Monday, 6 September 2021

 

सम्पादकीय

सनातन धर्म : विश्व बंधुत्व का आधार

स्वामी विवेकानन्द ने ११ सितम्बर, १८९३ को धर्म संसद में अपना पहला व्याख्यान दिया था। उसके पश्चात लगभग प्रतिदिन वे विभिन्न सत्रों में संसद को सम्बोधित करते थे। १९ सितम्बर को उन्होंने हिन्दू धर्म पर व्याख्यान दिया। उनके सभी व्याख्यानों का सार यह था कि सत्य पर कोई एकमात्र दावेदार नहीं होना चाहिए। हठधर्मिता का दृष्टिकोण हिंसा की ओर ले जाता है। यह सिद्धांत जैसे - अस्तित्व की एकता, मनुष्य की दिव्यता, एक तत्व अनेक रूपों में अभिव्यक्त होना - और उन पर आधारित जीवन, विश्व बंधुत्व का आधार है। सभी को एक ही मार्ग पर चलने के लिए बाध्य करके विश्व बंधुत्व प्राप्त नहीं किया जा सकता है तो अनेकों से परे जो ‘एक’ है उसके बोध से यह हो सकता है। स्वामी विवेकानन्द के इसी आह्वान को ११ सितम्बर को विवेकानन्द केन्द्र द्वारा विश्व बंधुत्व दिवस के रूप में मनाया जाता है।


स्वामी विवेकानन्द के सन्देश की विशिष्टता क्या थी और भारत के लिए इसकी प्रासंगिकता क्या है? १८९३ में शिकागो में धर्म संसद का आयोजन यह घोषणा करने के लिए किया गया था कि केवल ईसाई सम्प्रदाय ही एक सच्चा धर्म है। धर्म संसद में हर कोई इस बात पर जोर दे रहा था कि केवल उसका धर्म ही सच्चा धर्म है। इस हठधर्मितावाले दृष्टिकोण ने मानव जाति के इतिहास में संघर्ष और हिंसा को बढ़ावा दिया है। इसलिए
, अन्य सभी को नकारनेवाले एकांतिक धर्मों का पूरा इतिहास दुनियाभर के समुदायों के खून और विनाश से लिखा गया है। ११ सितम्बर, २००१ को World Trade Center पर हुए आतंकी हमले ने भी हाल के वर्षों में यही बात साबित की। दुनिया विविधतापूर्ण है। कोई भी दो व्यक्ति या एक ही पेड़ के दो पत्ते बिल्कुल एक जैसे नहीं होते। प्रत्येक व्यक्ति का मानसिक, व्यवहारिक विकास अलग-अलग होता है, अत: ईश्वर से प्रार्थना करने का केवल एक ही मार्ग नहीं हो सकता।

स्वामी विवेकानन्द ने बल देकर कहा कि केवल वही दृष्टिकोण, जो कहता है कि प्रत्येक धर्म अपने अनुयायियों के लिए सही है, दुनिया में शान्ति ला सकता है। यह दृष्टिकोण समावेशी दृष्टिकोण है। यह समावेशी है क्योंकि यह सृष्टि को 'एक' की अभिव्यक्ति के रूप में और उसमें विद्यमान हर वस्तु को उसके भाग के रूप में समझता है। इसलिए, प्रत्येक राष्ट्र या धर्म, पुरुष या महिला, परिवार या समुदाय को दूसरों को न केवल सहन करना चाहिए अपितु स्वीकार करना चाहिए और सभी की भलाई के लिए योगदान देना चाहिए। धर्म कट्टरपंथी नहीं हो सकता। यह अनुभवजन्य होना चाहिए। यह दृष्टिकोण ही बन्धुत्व ला सकता है। सनातन धर्म का केन्द्रीय विषय है, जो अनेक रूपों में अभिव्यक्त हुआ है, उस 'एक' की अनुभूति। भारत, जिसका जीवन-केन्द्र सनातन धर्म है, उसे विश्व का मार्गदर्शन करना है जो हठधर्मिता और भौतिकवाद से बाधित है। स्वयं को भारत के इस ध्येय का स्मरण कराने के लिए और साथ ही यह सन्देश देने के लिए ही हम ११ सितम्बर को विश्व बंधुत्व दिवस मनाते हैं।

भारत अपना ध्येय भूल चुका था। हमें यह सन्देश देने हेतु जागृत करने के लिए श्री रामकृष्ण परमहंस का जन्म १८३६ में हुआ था, ठीक उसी वर्ष जब मैकॉले ने शिक्षा का कार्यवृत्तहमारी बुद्धि को पूरी तरह और स्थायी रूप से गुलाम बनाने के लिए बनाया था।

हमारे धर्म के कुछ पहलुओं का उपहास करने के लिए मैकॉले शिक्षा जानबूझकर बनाई गई थी।

हिन्दू मूर्तिपूजक हैं,

वे शैतानों की पूजा करते हैं,

उनकी भाषाएं अत्यन्त अपरिष्कृत हैं और जब तक वे अंग्रेजी नहीं सीखते वे विकसित नहीं हो सकते,

भारत को तभी बचाया जा सकता है जब हिन्दू अपना धर्म त्याग दें और यीशु को ईश्वर का एकमात्र पुत्र और ईसाई मत को एकमात्र सच्चा धर्म के रूप में स्वीकार करें।

भारत असभ्य है क्योंकि वह अधिकतर गांवों में रहता है।

श्री रामकृष्ण का जीवन वास्तव में इनमें से प्रत्येक बिंदु में जो झूठा तर्क है, वह दिखाने के लिए था।

श्री रामकृष्ण की पूरी आध्यात्मिक साधना मूर्ति पूजा से शुरू होती है। उन्होंने अपनी साधना के माध्यम से प्रस्तुत किया कि हम हिन्दू मूर्तियों की पूजा नहीं करते बल्कि भगवान की पूजा करते हैं और इन मूर्तियों के माध्यम से उन्हें अनुभव करते हैं। इस प्रकार, उन्होंने अपनी सभी साधनाओं में प्रत्येक स्थान पर केवल भगवान को देखा और फिर भी मूर्तियों के माध्यम से उनकी पूजा चलती रही। अतः, मूर्तियों में भगवान की पूजा नवोदितों की आवश्यकता है और सिद्ध पुरुषों की समझ भी है। क्योंकि एक बार जब सत्य की अनुभूति हो जाती है, तो व्यक्ति अपने चारों ओर ईश्वर को पाता है।

उनकी इष्ट देवता काली माता थी, जिनका भयानक रूप उन लोगों के लिए शैतान सा लग सकता है जो आध्यात्मिकता की शैशव काल में हैं। परन्तु उन्होंने अपनी साधना से उन्हें ब्रह्मांड की माता के रूप में अनुभव किया।

वे अंग्रेजी नहीं जानते थे, और फिर भी केशवचन्द्र सेन, नरेन्द्रनाथ दत्त जैसे शिक्षित विद्वान, ज्ञान प्राप्त करने के लिए उनके चरणों में बैठ गए। इस प्रकार, उन्होंने दिखाया कि प्राप्त किया जानेवाला अंतिम ज्ञान, इंद्रियों और भाषाओं से परे है। अत: विद्वत्ता नहीं परन्तु परमात्मा के अनुभव का महत्त्व है।

उन्होंने विभिन्न साधनाओं के साथ-साथ यीशु की भी प्रार्थना की, और फिर भी वे ऋषि परम्परा द्वारा पोषित हिन्दू धर्म में बने रहे। उन्होंने अपने आध्यात्मिक साधना से अनुभव किया कि प्रभु यीशु ईश्वर के पुत्र थे, किन्तु ईश्वर के एकमात्र पुत्र नहीं थे। अन्यों को नकारनेवाले धर्मों की अपनी साधना से उन्होंने सिद्ध कर दिया कि अब्राहमिक मतवादियों के एकांगी दावे गलत हैं। सभी प्रकार की साधनाओं के बाद, उन्होंने कहा, “केवल हिन्दू धर्म ही सनातन धर्म है। आजकल आप जो विभिन्न पंथ सुनते हैं, वे ईश्वर की इच्छा से अस्तित्व में आए हैं और उनकी इच्छा से फिर से लुप्त हो जाएंगे। वे हमेशा के लिए नहीं रहेंगे। इसलिए, मैं कहता हूँ, “मैं आधुनिक भक्तों को भी नमन करता हूँ।” हिन्दू धर्म सदैव अस्तित्व में रहा है और सदैव रहेगा। (श्री श्री रामकृष्ण कथामृत, संस्करण ६, पृ. ६१०) सनातन धर्म अनेक ईश्वर या एक ईश्वर के बारे में नहीं है, बल्कि इस दृष्टि पर आधारित है कि केवल ईश्वर ही है। सारी सृष्टि केवल ईश्वर और ईश्वर की ही अभिव्यक्ति है। यह दृष्टि समावेशी और सार्वभौमिक दृष्टिकोण की ओर ले जाती है क्योंकि सब कुछ पवित्र और दिव्य हो जाता है।

उनका जन्म और पालन-पोषण गांव में हुआ था और उनके जीवन ने इस बात को रेखांकित किया कि भारत के गांव असभ्यता या पिछड़ेपन को नहीं दर्शाते बल्कि आध्यात्मिकता के धनी हैं।

स्वामी विवेकानन्द ऐसे ही व्यक्ति के शिष्य थे। इस प्रकार, यह बहुत स्वाभाविक था कि जब स्वामी विवेकानन्द धर्म संसद में सहभागी होने के लिए अमेरिका गए, तो उन्होंने बल देकर कहा कि सभी धर्म उनके अनुयायियों के लिए सही है। उनकी बातों के पीछे श्रीरामकृष्ण की सारी साधना थी। और, इसलिए, उनके भाषण ने ऐसा चिरस्थायी प्रभाव पैदा किया।

रोमां रोलां लिखते हैं, "सोमवार, ११ सितम्बर, १८९३ को, संसद का पहला सत्र प्रारम्भ हुआ ... इन सबके बीच एक युवक (विवेकानन्द) बैठा था जो किसी का प्रतिनिधि नहीं था किन्तु एक दृष्टि से जो सबका प्रतिनिधि था - वह किसी सम्प्रदाय से सम्बन्धित नहीं था, अपितु सम्पूर्ण भारत का था जिसने हजारों दर्शकों को आकर्षित किया था... जब वे बोले तो उनकी वाणी एक ज्वलंत मशाल की तरह थी, जिसने सबकी आत्माओं को झकझोर कर रख दिया... अन्य सभी वक्ताओं ने अपने ईश्वर और अपने ही सम्प्रदाय की बात की। केवल वे अकेले थे जिन्होंने उन सबके ईश्वर की चर्चा की और उन सबको एक सार्वभौम सत्ता में आबद्ध कर दिया। यह रामकृष्ण की वाणी थी जो उनके महान शिष्य के मुख से निःसृत हो समस्त बाधाएं तोड़ रही थी... आगामी दिनों में उन्होंने दस-बारह बार बोले। प्रत्येक बार नई युक्तियों और उसी विश्वास से उन्होंने सार्वभौम धर्म के जाति, देश कालातीत सिद्धान्त का निरूपण किया जो अंधविश्वासी आदिवासियों की जड़वस्तुओं की पूजा से लेकर आधुनिक विज्ञान की सृजनात्मक उपलब्धियों को सम्पूर्ण मानवीय आत्मा के साथ जोड़ता है। उन्होंने इनका भव्य समन्वय किया जिसने किसी एक भी आशा दीप को न बुझाकर, समस्त आशाओं को अपने सहज स्वभाव के अनुरूप बढ़ने का अवसर दिया। मनुष्य में अंतर्निहित दिव्यता और उसकी विकसित होने की अपार क्षमता के अतिरिक्त अन्य कोई सिद्धान्त न था।... इन ओजस्वी शब्दों का आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा। सम्मेलन के अधिकृत प्रतिनिधियों के साथ ही उन्होंने सर्व साधारण को सम्बोधित किए गए थे और बाह्य जगत उनसे आकृष्ट हुआ। विवेकानन्द की ख्याति देश-देशान्तर में फैली और उससे समग्र भारतवर्ष लाभान्वित हुआ...।“

“स्वामी विवेकानन्द, जिन्होंने अपने सबसे अद्भुत गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के प्रति पूरी तरह से आत्मसमर्पण कर दिया था, उनके बारे में बात करने के प्रलोभन में आसानी से आ सकते थे। परन्तु वे वहाँ पर सभी हिन्दुओं का, सम्पूर्ण ऋषि परम्परा का प्रतिनिधित्व करने के लिए उपस्थित थे। अतः एक सच्चे हिन्दू के समान, उन्होंने अपने व्याख्यान में सभी सम्प्रदायों के हिन्दुओं के सामान्य सिद्धान्त बताए। भगिनी निवेदिता के शब्दों में, “विश्व धर्म महासभा के सम्मुख स्वामीजी के अभिभाषण के बारे में यह कहा जा सकता है कि जब उन्होंने अपना भाषण प्रारम्भ किया, तो विषय था, ‘हिन्दुओं के धार्मिक विचार’, किन्तु जब उन्होंने समाप्त किया, तब तक हिन्दू धर्म की सृष्टि हो चुकी थी।.... स्वामी विवेकानन्द के अधरों से जो शब्द उच्चरित हुए, वे स्वयं उनके अनुभवजनित नहीं थे। न उन्होंने अपने गुरुदेव की कथा सुनाने के निमित्त ही इस अवसर का उपयोग किया। इन दोनों के स्थान पर, भारत की धार्मिक चेतना – सम्पूर्ण अतीत द्वारा निर्धारित उनके समग्र देशवासियों का सन्देश ही उनके माध्यम से मुखर हुआ था। ...उसी धर्म महासभा के मंच पर स्वामी विवेकानन्द के अतिरिक्त विशिष्ट मतों और संघों के धर्मदूत भी उपस्थित थे। किन्तु एक ऐसे धर्म का प्रचार करने का गौरव उन्हीं को था, जिस तक पहुँचने के लिए इनमें से प्रत्येक, उन्हीं के शब्दों में, विविध अवस्थाओं और परिस्थितियों के द्वारा उसी एक लक्ष्य तक पहुँचने के निमित्त ‘विभिन्न स्त्री-पुरुषों की यात्रा, प्रगति मात्र है।’

स्वामीजी जिन्हें अपने धर्म और राष्ट्र पर गर्व था, जिसकी उन्होंने वहाँ स्पष्ट रूप से घोषणा की थी, वे केवल अपने ही धर्म की महानता पर बल दे सकते थे। परन्तु तब वे हिन्दू धर्म के सर्व समावेशकता तथा सार्वभौमिकता का प्रतिनिधित्व कर रहे थे ताकि अन्य सभी धर्मों को सार्वभौमिकता के मार्ग पर मार्गदर्शन किया जा सके। यद्यपि उन्होंने अपने भाषण में कभी भी श्री रामकृष्ण या किसी अन्य ऋषि के नाम का उल्लेख नहीं किया, यह केवल उनकी शिक्षा थी जो उन्होंने प्रस्तुत की। अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा, “लेकिन एक बात जाननी चाहिए : महान संत विश्व के लिए विशेष सन्देश लेकर आते हैं, न कि नाम के लिए, किन्तु उनके अनुयायी उनकी शिक्षा को छोड़ देते हैं और उनके नाम पर लड़ते हैं - यह वास्तव में विश्व का इतिहास है। मैं इस बात पर ध्यान नहीं देता कि लोग उनका नाम स्वीकार करते हैं या नहीं, परन्तु मैं उनकी शिक्षा, उनके जीवन और उनके सन्देश को विश्वभर में प्रसारित करने के लिए अपना जीवन देने के लिए तैयार हूँ।”

अतः, यदि कोई ईश्वर के किसी एक नाम और रूप को ही एकमात्र सच्चा नाम और एकमात्र सच्चा रूप मानने पर जोर देता है तो यह संघर्ष को जन्म देगा। नाम और रूप का आग्रह विभाजन लाता है। यदि हम केवल 'सन्देश' पर बल दें तो बन्धुत्व सम्भव है, क्योंकि कोई भी आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति समावेशी होता है और इसलिए उनका दृष्टिकोण भी सार्वभौमिक होता है। एक सच्चे आध्यात्मिक व्यक्ति को समावेशी होना चाहिए। यदि कोई आध्यात्मिक होने का दावा करता है, परन्तु दूसरों को नकारता है, दूसरों के देवताओं की आलोचना करता है, तो आध्यात्मिकता का दावा झूठा है।

पश्चिम से लौटने के बाद, स्वामीजी ने भारत को मानवता के विकास के लिए यह ज्ञान देने के अपने विश्व मिशन को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके लिए उसे स्वयं को ऊपर उठाना होगा। उन्होंने बल देकर कहा कि सनातन धर्म भारत का जीवन केन्द्र है। इस प्रकार धर्म-पालन करने के लिए, देश के लिए भी काम करना चाहिए। उनके प्रेरक सन्देश ने कई लोगों को भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया। इस वर्ष हम भी स्वतंत्रता के ७५ वर्ष मना रहे हैं।

स्वतंत्रता आंदोलन इस दृष्टि से प्रेरित था कि भारत को अपने लिए नहीं बल्कि पूरी मानवता के लिए खड़ा होना है; उसे जीवन के सभी क्षेत्रों में अपनी राष्ट्रीय आत्मा को व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र होने की आवश्यकता है। इस प्रकार, स्वामी विवेकानन्द ने 'जगद्गुरु' होने के लिए 'हिन्दू राष्ट्र को आह्वान' किया। श्री अरविंद ने अपने बोध को साझा किया कि सनातन धर्म ही राष्ट्रीयता है, भारत का परिचय है। श्री बंकिमचन्द्र ने उन्हें 'दशप्रहरणधारिणी दुर्गा' के रूप में देखा।

महात्मा गांधी चाहते थे कि भारत की स्वतंत्रता के साथ ही रामराज्य प्रारम्भ हो। इन सभी महापुरुषों के दर्शन अभी पूरी तरह से साकार नहीं हुए हैं।

यद्यपि श्री रामकृष्ण के आगमन ने मैकॉले-मिशनरी-औपनिवेशिक शासकों के पूरे भारत को धर्मांतरित करने के सपने पर पूर्ण विराम लगा दिया, तथापि १९४७ में स्वतंत्रता के बाद भी, हम मानसिक, बौद्धिक और धार्मिक रूप से पूरी तरह से औपनिवेशिक विचारधारा से मुक्त नहीं हुए हैं। वर्ष २०३६ श्री रामकृष्ण के आगमन का २०० वां वर्ष होगा और इसके ठीक ११ वर्ष पश्चात् औपनिवेशिक शासन से भारत की स्वतंत्रता का १००वां वर्ष होगा। जब हम स्वतंत्रता के ७५ वर्ष पूरे होने का समारोह मना रहे हैं, तो हमें यह भी संकल्प लेना चाहिए कि २०४७ तक, जब भारत स्वतंत्रता के १०० वर्ष पूरा करेगा, भारत की आत्मा राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रकट होगी और भारत विश्व का आध्यात्मिकता में मार्गदर्शन करेगा। केवल जब सनातन धर्म को विश्वभर में समझा जाएगा और उसका पालन किया जाएगा, (इष्टदेवता और पूजा पद्धति भिन्न-भिन्न हो सकती है), तभी मानवता द्वारा विश्व बन्धुत्व का अनुभव किया जाएगा। यह नियति निर्धारित भूमिका भारत को निभानी ही है। आइए, हम ऐसे विश्व बन्धुत्व के लिए काम करें।

- निवेदिता भिड़े

राष्ट्रीय उपाध्यक्ष : विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी,

मूल अंग्रेजी – अनुवाद : प्रियंवदा पाण्डे,

जीवनव्रती कार्यकर्ता, विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी