Thursday, 2 August 2018

स्वतंत्रता का मोल

स्वतंत्रता सबको प्रिय है। क्योंकि स्वतंत्रता मनुष्य का स्वभाव है। यही कारण है कि वह अपनी स्वतंत्रता के लिए छटपटाता है। हमारे देश में लगभग 1000 वर्षों तक विदेशी आक्रमण होते रहे। ग्रीक, हूण, शक, यवन और मुग़ल शासन की प्रताड़ना सहते हुए अपने सांस्कृतिक और अध्यात्मिक विरासत का जतन बड़ी सजगता के साथ हमारे पूर्वजों ने किया। तब जाकर हमारी सांस्कृतिक विरासत की रक्षा हो सकी। बाद में अंग्रेज आए और लगभग 200 वर्षों तक उन्होंने हमारे भारतवर्ष पर शासन किया। यह एक ऐसा शासन था जिसने वास्तव में हमारे देशवासियों के मन को गुलाम करने में सफलता पायी। देश अपना, भूमि अपनी, खेत अपने, इतिहास अपना, लोग अपने फिर भी सब पर शासन अंग्रेजों का ही चलता था। हम नहीं चाहते थे कि अपने भूमि, भवन, धर्म, संस्कृति और शिक्षा व्यवस्था पर अंग्रेजों की अधीनता रहे। इसलिए तो हमारे पूर्वजों ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया, हजारों देशभक्तों ने अपने प्राणों की आहुति दी, लाखों परिवारों इस स्वाधीनता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। और अंततोगत्वा 15 अगस्त, 1947 को हमारा देश “भारत” स्वतंत्र हुआ। पर क्या हम हमारे बलिदानी वीरों के ‘त्याग और सेवा’ प्राप्त स्वाधीनता के मोल को समझ पाए हैं, इस पर विचार होना चाहिए।

स्वतंत्रता का श्रेय केवल ‘एक’ को नहीं  

कई लोग कहते हैं कि देश को स्वतंत्रता अहिंसा से मिली, यह स्वतंत्रता महात्मा गांधी ने दिलाई। कई लोग कहते है कि अंग्रेजों ने भारत को लूटकर छोड़ दिया और हमें स्वतंत्रता मिल गई। स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के साथ युद्ध नहीं करना पड़ा। कई बुद्धिजीवी तो यहां तक कहते हैं कि अंग्रेज नहीं होते तो यहां लोकतंत्र नहीं होता और न ही देश में कोई विकास हो पाता। ये सही है कि महात्मा गांधी ने ‘स्वतंत्रता’ की इच्छा को जन मन में जगाया, उन्होंने इसे आन्दोलन का स्वरूप दिया। पर केवल अहिंसक आन्दोलन के प्रभाव से अंग्रेजों ने भारत को नहीं छोड़ा। भारत के अन्दर युवा क्रांतिकारियों के बलिदान के प्रति भारतवासियों के मन में अपार श्रद्धा थी, उनसे लाखों लोग देश के लिए मर मिटने के लिए प्रेरित हुए थे। एक तरफ सशस्त्र क्रांतिकारी, दूसरी ओर अहिंसक आन्दोलन (सत्याग्रह)। स्वतंत्रता आन्दोलन में जहां चंद्रशेखर आजाद ने क्रांतिकारियों के संगठन का नेतृत्व किया, वहीं महात्मा गांधी ने अहिंसक आन्दोलन की बागडोर सम्भाली। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने एक ओर आजाद हिन्द फ़ौज का नेतृत्व किया, वहीं दूसरी ओर स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने भारतीय युवाओं को सेना में शामिल होने का आह्वान किया। द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था और अंग्रेजों को सैनिकों की आवश्यकता थी। अंग्रेज अपने स्वार्थ के लिए भारतीय युवाओं को सैनिक शिक्षा देने को तैयार थे। तब सावरकर ने इस अवसर का लाभ लेने के लिए युवाओं से कहा, “एकबार सैनिक शिक्षा ले लो और जब जरुरत पड़ेगी तो तय कर लेना कि बंदूक की गोली किस ओर चलाना है। सावरकर की प्रेरणा काम कर गई और युवा भारत सैनिक प्रशिक्षण में शामिल होने के लिए दौड़ पड़े। अंग्रेज डर गए कि जब सारे युवा सैनिक बन गए तो वे अंग्रेजों से लड़कर बूरी तरह समाप्त कर देंगे। अंग्रेजों का यह भय स्वाभाविक था क्योंकि लाखों युवा सैनिक प्रशिक्षण ले चुके थे।

स्वतंत्रता का श्रेय किसके नेतृत्व को है, इसको लेकर बहुत चर्चा होती है, विशेषकर सामान्य लोगों में। स्वतंत्रता आन्दोलन का नेतृत्व अनेक धाराओं में स्वतंत्रता सेनानियों ने किया, लेकिन सारे देशभक्तों की प्रेरणास्रोत तो स्वामी विवेकानन्दजी के विचार ही रहे। चाहे गांधी हो या सुभाष, चाहे लोकमान्य तिलक हो या सावरकर, क्रांतिकारियों के ठिकानों पर कभी अंग्रेज छापे मारते तो उन्हें उन ठिकानों पर स्वामी विवेकानन्दजी के देशभक्ति जगानेवाले विचार की प्रतियां मिलती। यह भी एक विशेष बात है जिसका संज्ञान लेना आवश्यक है। वहीं देश के कवियों, गीतकारों और साहित्यकारों के देशभक्ति जगानेवाले साहित्यिक योगदान को भी कभी नहीं भूलाया जा सकता। लोकमान्य तिलक और गणेशशंकर 'विद्यार्थी' की राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत पत्रकारिता जिसने स्वतंत्रता आन्दोलन को मुखर बनाया, गांधीजी का अहिंसक आन्दोलन, सावरकर ने सेना में भर्ती होने का आह्वान किया, सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फ़ौज बनाई और सशस्त्र क्रांति की मशाल तो 1857 से स्वतंत्रता तक जल ही रही थी। इसलिए केवल एक व्यक्ति को स्वतंत्रता प्राप्ति का श्रेय देना लाखों स्वतंत्रता सेनानियों के त्याग, तप और बलिदान का अपमान हो होगा। लेकिन देश का दुर्भाग्य ही है कि हमारे यहां अंग्रेजों की चापलूसी करनेवाले लोग तब भी थे और उनका गुणगान करनेवाले लोग अब भी हैं।

स्वतंत्रता का दुरुपयोग

गुलामी मानसिकता के लोग स्वतंत्रता सेनानियों के त्याग और बलिदान का महत्त्व न पहले समझते थे और न ही अब। इसलिए आज स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने में इन्हें मजा आता है। इस श्रेणी में सामान्य मनुष्य कम ही हैं पर बड़े पदों पर बैठे लोग इस महान स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने में कोई मौका नहीं छोड़ते। शिक्षा संस्थानों में शिक्षा की अव्यवस्था को देखिए, राजनीति में भ्रष्टाचार को देखिए, सिनेमा जगत में स्वैराचार को देखिए, सामाजिक क्षेत्रों में फैले जातिभेद और दुराचार को देखिए, कानून व्यवस्था में ईमानदारी की दुर्गति को देखिए, ये सारे दृश्य मानो हमारे महान स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान का उपहास कर रहे हैं। 

दूसरी ओर स्वतंत्रता दिवस के उत्सव को मनाने का तरीका भी देखिए। विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विभिन्न संस्थानों में तिरंगा फहराया जाता है। कुछ क्षण बलिदानियों को याद किया जाता है। वहीं देश की युवा पीढ़ी मोटरसाइकिल में सवार होकर, हाथों में तिरंगा लेकर सड़कों पर डीजे की कर्कश आवाज के साथ इस उत्सव को मनमानी ढंग से सेलिब्रेट करते दिखाई देते हैं। ये ‘देशभक्ति’ भी आज की पीढ़ी के लिए बड़ी कमाल की चीज हो गई है। फेसबुक, ट्विटर और वाट्सएप प्रोफाइल या चेहरे, कपड़े अथवा ब्रेसलेट पर तिरंगा लगा लो तो आप देशभक्त बन जाते हैं। क्या यही देशभक्ति है? तिरंगा का आदर तो होना ही चाहिए क्योंकि वह हमारे देश का राष्ट्रीय ध्वज है। पर केवल तिरंगे का प्रोफाइल फोटो बना देनेभर से क्या हमारी देशभक्ति साबित हो जाती है? क्यों क्रिकेट, 15 अगस्त और 26 जनवरी को ही जागती है हमारी लिमिटेड राष्ट्रभक्ति? इस बात पर भी चिन्तन होना चाहिए।

स्वतंत्रता मिली है - “राष्ट्रभक्ति की भावना से, समर्पण और बलिदान से”। राष्ट्र का उत्थान भी होगा देशभक्ति भाव के जागरण से। आइए, “देशभक्ति फिर जगे, देश का ये प्राण है” इस भाव का जागरण कर समाज में राष्ट्र चेतना का अलख जगाएं।

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