चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नया विक्रम संवत्सर 2075 प्रारम्भ हो रहा है। हमारे सारे त्यौहार चान्द्र वर्ष से हैं। नव संवत्सर का उत्सव भी चान्द्र वर्ष से मनाया जाता है। 365 दिन के वर्ष में हम 366 उत्सव मनाते हैं। इसलिए हम भारतवासियों को उत्सव जीवी कहा जाता है। भीष्म पितामह ने कहा था - गणान् उत्सव संकेतान् अर्थात् गण राज्यों की उत्सव से पहचान होती है।
वैष्य गणराज्य का उत्सव दीपावली और आमीर गणराज्य का उत्सव होली आज राष्ट्रीय उत्सव हैं। विक्रम संवत्सर का प्रवर्तक गुप्त साम्राज्य का संस्थापक चन्द्रगुप्त थे। दिल्ली-महारौली की लोह-लाट पर जिस चन्द्र महीपति की प्रशस्ति उट्टंकित है। वह चन्द्र महीपति कदाचित् यही चन्द्रगुप्त था। इसी वंश का समुद्रगुप्त का पुत्र रूपकृती चन्द्रगुप्त था] जिसने देवी का रूप धारण करके शकराज ध्रुव स्वामी को मार कर ऐतिहासिक विजय प्राप्त की थी।
संवत् प्रवर्तक शासक को शाक पार्थिव कहा जाता रहा है। कुछ विद्वानों ने शाक-पार्थिव का अर्थ साम खाने वाले राजा कर दिया। उनके मतानुसार शेष राजा मांसाहारी होते थे। ऐसे लोगों ने गोसव करने वाले परम भागवत रन्तिदेव को भी मांसाहारी ही माना है। यह नितान्त मिथ्या धारणा है। शाक (शक्नोति इति) शब्द सामथ्य का संकेतक है। कृती चन्द्रगुप्त ने जो संवत्सर चलाया वह सौर-गणना पर आधारित होने के कारण संसार में सर्वाधिक शुद्ध है। भारत सरकार ने उसको इसी विशेषता के आधार पर अपना राष्ट्रीय संवत्सर स्वीकार किया है। शाके (संवत्सर) को स्वीकार तो कर लिया पर उसे किसी शक राजा द्वारा प्रवर्तित मान लिया। यह भी गलत धारणा है। ऋग्वेद में इन्द्र को पुरुशाक (अत्यधिक शक्तिमान) कहा गया है।
इस धारणा के कारण ही यह राष्ट्रीय पंचांग उपेक्षा का विषय बना रहा। राष्ट्रपति से लेकर सन्तरी तक कोई भी इसको याद नहीं करता। राष्ट्रीय प्रतीक की अवमानना के दोषी हम सब बन गये हैं। आवश्यकता इस बात की है कि शक संवत्सर के महत्त्व को समझे और उसको जीवन में अपनायें भी।
रूपकृती चन्द्रगुप्त द्वारा चलाया हुआ संवत्सर शाके 1940 भी इसी मार्च की 22 तारीख को आरम्भ होगा। प्रति वर्ष मार्च] 22 से ही आरम्भ होता है। इसके महत्त्व के विषय में समझें। चान्द्रवर्श 355 दिन का होता है। वैसे वर्ष 365-244----- दिन का होता है। 32 महीने] 17 दिन बाद अधिक मास (पुरुषोत्तम मास) होता है। ऋग्वेद के वरुण सूक्त में चान्द्र वर्ष और अधिक मास के संकेत मिलते हैं। चान्द्र गणना पर आधारित सभी संवत्सर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है।
शाके की गणना इतनी शुद्ध है कि 365 दिन के बाद शेष अन्तर भी गणना में छोड़ा नहीं गया है। 137 वर्ष में और 19 वर्ष में एक क्षय मास आता है। 1934 में क्षय मास था। 11 महीने का वर्ष था। इसके बाद 1983 में क्षय मास आया था। अब 137 वर्ष बाद क्षय मास आयेगा। इसके बाद फिर 19 वर्ष वार। ग्रिगेरियन कलेण्डर को पोप ग्रेगरी ने शुद्ध किया था। अब फिर वह गड़बड़ा गया है। कोई नया संशोधन उसे शुद्ध करेगा।
कालिदास ने अष्टधा प्रवृत्ति के शिव की स्तुति की है। उसमें सूर्य और चन्द्रमा को काल-मापन का साधन माना गया है। - "ये द्वे कातं विद्यत्तः।" यो तो "दिनं दिनं सुदिनत्वम्" के अनुसार प्रत्येक दिन को सुदिन मान कर उसका स्वागत किया जाना चाहिए। वेदात् सर्वं प्रसिद्धयति की मान्यता प्रसिद्ध है। तब नया संवत्सर कहने की क्या आवश्यकता है।
नव संवत्सर में नव शब्द नु धातु से बना है जिसका अर्थ होता है – स्तुत्य, प्रशंसा करने योग्य। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जानते थे कि नव गति जीवन में नई लय पैदा करती है। काल के प्रवाह में एकदम नयापन की ताजगी अनुभव की जा सकती हैं।
भारतीय मान्यता के अनुसार - ऋणं ह वै जायमानः। जन्म लेने वाला मनुष्य तो ऋण स्वरूप होता है। मानवी माता से ऋण मनुश्य] ब्राह्मण माता से ऋण ब्राह्मण] क्षत्रिय माता से ऋण क्षत्रिय] वैश्य माता से ऋण वैश्य और शूद्र माता से ऋण शूद्र पैदा होते हैं। सबको जीवन ऋण से धन बनने के लिए मिला है। धन्यता की यह साधना अरंकृत करके इनको आर्य बनाती है - द्विजत्व प्रदान करती है।
भारतीय सनातन जीवन शैली में नवसंवत्सर ताजगी जगाता है। मनुष्य बनने की प्रक्रिया को अथक बनाता है - न थकाने वाली। उत्सव है उत्कृष्ट सव-यज्ञ। यज्ञ श्रेष्ठ कर्म होता है - यज्ञो वै श्रेष्ठतम कर्म। यजुर्वेद के अनुसार "आयुः यज्ञेन कल्पताम्।" आयु को यज्ञ बनाने के लिए क्षण-क्षण ताजगी चाहिए - अथकता चाहिए। थक गये तो लक्ष्य छूने की उमंग कहा से आयेगी? सजगता कहाँ से आयेगी?
"वयं राष्ट्रेजागृयाम पुरोहिताः" - हम राष्ट्र भाव में जागे और अनुकरणीय व्यक्तित्व वाले बनें। राष्ट्र भाव में कैसे जागे? जब श्रेष्ठ आचार और विचार से हमारे भीतर सात्त्विकता का उद्रेक होगा तो हमारे भीतर राष्ट्र (प्रकाशमत्ता, द्युतिमत्ता) का उदय होगा। सत्त्वं लघु प्रकाशकम् - महर्षि पतंजलि की उक्ति है। साधक का व्यक्तित्व राष्ट्र बन जायेगा। ऐसा राष्ट्र ही अनुकरणीय (पुरोहित) भी होगा। राष्ट्र संज्ञक व्यक्ति जहाँ बसें वह भी राष्ट्र होगा।
ऐसी जीवन साधना के लिए नवता चाहिए। नितनवीनता चाहिए। नवसंत्वसर की प्रतिपदा इसकी पूर्ति करती है। ताजगी जगाती है। वेद की उक्ति है - सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु - सारी दिशाएँ मेरी मित्र हो जाएँ।
जीवन साधना साधना केन्द्र में सफल होती है। संसार का सबसे बड़ा साधना केन्द्र, सबसे बड़ा विश्वविद्यालय, चिकित्सालय परिवार होता है। मानव जाति के विकास में परिवार भारतीय समाज की सबसे बड़ी देन है, जिसमें प्रत्येक सदस्य को अपने दोषों को निवारित करने का अवसर मिलता है - परितः वारयति स्वदोषान् यस्मिन् इति। परिवार को महिला बनाती है। 'महिला' से अधिक गरिमामय शब्द संसार की किसी भाषा में नहीं हो सकता - महस्य इला - उत्सव की जन्मभूमि, जिसके होने मात्र से जीवन उत्सव बन जाता है।
वही परिवार को बनाती है। वेद की उक्ति है - आमेदस्तम् - जाया इत् अस्तम् - जाया ही घर है। इसी के आधार पर मनु ने कहा - गृहिणी गृहम् उच्यते। मनु ने यह भी कहा है -
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः
जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता रमण करते हैं। जीवन को उत्सव बनने वाली और घर-परिवार का निर्माण करने वाली नारी के प्रति समादर करके व्यक्ति कृतज्ञता ही व्यक्त करता है। संवत्सर का अर्थ है - जिस कालखण्ड में संवत्स बनकर लोग रमण करते हैं - संवत्साः यत्र रमन्ते इति। साधक सत्यक् वत्स - संवत्स बनता है तब सिद्धों, साधकों, साधुओं को वात्सल्य प्राप्त होता है। जैन परम्परा में कहा गया है - वच्छल्लं (वात्सल्यं) परमो धर्मः। जैन परिवार में साधकों-मुनियों को गोचरी के लिए आमंत्रित किया जाता है।
धम्मपद में भगवान् बुद्ध का वचन है - आर्याणां गोचरे रताः। इसी तरह भागवत पुराण में ग्यारहवें स्कन्ध में आता है - गोचर्या नैगमश्चरेत् अर्थात् वेदानुयायी गोचरी को आचरण का विषय बनाएँ। स्पष्ट है कि वैदिक, जैन और बौद्ध एक ही सनातन परम्परा के अंग है।
नव संवत्सर मनाते समय अपनी सनातन परम्परा को याद करके आत्मगौरव का अनुभव करें। यजुर्वेद में कहा गया है - सा प्रथम संस्कृतिः विश्ववारा अर्थात् मनुष्य मात्र की संस्कारशीलता एक है और वही श्रेष्ठ है। उसको अनुभव का विषय बनाएँ।
आयुर्वेज्ञेन कल्पताम् - अपने सम्पूर्ण जीवन को यज्ञ - विषय कर्म के रूप में ढालें। नये संवत्सर का नवोत्साह इसमें सहायक होगा। शाके 1940 का प्रारम्भ 22 मार्च को राष्ट्रीय नवसंवत्सर को भी मनाएँ और 2075 को चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन आरम्भ होता हुआ, भी देखें। नये साल की ताजगी आपके सब मनोरथों को पूरा करेगी - यह न भूलें।