मैथिली शरण गुप्त ने कहा - अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी। आँचल में दूध और
आँखों में पानी। स्त्री को अबला कहना पाप है। जिसके आँचल में दूध है - मानवता का
पोषण करने के लिए और आँखों में पानी है - मूर्तिमती करुणा बनने के लिए - वह
अबला कैसे हो सकती है। अरबी में अ सर्वोत्तम वाचक उपसर्ग है। उसके आधार पर अबला का
अर्थ होगा - सर्वोत्तम बलवती। शhल ही स्त्री का आभूषण है। इसलिए
सर्वोत्तम शीलवती अर्थ भी हुआ।
वह कन्या
रूप में काम्या है, माता रूप में स्वर्ग से भी अधिक गरिमामयी है - जननी जन्मभूमिश्च
स्वर्गादपि गरीयसी; कुलवधू के रूप में वह पारिवारिक दायित्व निभाने वाली है; महिला के रूप में उत्सव की जन्मभूमि
(महस्य इळा) है - जीवन को अपनी उपस्थिति से उत्कृष्ट यज्ञ का स्वरूप प्रदान करने
वाली है।
उसको
जयषंकर प्रसाद ने ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ कह कर गरिमा प्रदान की है। डाॅ. रामानन्द तिवारी ने कहा है - केवल श्रद्धा
ही नहीं, शक्ति भी नारी। गोस्वामी तुलसीदास ने रामवल्लभा सीता
को उद्भवस्थितिसंहारकारिणी और क्लेशहारिणी कहा है -
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्
। स्र्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं राम वल्लभाम् ।।
(रामचरित मानस)
ब्राह्मण
ग्रन्थों में कहा गया है - अयज्ञियो ह वै एष यो
अपत्नीकः। श्रद्धा पत्नी सत्यो ह वै यजमानः। श्रद्धा और सत्य को उत्तम जोड़ा कहा गया है। कालिदास और तुलसीदास ने पार्वती
और शिव को संसार के माता पिता कह कर वन्दना की है -
जगतः पितरौ वन्दे पार्वती-परमेश्वरौ ।
ऋग्वेद के
आम्भृणी-सूक्त में वाग्देवी स्वयं को ‘राष्ट्री’ कहती है - अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम्। राष्ट्री का अर्थ प्रकाशमती। साथ ही उसे धरती को वसने योग्य बनाने वाले वसुओं की संगमनी कहा है।
वेद में
उक्ति है - जायेदस्तम् = जाया इत् अस्तम् = जाया ही घर है। मनु ने इसी के आधार पर
कहा है - गृहिणीगृहम् उच्यते। घर परिवार का निर्माण करना उसके श्रम की सफलता और
सार्थकता है। इसमें वह अपने सहचर - पति का सहयोग लेती है। दोनों मिलकर समर्पित भाव
से परिवार का पालन करते हैं इसलिए दम्पती कहलाते हैं। दमसय पतिः पालनकर्तारौ
इति दम्पती।
परिवार
संसार का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय है, चिकित्सालय है, प्रशिक्षण केन्द्र है और साधना भूमि है जिसमें प्रत्येक सदस्य को अपने दोषों को निवारित करने का पूरा अवसर मिलता है - परितः वारयति स्वदोषान् यस्मिन्
स परिवारः। दाम्पत्य जीवन अपनाते हुए पति-पत्नी परिवार का प्रबन्धन बड़े कौशल से करते हैं। उनके श्रम को सार्थकता प्रदान करने के लिए देवता भी उनके
सखा बन जाते हैं। बिना परिश्रम करके थके देवता सखा नहीं बनते -
न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः। (ऋग्वेद)
पारिवारिक
दायित्व वहन करने के लिए ही विवाह संस्कार किया जाता है। बोळ्हा (वोढा) वर और वधू
मिलकर दम्पती बने। दाम्पत्य के लिए कन्या ही वर का वरण करके वधू बनती है। पुरुष को वरण करने का अधिकार नहीं है। दम्पती को सन्तान-परम्परा का निर्वाह भी
करना पड़ता है। सन्तान को संस्कार देने का काम माता करती है और अनुशासित करने का
काम पिता करता है। आचार्य आचरण की शिक्षा देता है। बालक से इसीलिए कहा गया है -
मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव।
जीवन में
सतत ताजगी बनाये रखने के लिए जीवन को उत्सव बनाने का विचार पनपा। भारत में वर्ष भर में प्रतिदिन को उत्सव बनाकर जीने का विधान है। कुछ उत्सव ऋतु-परिवर्तन
से सम्बंद्ध होते हैं, कुछ मानवीय सम्बन्धों की घनिष्ठता और पवित्रता से सम्बद्ध हैं। कुछ उत्सव
जीवन को संस्कारित करने वाले हैं तो कुछ श्रम निष्ठ जीवन के अंग। कुछ
कला-साधना से सम्बद्ध होते हैं। कुछ उत्सव धार्मिक आचरण से सम्बद्ध होते हैं।
महाभारत
के अनुसार उत्सवों से गणराज्यों का परिचय मिलता है - गणान् उत्सव संकेतान्। होली
आमीर गणराज्य का उत्सव था जिसने राष्ट्रीय रूप ग्रहण कर लिया। दीपावली वैश्य
गणराज्य का उत्सव था। उसने भी राष्ट्रीय रूप ग्रहण कर लिया। कृषि जीवन के
त्योहार अक्षय तृतीया, मकर संक्रान्ति आदि हैं। रक्षाबन्धन में बहिन भाई की कलाई में रक्षासूत्र
बाँध कर उसको वेद, धर्म, राष्ट्र, भाषा और संस्कृति की
रक्षा करने का व्रत दिलाती है। शिक्षण संस्थाओं में गुरु शिश्य को विद्यारम्भ
और वेदारम्भ संस्कार करता है।
सभी
उत्सवों में महिलाओं की विशेष भूमिका होती है। अपने दाम्पत्य सम्बन्धों को सुदृढ़
करने के लिए महिलाएँ शिव, विष्णु, दुर्गा, राम, कृष्ण, कुलदेवताओं का पूजन करती है। गोमाता, गंगामाता, तुलसीमाता आदि का पूजन करती हैं। पति के सुदीर्घ जीवन की कामना के लिए वह
कई व्रत और कथाओं का सहारा लेता हैं। अष्ट सौभाग्यवती व्रत करती है। कामना करती है
कि उसकी अन्तिम सांस सौभाग्यवती के रूप में ही निकले।
कई व्रत कष्टदायक
होते हैं। संकष्टी चतुर्थी, ऊभछठ, करवाचैथ आदि के व्रत निर्जल उपवास के
रूप में किए जाते हैं। अपने पति की दीर्घायु की कामना से ये व्रत किए जाते हैं।
दीर्घायु के लिए एकादशी, प्रदोष, शिवरात्रि, पूर्णिमा, तीज, सोमवती
अमावस आदि के व्रत भी किए जाते हैं। भाई दीर्घायु के लिए वह भैयादूज का व्रत करती
है। पुत्र की दीर्घायु के लिए पुत्रजीवन्तिका व्रत करती है।
संसार के
कल्याण की कामना के लिए वह कार्तिक स्नान, माघ स्नान का व्रत लेती है। तीर्थाटन करती है। कथा-श्रवण करती है। सीता के
नित्य प्रति स्नान करने से गोदावरी का जल पवित्र होने की स्मृति कालिदास जगाते
हैं। पार्वती की माता मेना को उन्होंने मुनियों की भी माननीय कहा था - मेनां
मुनानामपि माननीयाम्।
नारी का
सम्पूर्ण जीवन लोक कल्याण के लिए समर्पित होता है। इसीलिए मनु ने कदाचित् कहा है -
न स्त्री स्वातंत्र्यम् अर्हति। जीवन का क्षण-क्षण वह लोक कल्याण के लिए
समर्पित कर देती है। वह प्रथम पूजनीय है। मनु ने कहा है कि जहाँ नारी का पूजन होता
है वहाँ देवता भी रमण करते हैं -
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
मर्यादा पुरुषोत्तम
राम ने शबरी को तुलसी के शब्दों में भामिनि (प्रकाशवती) और वाल्मीकि
के शब्दों में महान्त्रमणा कहा है। पोषक पिता जनक ने
सीता के लिए कहा है - यदि पवित्रता की कोई परिभाषा करनी हो तो सी और
ता शब्द कह दीजिए। राम ने अश्वमेध में सीता सामने न होने के कारण उसे
स्वर्ण मूर्ति के रूप में प्रतिष्ठपित किया था।
लीला
पुरुशोत्तम श्री कृष्ण की राधा के बिना कल्पना ही नहीं की जा सकती। शिवाजी को संस्कार
प्रदान करने वाली माता जीजा बाई और महाराणा प्रताप की माता जैमन्ता देवी और
उदयसिंह की पन्ना धाय के नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे गए हैं। ईसा के
साथ माता मरियम का नाम भी स्मरणीय माना जाता है। शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि
की लोरी देने वाली माता मदालसा और अत्रिपत्नी अनसूया के नाम भी चिरस्मरणीय है। असुरों
का संहार करने वाली देवी शक्तियों ने स्त्री का रूप बना कर ही अपना कार्य संपादित
किया। रक्तबीज को मारने के लिए चण्डिका भी बनी।