Thursday 1 May 2014

भक्ति का यथार्थ

संपादकीय मई २०१४
भक्ति यानी अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण, उत्कट प्रेम, आकंण्ठ श्रद्धा, तीव्र लगन, शुद्ध चित्त, करुणाभरा मन, मिलन का पागलपन, सम्पूर्ण त्याग, गहरा ध्यान आदि। भक्ति के लिए इन सभी तत्वों का होना जरूरी है। स्वयं को भूलकर उसीमें रम जाना भक्ति है। खुद को मिटाकर उसीमें लीनता के साथ एकाकार हो जाना भेि की पराकाष्ठा है। ऐसे विरले ही लोग थे, जिन्होंने ऐसी स्थिति को भोगा। यह तभी संभव हो पाता है, जब ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, काम, क्रोध, मोह और अहंकार जैसे दुर्गुणों से व्यक्ति पूर्णत... मुक्त हो जाता है। जिसने भी इन मानवीय कमजोरियों को जीतकर स्वयं को मानव कल्याण में लगा दिया, वह भगवान कहलाया। अपनी आत्मा के परिष्कार से उच्चतम परम आनन्द को प्राप्त ऐसे लोग परमात्मा होकर, जन-सामान्य के लिए पूजनीय बनें। जीवन की सर्वोच्चता प्राप्त इन महापुरुषों ने सद पथ पर चलना सिखाया। 

धरती पर जन्म लेने वाली हर आत्मा का लक्ष्य वैसे तो परमात्मा होने का ही है, परन्तु क्षणिक सुखों के चक्रव्यूह में फँसकर, वह इससे वंचित रह जाती है। मनुष्य को उच्च सर्वसम्पन्न, सुखी और स्वस्थ बनाने के लिए कई मार्ग खोजे गए, जिनमें भक्ति भी एक है। सभी मार्ग केवल साधन मात्र हैं, लक्ष्य तो मनुष्य की उच्चतम अवस्था को प्राप्त करना ही है। इस उत्कृष्ट और उच्च शिखर की उपलब्धि के प्रकाश का नाम ही परमात्मा या भगवान है। किसी भी भे को कोई भगवान नहीं मिलता, जैसे वह कोई आकाशी जीव है, जो आकर गले मिल गया हो। वात्सव में तो वह अपने चुने हुए मार्ग को गहरी तल्लीनता के साथ जीवन का पयार्य बनाकर, उस उच्चतम स्थिति को पा लेता है एकाकार हो जाता है, जहाँ उसमें और दूसरे में कोई भेद नहीं रह जाता। इस देवीय अनुभूति को ही परमात्मा से मिलन मान लिया जाता है। 

ज्ञान योग, कर्म योग, हठ योग या कोई भी योग, जो आत्मा को परमात्मा से जोडे, मनुष्य में उत्कृष्टता पैदा करे, अपनी प्रकृति और रुचि के अनुकूल हो श्रेष्ठ मार्ग है, जो व्यक्ति-व्यक्ति के रुझान पर निर्भर करता है। दुर्गुणों की खंदकों को लाँघकर सद२गुणों की असीमता में प्रवेश करने को इच्छुक के लिए ही ऐसा कर पाना संभव है। संसार यानी भौतिक सुखों और अवांछित कामनाओं को खो देने का साहस जिसमें भी है, वही श्रेष्ठ मनुष्य होने की काबलियत रखता है । 

आज तो भक्ति का रूप ही बदल गया है। धन, पद, प्रतिष्ठा, वासना की भक्ति में डूबे लोगों की भरमार है। मतलबी भक्ति का बोलबाला है। धर्म-स्थलों पर भी प्रार्थना में याचना ही छिपी होती है। भजन-कीर्तन, पूजा-पाठ और सारे कर्मकाण्ड अभिलाषा के मार्ग में सुकून के पडाव हैं। तथाकथित संतों, बाबाओं, तांत्रिकों और गुरुओं के प्रति अर्पित श्रद्धा और समर्पण भावनाओं का वह छद्म शोषण है, जो भे को भले ही थोडी शांति दे दे, लेकिन अन्तत... ऐश्वर्य तो उन संतों, गुरुओं और ढोंगियों को ही प्राप्त होता है। लीलाधरों की लीलाओं को सुनने मात्र से कुछ भी हासिल नहीं होगा, जबतक कि उन मूल्यों को स्वयं अपने जीवन में न उतारा जाए, जो उन्होंने जिए हैं। जीवनभर स्वयं से छलावा करते रहने वालों में गति नहीं, बल्कि जडता घर कर लेती है। प्राचीन भक्तों का यशोगान अतिरंजित बखान भी कारगर नहीं है, क्योंकि जो भी उन्होंने पाया, वह व्यक्तिगत उपलब्धि थी। यदि वह अलौकिक प्राप्ति थी, तो उसे पाने के लिए खुद को उन जैसा होना पडेगा।

वर्तमान में गिरती हुई मनुष्यता चिन्ता का विषय है, इसलिए आज भेों की अधिक दरकार है। भक्ति के जरूरी तत्वों को अपने जीवन में ढालकर मातृ-पितृ भे बनना आज की सार्वभाौम आवश्यकता है। दरिद्रनारायण की भक्ति भी इहलोक सुधारेगी। नि...स्वार्थ समाज सेवा भी उत्कृष्ट भक्ति है। दीन-दुखियों के प्रति करुणा और सहयोगी भाव, मानवीय भेि है। राष्ट्र सर्वोपरि से ओत-प्रोत राष्ट्र भक्ति, भक्ति का सर्वोच्च शिखर है। परलोक का व्यामोह छोड, मानवीय मूल्यों को धारण कर के सही मायने में मनुष्य बने रहना ही है - भक्ति का यथार्थ।

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