संपादकीय  जून २०१४ 
जब आदमी धरती पर आया, तो उसके पास कुछ नहीं था। 
प्रारम्भ में वह एकदम जंगली था। शने:.. शने:.. उसने सभ्य और सम्पन्न होना 
शुरू किया। सभ्यता के बीज, एक पीढी दूसरी पीढी को सौंपती रही। पीढी-दर-पीढी
 इन बीजों को उगाती हुई, संस्कारों के फूलों की खुशबू से हर अगली पीढी को 
महकाती रही। मनुष्यता के विकास की इस अथक और लम्बी यात्रा में धर्म और आचरण
 का अनुपम योगदान रहा, जो अस्तित्व के अन्त तक जारी रहेगा। 
विरासत में मिले वेद, उपनिषद, रामायण, गीता, अनेक 
धर्मग्रन्थों, इबादतगाहों, योग-वास्तु-औषध ज्ञान, संगीत, कला, परम्पराओं, 
संस्कारों, भाषा, रीति-रिवाजों, शिक्षा, नीतियों, व्यवस्थाओं, अनुसंधानों, 
महापुरुषों की सीख आदि अनेकानेक विधाओं ने मनुष्य को परिष्कृत करते हुए, 
उसे स्वस्थ-सुखी-सम्पन्न बनाने के प्रयास किए। उत्तरोत्तर निखार लेती हुई 
विरासत अपनी खुशबू से मनुष्य जाति को इंसानियत का पाठ पढाती रही। भारत में 
जन्मी मानवीय मूल्यों की गहन और सुदृढ विरासत ने ही भारत को विश्व-गुरु का 
दर्जा भी दिलाया। भारत के प्राण अपनी सांस्कृतिक विरासत में बसते हैं।
चारों धाम, जो हमें विरासत में मिले हमारी राष्ट्रिय और
 सांस्कृतिक एकता के महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं। ज्ञान से परिपूर्ण हमारे आदि 
ग्रन्थ मानवता के मार्गदर्शक हैं। हमारा साहित्य, नृत्य, संगीत, कला, 
परम्परा, रीतिरिवाज आदि मानवीय संवेदना, प्रेम, त्याग, उल्लास जैसे मूल्यों
 से सराबोर हैं। हमारा खानपान, रहन-सहन, वेशभूषा, आचार-विचार आदि हमारी 
जीवनशैली के वे अंग हैं, जो हमें श्रेष्ठ जीवन की ओर ले जाते हैं। हमारी 
संस्कृति में प्रकृति-पूजा, हर जीव पर दया, उत्सवों से भरपूर ३६५ दिन, 
संतों का समागम, गुरु-शिष्य परम्परा, जीवन के १६ संस्कार आदि अनेक रूपों 
में जीवनपथ को सुगम बनाने वाले ये मूल्य, हमेें विरासत में मिले हैं परन्तु
 विरासत में मूल्यों पर संकट के बादल मँडरा रहे हैं।
वैश्वीकरण के साथ पश्चिमीकरण और अनेक कारणों से विरासत 
के पंख झुलसने लगे हैं। विरासत के कुछ प्रमुख मूल्यों से मुख मोडते हुए हम,
 दु...ख आमंत्रित कर रहे हैं। विरासत में मिली मूल्यवान अनुपम सीख, जैसे 
जहाँ नारी की पूजा होती हैं, वहाँ देवता निवास करते हैं; फल की इच्छा के 
बिना कर्म करो; संतोषी सदा सुखी; ईश्वर एक है रास्ते अनेक... कट्टरता 
इंसानियत का खून बहाती है; माता-पिता की सेवा ईश्वरीय सेवा है; 
दरिद्रनारायण की सेवा ही परम सेवा है; काम-क्रोध-लोभ-मोह और अहंकार नरक के 
द्वार हैं; ईर्ष्या, द्वेष, भेद-भाव अशांति की ओर ले जाते हैं; सादा-जीवन 
और उच्च विचार व्येित्व को निखारते हैं आदि आदि। परन्तु ये सभी जीवन मूल्य 
अब धूमिल होकर नारी की अस्मिता नोचने; वृद्धाश्रमों को बढावा देने, 
भ्रष्टाचार को गहराने; आतंक का विस्तार करने; बढती हुई संवेदनहीनता, धर्म 
के नाम पर छलावा-अंधविश्वास; गिरती नैतिकता; एकल परिवार; चार आश्रमों 
(ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, संन्यास, वानप्रस्थ) को नकारने; वर्ण व्यवस्था में 
कर्म नहीं, जन्म का बोलबाला आदि अनेक सनातन मूल्यों को भूलकर, पतन की ओर 
कदम बढा रहे हैं।
आज, जीवन के हर क्षेत्र में गिरावट का दौर जारी है। लोभ
 और स्वार्थ इस कदर हावी होता जा रहा है कि परिवार जैसी पवित्र संस्था तक 
इस गंदगी से अछूती नहीं रही। थोडे से पैसों के लिए भी लोग अपना जमीर बेचने 
से नहीं हिचकिचाते। जन्म देने वाले माँ-बाप श्रद्धा और दो रोटी तक तरस जाते
 हैं। वासना का भूत इतना हावी हो जाता है कि रिश्तों तक को कलंकित करने से 
नहीं चूकते। सहनशीलता का पाठ हवा-हवाई होते हुए, छोटी-सी बात पर ही हत्या 
पर उतारू हो जाता है। ईमानदारी अब दुर्लभ है मिलावट, धोखाधडी का बोलबाला 
है। कोई भी ऐसा क्षेत्र ढूँ‹ढना मुश्किल है, जहाँ गिरावट न आई हो । 
जो व्यक्ति अपने परिवार का सगा न हो, वह समाज और 
राष्ट्र ́का कितना हितैषी हो सकता है। मानवीयता से ओतप्रोत सांस्कृतिक 
विरासत से छिटककर दानवी हिरासत में जकडे लोग, कब मुे होंगे। अमानवीयता का 
दंश हम कबतक झेलते रहेंगे। अब भी समय है अपनी महान सांस्कृतिक विरासत को 
सम्हालकर, उसका अनुसरण करें। राम-राज्य और श्रेष्ठ सुखी मनुष्य बनने की यदि
 मन में ललक है तो हमें करनी ही होगी, हमारी श्रेष्ठतम विरासत की हिफाजत। 
