Thursday, 9 February 2017

श्री रामकृष्ण अंक : रामकृष्ण परमहंस और उनका योगदान

भारत में जीवन, साधना का पर्याय माना जाता है। सुसंस्कृत व्यक्ति वही है जो साधना करके जीवन का श्रेष्ठ सम्पादित करने के लिए प्रयत्न करें। परमहंस रामकृष्ण काली माता के मंदिर के पुजारी थे। काली माता के भक्त थे। उन्होंने अपने जीवन में प्रयोग करके प्रमाणित कर दिया कि सभी पन्थों, मतों और सम्प्रदायों का एक ही लक्ष्य है - भगवत्प्राप्ति।

तपोनिष्ठ जीवन जीकर उन्होंने समाज का मार्गदर्शन किया और भारत राष्ट्र को विवेकानन्द जैसा शिष्य दिया, जिसने सारे संसार में भारतीय जीवन पद्धति को प्रसिद्ध करने के लिए अभूतपूर्व प्रयत्न किया। विवेकानन्द का मूल नाम नरेन्द्र था। उसने स्वामी रामकृष्ण से युवकोचित जिज्ञासा की कि क्या उन्होंने ईश्वर को देखा है ? उनका उत्तर था हाँ देखा है - उसी तरह स्पष्ट रूप से जैसे तुमको देख रहा हूँ। तुमको भी दिखा सकता हूँ।

विवेकानन्द उनके पास ईश्वर दर्शन के लिए नियत समय पर गए और   रामकृष्ण ने उनके सिर पर हाथ रख कर उनकी जिज्ञासा को शान्त कर दिया। आगे उनका कथन था कि जो देखना था, उसे देख लिया। स्वामी रामकृष्ण ने उनको अपने अनुभव से लोक कल्याण में प्रवत्त होने का अनुरोध किया। नरेन्द्र विविदाषानन्द बन गए। खेतड़ी नरेश से सम्पर्क में आने के बाद उनका नाम विवेकानन्द प्रसिद्ध हो गया। शिकागो के विश्व-धर्म सम्मेलन में अपने ऐतिहासिक भाषण से उन्होंने लोगों को मंत्र-मुग्ध कर दिया। उनका सम्बोधन था - अमरीका के बहिनों और भाइयों ! इस प्रकार का व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ने वाला सम्बोधन विश्व मंच पर लोगों ने प्रथम बार सुना था। तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गूँज उठा। उनके मुख से संसार में पहली बार हिन्दू-धर्म का परिचयात्मक उपदेश सुना, हृदयंगम किया। अमरीका से लौट कर स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण भारत की यात्रा की। अंग्रेजों की गुलामी से त्रस्त और शोषण से त्रस्त भारतीयों को देखकर उन्होंने कन्याकुमारी के पास समुद्र की शिला पर तीन दिन तक चिन्तन किया और पीड़ित मानवता का उद्धार करने का संकल्प ले लिया। उनका विचार था कि देश का अध्यात्म निष्ठा के आधार पर नव निर्माण करना चाहिए। इसके लिए अपने गुरु की स्मृति में रामकृष्ण मठ की स्थापना की।

स्वामी विवेकानन्द का मन्तव्य था कि सर्व श्रेष्ठ मानव का जन्म भारतीय ग्रामों में ही हो सकता है। इससे आधुनिकता के चाकचिक्य से संत्रस्त ग्रामीणों में अभूतपूर्व आत्मविश्वास जागा और स्वतंत्रता की चाह तीव्र हुई। भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में स्वामी विवेकानन्द का यह अभूतपूर्व योगदान है।

स्वामी विवेकानन्द के विचारों से प्रेरित होकर एकनाथ रानडे ने देश भर में जागरण का नया अभियान छेड़ा। उन्होंने कन्याकुमारी में विवेकानन्द केन्द्र स्थापित किया। विवेकानन्द के चिन्तन स्थल शिलाखण्ड पर विवेकानन्द स्मारक बनाया जिसके लिए प्रत्येक व्यक्ति से एक-एक रुपया लिया। इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए अपेक्षित धनराशि कोई भी लक्ष्मी पुत्र दे सकता था; पर एकनाथजी चाहते थे कि विवेकानन्द स्मारक के लिए जो एक रुपया दे, उसके पास विवेकानन्द का सन्देश भी पहुँचे और वह अनुभव करे कि इस महान् कार्य में उसका अपना भी योगदान है।

विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी ने देशभर में विविध प्रकल्पों के माध्यम से राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दिया। संस्कार वर्ग के माध्यम से नई पीढ़ी को सनातन धर्म के संस्कार देने का काम हो रहा है। योगाभ्यास के द्वारा नागरिकों के सुस्वास्थ्य का प्रबन्ध किया जा रहा है। स्वाध्याय वर्ग लगा कर लोगों को सजग और विचारवान् बनाने का काम हो रहा है।

एक जीवनव्रतियों की पीढ़ी तैयार हो गई है, जो देश के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करके अध्यात्मनिष्ठ भारत के नवनिर्माण में योगदान कर रही है। विवेकानन्द सार्द्धशती, एकनाथ रानडे जन्मशती समारोह के कार्यक्रमों के माध्यम से अधिकाधिक लोगों तक राष्ट्र निर्माण का सन्देश पहुँचाया गया। यह वर्ष भगिनी निवेदिता की डेढ़ सौ वीं जयन्ती का है। भगिनी निवेदिता ने हिन्दू जीवन पद्धति की महत्ता को समझा, उसका समर्थन और प्रचार किया था। वे स्वामी विवेकानन्द की शिष्या थीं।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने जन जागरण का जो सपना देखा था, वह धीरे-धीरे साकार हो रहा है। धीरे-धीरे अनेक कार्यकर्ता की चमू तैयार हो गई है जो तब तक चैन से नहीं बैठेगी, जब तक राष्ट्र निर्माण का कार्य पूरा नहीं हो जाता। भारत अपनी चरित्र गरिमा और यज्ञयोगमयी जीवन शैली के माध्यम से विश्व गुरु रहा है। उसे पुनः विश्व गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने का स्वप्न साकार हो - यह सभी भारतवासियों की कामना है।

Sunday, 8 January 2017

विवेक अंक : युवा- शक्ति


भारत युवाओं का दे है। भारत में 61 करोड़ युवा हैं। इसके विपरीत योरोप के सभी दे वृद्धों के दे हैं। भारत अपनी युवा-क्ति के बल पर संसार का सबसे विकसित दे बन सकता है। अधिकतर युवा नौकरियों के लिए भागमभाग में पड़े हुए हैं। आवश्यकता इस बात की है कि युवा-क्ति की हताशा और अकर्मण्यता दूर हो। प्रधानमंत्री मन की बात में कह चुके हैं।
 
युवा ब्द Ö यु-मिश्रणे-अमिश्रणे धातु से बना हुआ ब्द है जिसका अर्थ है - जुड़ना और अलग हो जाना। जीवन में अनेक समस्याएँ हो सकती हैं। एक साथ उनका समाधान नहीं किया जा सकता। पर एक-एक करके सभी समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है। युवक-युवती एक के साथ जुड़ते हैं और अन्य से अलग हो जाते हैं। इस विधि से सभी समस्याओं का समाधान खोज लेते हैं।

युवा और सत्कर्म प्रेरित पुत्र हों - यजमान के - ऐसी भावना वैदिक राष्ट्रगीत में भी व्यक्त हुई है - युवा अस्य वीरो यजमानस्य जायताम् (यजुर्वेद 22@22½ वेजयल और रथारोही (जिष्णू रथेष्ठाः) हों - यह भी कामना की गई हैं। पुरुषार्थियों का दे है - भारत। युवा] पुरुषार्थ का दूसरा नाम है।

युवा का पर्यायवाची ब्द है - तरुण। तरुण का अर्थ है - तैरने वाला। जो बड़े से बड़े संकट का सामना करे और उसको धरायी कर दे] वह तरुण। जिसमें तैरने का सामथ्र्य हो वह तरुण। भवसागर को पार करने की क्षमता हो वह तरुण।

खेलूँगा मैं तो नाव उफनती लहरों में]
यदि नाव नहीं हुई तो भुजबल से पार कर लूँगा जल की चुनौतियों को।

यह चाह जागती है तरुण में] युवा में। वेद का मंत्र है -

न्वती रीयते संरभध्वं । उत्तिष्ठत प्रतरत सखायः ।

पथरीली नदी बह रही है - समारम्भ करो। उठो और पार कर जाओ सखाओ।

जल में तो तरुण तैर लेगा। पर] पथरीली नदी भी उसको रोक नहीं पाएगी। वह उठेगा और अपने जैसे हिम्मत वाले सखाओं के साथ पार कर जाएगा उसे भी।

वेदमाता की मीठी लोरियाँ सुनते हुए उसे आगे बढ़ना है। उद्यानं ते नावयानम् अर्थात् हे पुरुष तुझे तो ऊपर ही उठना है - उन्नति ही करना है। अवनति का मार्ग तेरे लिए नहीं है।
खुली होड़ है तरुणों में - युवाओं में। जीतना ही जीवन का लक्षण है। हारा सो मारा गया। जयं जयेम त्वा युजा - हे प्रभो ! हम तुम्हारा सायुज्य प्राप्त कर जीतेंगे।

Sunday, 25 December 2016

समर्थ भारत

भारत वेदभूमि है, देवभूमि है, योगभूमि है, यज्ञभूमि है, त्यागभूमि है। इसको ऋषि-मुनियों का दे माना जाता है। इसकी कुल जनसंख्या का आधे से अधिक भाग युवाओं का है। यह गर्व की बात है। भारत के युवा न केवल भारत की, वरन् संसार की तकदीर बदल सकते हैं, फिर भी जीवन में जो हताशा और अकर्मण्यता व्याप्त हो गई है इससे तत्काल मुक्त होने की आवश्यकता है।
राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह का मुक्ति आन्दोलन चलाया जाना चाहिए। हमारे आदर्श हैं - राम, कृष्ण, अर्जुन, चाणक्य, शिवाजी, महाराणा प्रताप, महात्मा गांधी जैसे इतिहास पुरुशंकराचार्य, भगवान् बुद्ध, महावीर स्वामी, गोस्वामी तुलसीदास जैसे लोक नायकों ने भारत को धर्मप्राण और अध्यात्म प्राण राष्ट्र बनाया है।
भारतवासी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - पुरुषार्थ, चतुष्ट्य की साधना करते हैं। देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण से छुटकारा पा लेते हैं। भारत की इस सनातन परम्परा को समझ कर ही स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि नये अध्यात्मनिष्ठ भारत का निर्माण करना चाहिए।
स्वामी विवेकानन्द ने यह भी कहा था कि यदि सर्वश्रेष्ठ मानव का कहीं निर्माण हो सकता है तो भारत के गाँव में ही संभव है। श्रेष्ठ मानव का विकास ही भारतीय परम्परा में चरम लक्ष्य माना गया है। वेद मानवता का संविधान है। उसका ध्येय सर्वश्रेष्ठ मानव का विकास ही है।
भारत में मानव की पहचान उसके चरित्र से होती है। संसार के मनुष्य श्रेष्ठ चरित्र की शिक्षा भारत से ही लेते रहे है -
एतद्दे प्रसूतस्य सकाशादम्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथव्यां सर्वमानवाः ।।

भारत का सामर्थ्य भारतवासियों का चरित्र है। शिवाजी के सेनानायक की सुन्दर पत्नी को शिवाजी को भेंट स्वरूप प्रस्तुत किया तो वह थर-थर काँप रही थी। शिवाजी ने कहा - मेरी माता इतनी सुन्दर होती तो मैं भी इतना ही सुन्दर होता। उन्होंने उसे ससम्मान वापस भेज दिया और अपने सेना नायक से कहा कि मातृजाति का सम्मान करना सीखो।
अब्दुल रहीम खानखाना की पत्नी और उनके बच्चे मार्ग भटक कर महाराणा प्रताप की सेना के हाथ पड़ गए तो महाराणा प्रताप ने उनको ससम्मान लौटाया। रूपकृती चन्द्रगुप्त ने मध्य एशिया में बलख को जीत कर कुतुबमीनार के पास लोहे के लाट के ऊपर अपनी प्रस्ति अंकित करवाई। जिसमें वर्णित है- वल्लिकां विजयते ।
कनिष्क और ललितादित्य ने चीन पर विजय प्राप्त की थी। राजा रघु ने विश्वजीत यज्ञ किया तो अपना सर्वस्व दान कर दिया। कौत्स को गुरुदक्षिणा चुकाने के लिए उसने कुबेर पर चढ़ाई करने का मानस बनाया। कुबेर ने उसका राजको स्वर्ण से भर दिया। चढ़ाई की आवष्यकता ही नहीं हुई। दक्षिण के सम्राट राजराजेन्द्र चोल ने अपनी हाथियों की सेना लेकर दर्रा खैबर के पार अटक में पर्वत खण्ड पर लिखवा दिया था कि कोई भी दस्यु आर्य राष्ट्र की सीमा का उल्लंघन न करे।
औरंगजेब की बेटी सफीयतुन्निसा को उसके त्रु दुर्गादास ने पुत्री की तरह पाला था और उसे गीता और कुरान की शिक्षा दी थी। हरिसिंह नबुवा ने अंग्रेज सेना नायक की पुत्री का अपहरण कर छह महीने  अपने पास रखा। जब लौटाया तब पुत्री ने अपने पिता को बताया कि हरिसिंह नलुवा ने उसको पुत्री की तरह प्यार किया है।
कोटा राज्य के राज दरबार में वहाँ के प्रधानमंत्री ने एक राजपूत सामन्त को अपमानित करके बाहर निकाल दिया। क्रुद्ध सामन्त ने प्रधानमंत्री के रनिवास से उसकी रानी का अपहरण कर लिया। उसके आवास पर जब वह जगी तब उससे कहा गया कि वैसे ही आनन्दपूर्वक रहे जैसे अपने पीहर में रहती रही है। प्रधानमंत्री ने राज्य भर में सब जगह उसकी खोज करवा ली। एक दिन राज दरबार में सामन्त मूछें तान कर बैठा था तो प्रधानमंत्री ने पूछा - क्या मंशा है ? सामन्त ने उत्तर दिया - रानी सुरक्षित है - उसे लेने घोड़ी पर बैठकर मेरे द्वार पर आना होगा। प्रधानमंत्री ने वैसा ही किया। अपने व्यवहार के लिए क्षमा भी माँगी।
सिक्ख राजा रणजीतसिंह के सिर पर एक कन्या ने गोकण से पत्थर फेंक कर दे मारा। खून बहने लगा। उन्होंने कन्या से पूछा - यह क्या किया ? उसने कहा - महाराज ! पत्थर पेड़ पर फेंका था - चूक हो जाने से आपके सिर में लग गया क्षमा करें।
महाराज ने पूछा - यदि पत्थर ठिकाने पर लगता तो क्या होता ? कन्या ने कहा - आम का पेड़ मुझे फल देता। महाराज ने कहा तो तुम्हारा राजा आम के पेड़ से भी गया-बीता तो नहीं हो सकता। उन्होंने कन्या को बहुत सारे आम दिये और सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के सैनिकों ने अंग्रेज फौजियों के परिवार के सदस्यों को घेर लिया था। रानी ने उन सबको मुक्त करा दिया। भारतवासियों का चरित्र और व्यवहार सामने वाले के संगत-असंगत व्यवहार को देखकर निर्धारित नहीं होता। हमारा चरित्र हमारी पुरुषार्थ साधना का अंग है।
1961 के भारत-पाक युद्ध में हमारे सेनानायक जनरल माणेकशा ने पाकिस्तान के 93,000 सैनिकों से आत्मसमर्पण करवाया और बांग्लादे का उदय हुआ। मेजर जनरल जगजीतसिंह अरोड़ा के समक्ष पाक सेना नायकों को आत्मसमर्पण करना था। उन्होंने अपने हथियार डाल दिए। प्रधान सेनानायक अपने फीते उतारने लगा तब उसे चक्कर आ गए। हमारे मेजर जनरल जगजीतसिंह ने दौड़कर पाक सेनाध्यक्ष को बाहों में भर लिया। दोनों ने देहरादून के सैनिक स्कूल में प्रशिक्षण लिया था। एक हमारा सेनाध्यक्ष था, तो दूसरा पाकिस्तान का। अपने त्रु दे के सेनानायक को भारत का सेना नायक ही बाहों में भर सकता है।
भारत के सामर्थ्य की कहानियों पर बहुत बड़ा ग्रन्थ लिखा जा सकता है। हम विश्वस करते रहे कि पुरुषार्थ हमारा दायाँ हाथ है और विजय बाएँ हाथ का खेल -
कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मै सव्य आहितः। (अथर्ववेद)