संपादकीय
(सितम्बर २०१४)
सामान्यत: तो गहन आर्थिक विपन्नता से घिरे व्यक्ति को, जो दूसरों के सामने हाथ फैलता है - उसे ही याचक, भिक्षुक या भिखारी कहा जाता है । लेकिन जो दूसरों का हिस्सा हड़पते हैं,शोषण करते हैं, अस्मत लूटते हैं, धोखा देकर उल्लू बनाते हैं, चोरी- चपाटी और भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं, अपनी हित-साधना के लिए किसी भी प्रकार का कुकर्म करते हैं और मानवीयता से शून्य, ऐसे सभी लोग भी कमोबेश याचक की ही श्रेणी में आते हैं ।चरित्र और श्रम शून्यता, व्यक्ति को भिखारी बनाती है । अज्ञान से ग्रसित लोगों में जब स्वार्थ, लोभ, पद-प्रतिष्ठा, अहंकार, वासना आदि की भूख मचलने लगती है, तो वे येन- केन प्रकारेण ऐसे कृत्यों को अंजाम देते है, जिससे वे अपनी हवस को तो पूरा कर लेते हैं लेकिन बाकि के लिए पीड़ा की कसक छोड़ देते हैं । संस्कारों से छिटके हुए लोग, अपने निजी हित के लिए, जब सर्वजन हित को आघात पहुँचाने का प्रयास करते हैं, तो उनकी ऐसी चाहना - उन्हें याचक की पराकाष्ठा तक पहुंचा देती है ।
वैसे हमारी संस्कृति में याचक का बड़ा महत्व रहा है । बुद्ध के सभी शिष्य भिक्षुक ही कहलाते थे । गुरुकुलों के विद्यार्थी भी भिक्षाटन करके उदर-पूर्ति में संलग्न थे । वे सभी आदर्श भिक्षुक थे, जो समाज से भिक्षा ग्रहण करके, उसे दिशा-बोध देकर सूद सहित वापस लौटने का कार्य करते थे । सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो जन - जन से संपर्क स्थापित करते हुए, वे उनके अज्ञान को अपनी झोली में डालकर, ज्ञान बांटने का ही कार्य करते थे । उनका उद्देश्य निज-हित न होकर, सर्व-हित के लिए समाजोत्थान का कार्य करना था । ज्ञान, संस्कार और चरित्र बल के धनी भिक्षुकों के सामने प्रजा ही क्या, राजा भी नतमस्तक हुआ करते थे । अपने ज्ञान और प्रतिभा को व्यक्ति व समाज निर्माण में लगा देना ही, उनके जीवन का ध्येय हुआ करता था । उनके त्याग और तपस्या का ही नतीज़ा था कि समाज में सत्य और अहिंसा की उपादेयता सर्व-स्वीकृत रही । शिक्षा अर्थात ज्ञान के अनमोल खजाने से भरे, ये भले ही भिक्षुक कहलाए परन्तु वास्तव में तो वे असली सम्पदा के मालिक थे ।
समय ने ऐसी करवट ली कि असली भिक्षुकों के अकाल के कारण समाज में दिशा-बोधक सन्नाटा पसरता गया और हमने शिक्षा की वह डगर पकड़ ली, जो हमें भीतर की बजाय बाहर से भरने लगी । भीतर से खाली आदमी को बाहर से कितना भी भर दिया जाए, वह सुख-शांति से खाली का खाली ही रहता है । पाश्चात्य हवा कहें या अपनी ही बद्दुआ यानि खराब इच्छा, जिससे दिनोंदिन हम पतन की ओर बढ़ रहें हैं । इससे शिक्षा-शिक्षक-शिक्षार्थी कोई भी अछूता नहीं रहा !
शिक्षा कहीं से भी मिले - माँ की गोद, विद्यालय के प्रांगण, शिक्षक यानी गुरु, समाज, सत्संग, स्वाध्याय से - वह यदि प्रेम, करुणा, सहयोग आदि मूल्यों से भरी होकर, मनुष्यता का पाठ पढाए- तो ही वह वास्तविक शिक्षा है । केवल अच्छे से अच्छा जीविकोपार्जन ही शिक्षा का ध्येय नहीं है । आज की शिक्षा ने याचक बनाने का ही काम किया है । बड़ा से बड़ा पैकेज, शिक्षा की नियति बन गई है । माँगना और अधिक माँगना याचक का यथार्थ है तथा देना और अधिक देना शिक्षा का फलितार्थ है । अत्यधिक आकाँक्षाओं ने समाज की व्यवस्था को डस लिया है । राष्ट्रहित सर्वोपरि की पुस्तक पढ़ना-पढ़ाना, अब बोझ लगने लगा है !
अच्छा पिता, पुत्र, माँ, बेटी, पड़ौसी, सम्बन्धी, कोई भी पद-धारी नागरिक अर्थात श्रेष्ठ मनुष्य बनाना ही शिक्षा का प्रयोजन है । लेकिन पाश्चात्य बयार में बहते सपनों से ग्रसित शिक्षा भिखारियों की भीड़ पैदा कर रही है, जो स्वार्थ का दमन थामें - हड़पने की कामना से भरे हुए हैं । विकास और समृद्धि के लिए विज्ञान और तकनीकि शिक्षा अत्यंत आवश्यक है लेकिन इसकी दिशा स्वयं और समाज के लिए नकारात्मक हो, तो वह शिक्षा सर्व सम्पन्नता से विमुखता की शिक्षा ही कहलाएगी । शिक्षा में नैतिकता की शून्यता, अज्ञानी कदम है । टी. वी., नेट, मोबाइल जैसे साधन हमें क्या परोस रहे हैं ? किस दिशा में शिक्षित कर रहे हैं ?? यह जग-जाहिर होता जा रहा है । आज समाज जो दंश झेल रहा है, वह हमारे द्वारा ग्रहण की जा रही, शिक्षा का ही परिणाम है ।
दहेज़ हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार, अन्धविश्वास, बेतुके हिंसक आन्दोलन, रिश्तों की दुर्दशा और ऐसी ही अनेकानेक भयावह पनपती घटनाएँ, संस्कार विहीन लोगों की कुत्सित कामनाएँ है, जिसकी पूर्ति के लिए वे याचक बन जाते हैं । हमारे सांस्कृतिक मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए, हमें एकजुट होकर, रोकनी ही होगी यह - याचक बनाती शिक्षा
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