Tuesday, 5 January 2016

वयं राष्ट्र जाग्रयाम पुरोहिताः

संपादकीय


वेद के मंत्रांश में मानव मात्र की कामना अभिव्यक्त हुई है। देवों की सख्यता में हम स्थित हों। देवों के सखा बनें। सखा का अर्थ है - जिनकी इन्द्रियों का व्यापार एक जैसा हो - समानानि खानि येषां ते । जिनका एक जैसा स्वभाव हो, उनमें गहरी मैत्री होती है। जिस साधक का आचरण देवताओं जैसा हो, वे ही देवसखा बनने के सुपात्र हैं। वेद का ही वचन है कि परिश्रम करके थके नहीं तब तक देवता सखा नहीं बनते - 
न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः
देवताओं का सखा बनना है तो श्रम करना पड़ेगा । श्रम करके थक जाय उसे श्रान्त कहा जाता है। श्रान्त व्यक्ति के सखा बनते हैं देवता। देवता शब्द का अर्थ है - देने वाला, प्रकाशित करने वाला और द्युलोक में रहने वाला
 देवो दानात् द्योतनात्, दिवि भवात् वा (यास्क मुनि) 

पिता, पितामह, माता, मातामह - सब देने वाले होते हैं। वे बच्चों को उपहार देते हैं। माता बच्चों को संस्कार देती है। आचार्य सदाचार की शिक्षा देते हैं। पिता पुत्र को अनुशासित करता है। ये सब देने वाले देवता हैं। सूर्य-चन्द्रमा, पृथिवी, वायु, विद्युत, आकाश ये प्रकाशित होते हैं - प्रकाशित होने वाले देवता हैं। द्युलोक से ऊपर महः, जनः, तपः और सत्यम् प्रकाशमय लोक हैं। वे भी देवता हैं। सारा संसार देव लोक है। श्रम करने वाले व्यक्ति श्रमशील होते हैं। उनके लिए सारा संसार ही मित्र बन जाता है। वेद का आदेश है - कृषिमित् कृषस्व अर्थात् कृषि ही करो। लोक में कहावत है - उत्तम खेती, मध्यम वणिज, अधम चाकरी। कृषक गर्मी, सर्दी, बरसात की परवाह किये बिना अपने कार्य में जुटा रहता है। वह किसी योगी से कम नहीं होता।

अथर्ववेद में साधक कहता है - माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः । श्रेष्ठ कृषक ही स्वयं को धरती का पुत्र कहता है। वह भौमब्रह्म की उपासना करता है। धरती उपज देकर उसके श्रम को सार्थक करती है। माखनलाल चतुर्वेदी ने किसान की वन्दना करते हुए लिखा है -
सिर पर पाग, आग हाथों में, ले पानी का घड़ा
जवानी देख कि प्रियतम खड़ा ।
कला कल्पना से कह इसको वन्दनवाल चढ़ा ।
उस किसान के लिए ही देश का ब्राह्मण कल्याण-कामना करता है, क्षत्रिय उसकी रक्षा करता है। वैश्य उसके वेश-निवेश की चिन्ता करता है और शूद्र उसी की सेवा करता है। इतनी मेहनत की प्रेरणा किससे मिलती है ? - मनु से। मनु ने कहा है - छिद्रेण नश्यते भूमिः - छिद्र से भूमि नष्ट हो जाती है। इसलिए इतना परिश्रम करता हूँ कि धरती में छिद्र न हो, दरार न चले। ऐसी निष्ठा जीवन में युवावस्था में ही प्राप्त होती है। ऋग्वेद घोषणा करता है - इस वीरभोग्या वसुन्धरा का आनन्द एक युवा ही उठा सकता है -
युवा स्यात्साधु युवाऽध्यायकः 
आशिष्ठो दृढिश्ठो बलिस्ठः
तस्येयं पृथिवी सर्वा वित्तस्य पूर्णास्यात् स एको मानुष आनन्दः।
यह युवपन ही जीवन की निशानी है, जिसे सम्बोधित कर श्रीकृष्ण भी कहते है - पौरुष मे नृषु
वायु वृत्ति वाले ऐसे युवाओं को ही सम्बोधित करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा - ''सिंह के पौरुष से युक्त परमात्मा के प्रति अटूट निष्ठा से सम्पन्न और पावित्र्य की भावना से उद्दीप्त, उत्साह से गर्जते युवा मुझे चाहिए, मेरा विश्वास ऐसे ही युवाओं में है।'' ऐसे ही युवा भारत का भविष्य उज्ज्वल कर सकते हैं।

मा. एकनाथजी के समान, एक जीवन-एक ध्येय को लेकर माँ भारती के चरणों में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दे, तभी वह युवा कहलाने का अधिकारी है।
राष्ट्राय स्वाहा इदम् न मम।