्राणियों
में, कण-कण में आत्म-साक्षात्कार करने की
विधि हमने खोज ली है। हम सृष्टि संवत् 1974927118 को स्मरण करते रहते हैं। सब वेद से प्रसिद्ध होता है - यह भी हम जानते
हैं - वेदात् सर्वं प्रसिद्ध यति। वेद ही अखिल धर्म का मूल है। इसीलिए यह वेदभूमि
है।
परिवार संसार
का सबसे बड़ा विष्वविद्यालय है। सबसे बड़ा चिकित्सालय है। सबसे बड़ी पाठशाला है। इसका
निर्माण गृहिणी करती है - गृहिणी गृहम् उच्यते। मनुस्मृति के इस कथन का वैदिक आधार
है - जायेदस्तम् - जाया इत् अस्तम् = जाया ही घर है। नारी की सुरक्षा और सम्मान परिवार में संभव है। परिवार
में हर सदस्य को अपने दोषों को दूर करने की छूट होती है - परितः (नि-) वारयति स्व
दोषान् यस्मिन्। परिवार नामक संस्था को सुरक्षित रखने से ही भारत राष्ट्र सुरक्षित
है।
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