हमारा जीवन अर्थपूर्ण और उद्देश्यपूर्ण होना चाहिए। वह उद्देश्य है हमारी मातृभूमि की सेवा करना, राष्ट्र को सशक्त और जगदगुरु भी बनाना। हमने, माननीय एकनाथजी की जन्म शताब्दी के अवसर पर तीन दिवसीय शिविर में, इस बिन्दु पर विचार-विमर्श कर लिया है। अब हम सबको इस संदेश को हमारे संबंधित स्थानों तक ले जाना है और उस समाज को सुसंगठित बनाने के लिए कार्य करना है।
हमें अपने जीवन में, केन्द्र प्रार्थना में उल्लिखित समस्त गुणों को अपने हृदय में बिठा लेना चाहिए। आओ, हम में से प्रत्येक व्यक्ति, इसे करने का पूर्ण प्रयास करें। ताकि अगली बार जब हम मिलें, हमारी गतिविधियाँ हमारे समाज में प्रसारित हो जाएँ और स्वामीजी का संदेश वास्तविकता प्राप्त कर लेना चाहिए।
अनंतकाल से, भारत ने, त्याग और सेवा - इन दो आदर्शों को सदैव अपने सम्मुख रखा है। त्याग तभी सार्थक होता है जब वह सेवा से जुड़ा हो। हमारे प्राचीन शास्त्रों ने हमें इस श्लोक द्वारा अमरत्व का मार्ग दिखाया है ‘त्यागेन एकेन अमृतत्वम् अनुशुः’ पश्चिमी संस्कृति ने सिखाया है कि भोग महत्त्वपूर्ण है और भोग के लिए प्रत्येक वस्तु का व्यय किया जाता है। हमारी संस्कृति ने हमें सिखाया है कि, त्याग के पश्चात् ही भोग पर हमारा अधिकार होता है। एक कार्यकर्ता को, समाज की अच्छाई के लिए, अपनी ऊर्जा और अपने समय का उपयोग करने में समर्थ होना चाहिए। उसे उन गतिविधियों में अपना समय व्यर्थ नहीं गवाँना चाहिए जो निरर्थक हैं अथवा जिनमें उसकी व्यक्तिगत रुचि है। उसे समाज के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण भी विकसित करना चाहिए। उसे पूर्ण रूप से आश्वस्त होना चाहिए कि समाज धीरे-धीरे एक आदर्श समाज में विकसित हो जाएगा। समाज की नेकनामी उसे पूर्ण संतुलित रखती है और यही वास्तविक धर्म है।
प्रत्येक व्यक्ति को, अपने में, दूसरों को अच्छा बनने में सहायता देने की आदत को विकसित करना चाहिए और उनमें कोई दोष होने पर, उन पर दोषारोपण नहीं करना चाहिए। निम्नांकित विभिन्न गुणों को विकसित कर सार्थकता का उन्नयन किया जा सकता है जैसे - ईश्वर में श्रद्धा, निर्भयता, पवित्रता और सत्य, अनाशक्ति, करुणा, संतोश, सहभागिता, बुद्धिमता, कृतज्ञता, क्षमा, धैर्य, स्वीकार्यता, उत्कृटता, विनम्रता, साहस, परिवर्तन शीलता आदि।
केन्द्र के प्रत्येक कार्यकर्ता को इन सभी गुणों को साकार रूप प्रदान का प्रयास करना चाहिए। इससे उसका जीवन सार्थक बनेगा और मातृभूमि समर्थ बनेगी।