जीवन में एकरसता के कारण मानसिक तनाव और अनेक प्रकार के रोगों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। इसलिए आवश्यक है कि इस समस्या का समय रहते समाधान खोजा जाय। समरसता इस समस्या का समाधान है।
नित्य टी.वी. और लेपटाप के सामने देर रात तक
आँखें गड़ाये रखना, देर से सोना और देर से उठना, इसके
बाद भागते-दौड़ते दफ्तर भाग जाना और वहाँ पर दिन भर फाइलों में खोये रहना, फिर
हारे-थके घर आकर पड़ जाना - इतने में ही जीवन सीमिट कर रह गया है। इससे छुट्टी
चाहिए तो बीमारी का बहाना करना पड़ता है। दो-चार बीमारी का बहाना करने के बाद
बीमारी सचमुच आ जाती है। फिर अस्पताल के फेरे, एण्टीबायोटिक
ओषधियों का सेवन और डाक्टरों के यहाँ हाजिरी-नित्य का काम बन जाता है। जीवन से
ताजगी गायब हो गयी है।
बतरस से ताजगी बटोरना चाहें तो न बात कहने वाला
मिलता है, न बात सुनना ही कोई पसन्द करता है। यह तो जीवन-संग्राम भी नहीं है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था - इसको ही क्या कहते हैं ये विद्वज्जन
जीवन-संग्राम। तो इसमें सुनाम पा लेना है कितना साधारण काम।
एकरसता से मुक्ति पा लेना तो साधारण काम नहीं
है। हँसी है एकरसता से बचने का उपाय। पर, किस पर हँसे ? अपने आप पर हँसे
तो लोग पागल कहेंगे और दूसरों पर हँसे तो वे पत्थर मारने को तत्पर हो जायेंगे।
लोगों की रुचि एक जैसी नहीं होती। कुछ लोग
आशावादी होते हैं। उनको जीवन में कुछ नयापन आने की आशा होती है। अन्य निराशावादी
होते हैं। निराशा और हताशा उनको नकारात्मक और अकर्मण्य बना देती है। इनसे मुक्ति
पाना टेढ़ी खीर हो गया है।
लोभ नरक का द्वार है; पर लोभ से पीछा
नहीं छूटता। यही हाल काम और क्रोध का भी है। मानव मन अत्यन्त इच्छाएँ पाल कर बैठा
रहता है। वे कभी पूरी हो ही नहीं सकती है। उनको दबाएँ तो मानसिक रोग उभर आते हैं।
व्यक्ति वरदान माँगता है -
सांई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय
।
आप नहीं भूखा रहे, अतिथि न भूखो जाय ।।
एक दूसरा व्यक्ति वर माँगता है -
गोधन, गजधन, वाजिधन और रतनधन
खल ।
जो आये सन्तोश धन, सब धन धूरि समान ।।
मन की आकुल-व्याकुलता इन्द्रियों की खींचतान के
कारण हैं। उसको रोकने के लिए इन्द्रियों पर विजय पाना जरूरी है। वे विषयों की ओर
दौड़ती हैं। विषयों से उनको निवृत्त करना जरूरी है। मन की लगाम खींचने से यह संभव
है। मन को वश में किया जाय।
अर्जुन ने अनुभव किया था कि मन को वश में करना
कठिन है, वह प्रमथनकारी है, बलवान् है और दृढ़ है -
दुर्निग्रहं तु मनः कृष्ण प्रमाथीः बलवद्
दृढम्।
तब कृष्ण ने कहा था कि हे अर्जुन ! ऐसे मन को
भी अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है -
अभ्यासेन तु कौन्तेय, वैराग्येण च
गृह्यते । (गीता)
एकरसता की जड़ता को तोड़ने के उपाय भी अभ्यास
और वैराग्य हैं।
हमारे पुरुखों ने जीवन की एकरसता को समाप्त
करने और समरसता लाने के लिए जीवन को उत्सव (उत्कृष्ट यज्ञ) बनाने का उपाय खोजा था।
कहा जाता है - भारत तो त्योहारों का देश है जिसमें 365 दिन में 366
त्योहार होते हैं। अकेले व्यक्ति को अयज्ञिय कहा गया है - अयज्ञियो ह वै एषः
योऽपत्नीकः। सत्यः यजमानः। श्रद्धा वै यजमान पत्नी । एकरसता से बचने का उपाय है -
दाम्पत्य जीवन।
महाकवि जयशंकर प्रसाद के अनुसार जीवन के
द्वन्द्व समाप्त हुए तो -
समरस थे जड़ और चेतन, श्रद्धा-विश्वास
घना था।
उसी स्थिति में आनन्द की सृष्टि होती है -
जीवन महोत्सव बनता है। महिला महस्यईळा = उत्सव की जन्मभूमि बनती है।
तभी अथक परिश्रम करने की मनोभूमि बनती है।
प्रत्येक कर्म को श्रेष्ठ (यज्ञ) बनाकर करने की आदत पड़ जाती है - तब थकावट क्यों
आयेगी। ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’ - इस श्रेष्ठ कर्म को कर के अपने इष्टदेव
के प्रति समर्पित कर दिया जाता है। थकावट और द्वन्द्व की समाप्ति होती है और
समरसता का संचार होता है।
- डा. बद्रीप्रसाद पंचोली
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