हमारा कार्य, मूलभूत
कार्य है। हमें जड़ों को सींचना है। हमें जड़ों को सींचना है यानी क्या करना है?
अपना राष्ट्र, अपनी संस्कृति की जड़ें क्या है,
यह जानने का प्रयास करते हैं, तो पाते हैं कि
वेद हमारा मूल हैं, हमारी जड़ें हैं। इस ‘वेद’ के मर्म को समझना होगा। वेद अर्थात अस्तित्व का
सनातन नियम, हमारा जीवन दर्शन है। यही हमारी संस्कृति का मूल
है, राष्ट्र का मूल है। क्योंकि यह राष्ट्र ही सांस्कृतिक
राष्ट्र है। जब-जब अपने राष्ट्र पर आक्रमण हुए, कठिनाइयां
आईं तब-तब हमने अपने जड़ों को पहचाना और उसे सींचा, तब हमारी
संस्कृति का विकास हुआ। ऐसे तत्व जीवन में धारण करनेवाले जितने लोग समाज में रहें,
उतना ही इस समाज का, इस राष्ट्र का विकास हुआ
है। जब-जब यह तत्व छूट गया या आचरण में नहीं रहा, तब-तब
कठिनाइयों का सामना करते समय हमारे पांव लडखड़ाए या हम सामना नहीं कर पाए, या हम अपना विकास नहीं कर पाए।
विवेकानन्द केन्द्र में मा. एकनाथजी ने भी
उसी के ऊपर जोर दिया था,
और हम सब जानते ही हैं कि, इसीलिए उन्होंने विवेकानन्द केन्द्र की
स्थापना की। आज हम देखते हैं कि हमें स्वतंत्रता तो प्राप्त हो गई और हमारी बाह्य
विकास, आर्थिक स्थिति भी सुधर रही है। समाज भी संगठित हो रहा
है। लेकिन ये तत्व हमारे जीवन से चले जायेंगे, हमारी चेतना
में नहीं रहेंगे तो यह राष्ट्र बाह्य रूप से विकसित होते हुये भी दुर्बल रहेगा और
विकास स्थायी नहीं रहेगा। इसलिए ही अपने भारत राष्ट्र में इन तत्वों को हमारे जीवन
में धारण करते हुए, अपने व्यवहार से जड़ों को सींचते हुए लोगों को जोड़ने का कार्य
हमें सातत्य से करना है।
माननीय एकनाथजी ने विवेकानन्द केन्द्र को
एक प्रखर वैचारिक आंदोलन के रूप में खड़ा किया क्योंकि विवेकानन्द केन्द्र का
प्रयोजन जड़ों को सींचना हैं। यदि इन तत्वों को भूलकर हम कार्यक्रम के लिए
कार्यक्रम (एक्टिविटीस के लिए एक्टिविटी) करते रहेंगे तो कभी-कभी हमारे मन में
प्रश्न आ सकता है कि सच में हम जो कर रहे हैं, उसका कोई प्रयोजन है क्या?
वैचारिक आन्दोलन के रूप में हमारा प्रयोजन निश्चित है। हम इस प्रयोजन
को हम अपनी आँखों से, अपने चेतन स्तर पर या अपने व्यवहार से ओझल नहीं होने दें। ‘जड़ों को सींचना’ ही हमारा कार्य है। स्वामी
विवेकानन्द ने कहा है कि जब-जब भारत राष्ट्र का विकास हुआ, जब
भी यह राष्ट्र और भी प्रभावी रूप से उभरा उसके पहले आध्यात्मिक विचारों का यानी वेद
तत्वों का प्रसार समाज में हुआ था। अपने राष्ट्र में इस दृष्टि से अनेक उदाहरण
हैं। विद्यारण्य स्वामी पहले आए, हरिहर बुक्क ने विजयनगर
साम्राज्य खड़ा किया। स्वामी रामदास ने फिर से इसमें ध्यान केन्द्रित किया और उसी
को जीवन में लाकर कार्य करनेवाले श्रीमान् योगी शिवाजी महाराज ने फिर से आदिलशाही,
निजामशाही, कुतुबशाही, मुगलशाही
जैसे मुस्लिम आक्रान्ताओं की जो सत्ता बढ़ रही थी किन्तु युद्ध में हिन्दू मर रहे
थे ऐसी जो स्थिति बनी थी उसको ही उन्होंने बदल दिया। इसी तरह रामकृष्ण-विवेकानन्द
हैं। ऐसे अनेक उदाहरण ले सकते हैं। चाहे स्थानिक स्तर पर या अखिल भारतीय स्तर पर
पद्धति यही रही हैं आध्यात्मिक तत्वों का समाज में और जीवन में विकास और उसके बाद
कठिनाइयों को पार कर वैभवशाली इतिहास। ऐसे
अनेक उदाहरण स्थानीय स्तर पर या अखिल भारतीय स्तर पर दिखते हैं। जब-जब हम अपने
संस्कृति के मूल तत्व- जिसमें एकात्मता, आत्मीयता, संयम, नियम आदि का समावेश है, - को आचरण में उतारकर सम्मानपूर्वक जीवन जी रहे थे, तब-तब
हमने निश्चित रूप से कठिनाइयों को पार किया और फिर से समाज को वैभवशाली
बनाया।
एक उदाहरण है तमिलनाडु का - बिशप काल्डवेल
ने षड्यंत्र के तहत 1901 में शुरू किया कि तमिल लोग हिन्दू नहीं हैं, ये
द्रविड़ संस्कृति अलग है। द्रविड़ अलग हैं, आर्यों ने यहां
(भारत में) आकर उनको नीचे ढकेला आदि-आदि। इस प्रकार के जहर के बीज बिशप काल्डवेल
ने बोए, उस समय तो लोग हँसे। उनको पता था यह सही नहीं है। उदाहरणार्थ, १९०१ के सिर्फ तीन बरस पहले सन 1897 में अमेरिका से
भारत लौटने के बाद स्वामी विवेकानन्द जब मद्रास आए थे, तो
पहले दिन बहुत सारे लोग उनको सुनने आए। सभागृह के बाहर सभी जोर-जोर से स्वामीजी की
जयजयकार के नारे लगा रहे थे। भवन के अंदर जितने लोग थे, सभागार
के बाहर उससे 10 गुना लोग उपस्थित थे। लोग स्वामीजी को देखने
गए थे, पर देख नहीं पा रहे थे इसलिए वे नारे लगा रहे थे। इन
नारों के बीच स्वामीजी ज्यादा बोल नहीं पाए और स्वामीजी बाहर आ गए। बाहर एक रथ खड़ा
था जिसपर स्वामीजी को बैठाकर सभागार तक लाया गया था, उसमें
खड़े रहकर उन्होंने एक छोटा सा भाषण दिया। उस समय माईक की सुविधा नहीं थी। इतने
सारे लोग आए थे और उस भीड़ के बीच भाषण दिया और उस भाषण के समाप्त होने के बाद ‘भारतमाता की जय’ और ‘आर्य धर्म
की जय जय’ का उद्घोष हुआ। कल्पना कीजिए यह 1897 की बात है। 1901 में बिशप काल्डवेल ने ‘हम आर्य नहीं द्रविड़ हैं, आर्य ने द्रविड़ियों को
नीचे दक्षिण में धकेला है’ ऐसा कहकर जो जहर घोला था, इसका ही परिणाम था कि 1960 में डीके, डीएमके आन्दोलन तमिलनाडू में शुरू हुआ। उन्होंने बताना शुरू किया ये राम
आर्य हैं, रावण द्रविड़ियन है, हमारा
आदर्श रावण है। राम ने रावण को मारा, हम राम को सहन नहीं
करेंगे। हम राम के मंदिर तोड़ेंगे और राम के गले में चप्पलों की माला डालेंगे। और
ऐसा हुआ भी, मंदिर तोड़े गए, चप्पलों के
हार पहनाएं गए और वातावरण दूषित हो गया था। ऐसे समय में कांचीकामकोटि के शंकराचार्य
श्री चंद्रशेखरेन्द्र सरस्वती – जो 13 वर्ष की आयु में शंकराचार्य
हुए और 104 वर्षों तक वे रहें और बहुत लम्बे समय तक उन्होंने
कार्य किया- पैदल गांव-गांव जाते थे,
वे लोगों के बीच प्रवचन करते, रात को वीणा
बजाते-बजाते उस पर ही सिर रखकर दो घंटे आराम कर लिया करते थे। उनका जीवन एकदम
पारदर्शी था। वे गांव-गांव घूमते रहे और समाज में जो जहर डीके, डीएमके ने भरा उसे दूर किया। राम के जो मंदिर तोड़े थे, गणपति के जो मंदिर तोड़े थे, वे फिर से खड़े हुए।
इसी तरह अरूणाचल के तिरप, चांगलांग
जिले में एनएससीएन (नैशनल सोशलिस्ट काउन्सिल ऑफ नागालैंड) और ईसाइयत का प्रभाव
बढ़ने लगा। तीरप में सात लोगों जो समाज को अपने संस्कृति की रक्षा करने में नेतृत्व
देने की योजना बना रहे थे, उनको आतंकवादियों ने मार दिया। चांगलांग में लोग इकठ्ठा
आ सके, अपने इष्टदेवता की प्रार्थना कर सके इसलिए दो रंगफ्रा
के मंदिर बनाए लेकिन आतंकवादियों ने दोनों मंदिर जला दिए और लोगों को धमकी दी। तब
लोगों ने रातोंरात सबने मिलकर फिर से ये मंदिर बनाए। उन्होंने आतंकवादियों से यह
बताना शुरू किया कि हम आपके रिलिजन के खिलाफ नहीं हैं न हम ईसा मसीह को नकारते हैं
लेकिन हम अपनी संस्कृति का पालन करेंगे, सांस्कृतिक नियम से
जीवन जियेंगे। वहां के जन सामान्य डटे रहे और इस निश्चय, एकता और सजगता से आज
चांगलांग में 84 मंदिर विद्यमान हैं। अर्थात हम डटे रहें,
और अपने सांस्कृतिक विचारों को अपने आचरण में लाते हैं तो जीवन में
बदलाव आता है, समाज में बदलाव आता है।
वेदों में कहा गया है - ‘एकोSहमं बहुस्याम’। वह एक ही है जो विविध रूपों में
प्रगटित हुआ है, ये पूरा विश्व एक ही चैतन्य का विविधता भरा
रूप है। विज्ञान कहता है कि शरीर छोटी-छोटी कोशिकाओं से मिलकर बना है। ये जो
कोशिका है, हर कोशिका का जो प्रयोजन है, उन सबको जोड़नेवाला, जीवन देनेवाला प्राण है। इसी
प्रकार हम सभी ईश्वर में ही जुड़ें हुए हैं। इसलिए हम परस्पर जुड़े हुए, परस्पर सम्बंधित, एक दूसरे के पूरक, परस्परावलम्बी हैं। इसलिए व्यक्ति-परिवार, समाज,
राष्ट्र, सृष्टि, परमेष्टी
का अंग है। हम सभी को जोड़नेवाली चेतना ईश्वर है। हमें सोचना चाहिए कि, ‘मेरा व्यवहार समाज में ऐसा रहे कि मैं समरसता लाऊं, आनंद
लाऊं। मैं मेरे आत्मशक्ति में स्थित हो जाऊं। इसलिए मैं समाज में एकात्मता लाऊं,
विघटन न करूं और समस्या आने पर मैं टूटूंगा नहीं, निराश नहीं होऊंगा। अत: दो प्रकार की साधना मुझे करनी है, - एक समाज को जोड़ने की, समाज धारणा की और दूसरी अपनेआप
को दृढ़ रखने की और अंतत: ईश्वरस्वरूप होने की।’ इसलिए मुझे अपने स्वयं के भीतर के
ईश्वर के विस्तार को देखना होगा जो कि मेरे स्वयं से लेकर परिवार, समाज और राष्ट्र, सृष्टि तक विस्तारित है, यह समष्टि की निःस्वार्थ होकर कार्य करने की उपासना है। स्वामीजी के
अनुसार, यही ‘मनुष्य निर्माण से राष्ट्र का पुनरुत्थान’
है। इसे हम सरल भाषा में कहें तो आत्मीयता से व्यवहार करना। सभी से
हमारा व्यवहार ऐसा हो जैसे कि वह मेरा ही अंग है, जैसे माँ अपनी
संतान से करती है। यदि संतान गलत करे तो वह उसको थप्पड़ भी लगाती है, तो उस बालक की आँखों से आंसू आते हैं। और बाद में माँ अपने उस बच्चे का
दुलार करती है, प्यार करती है। विवेकानन्द केन्द्र के
कार्यकर्ता का व्यवहार आत्मीयता का होना चाहिए। अपने समाज में, राष्ट्र में इसी भाव को ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’
कहते हैं।
अपनी संस्कृति यज्ञ संस्कृति है। जो
व्यक्ति जन्म लेता है उसका पालन पोषण पूरा समाज करता है, परिवार
करता है, परिवेश करता है। इसी से वह व्यक्ति अपने जीवन में
हर एक कार्य करने के लिए सुयोग्य बनता है। अपनी योग्यता के बल पर व्यक्ति अफसर,
शिक्षक या जो भी है, वह कार्य करता है। उसी प्रकार माँ है तो माँ का
कार्य, पिता है तो पिता का कार्य, बड़े
भैया है भैया का कार्य, बहन है बहन का कार्य, दादा है तो दादा का कार्य, और नानी है तो नानी का
कार्य सफलतापूर्वक करता है। ये सारी योग्यताएं समाज में रहकर, समाज के सहयोग से मनुष्य अर्जित करता है। व्यक्ति जो भी कार्य करता है
उसके बदले उसे कर्मफल मिलता है, प्रतिष्ठा मिलती है। उस
कर्मफल या प्रतिष्ठा के कुछ भाग को समाज की धारणा या राष्ट्र के पुनरुत्थान में
समर्पित करना चाहिए, और बचा हुआ ही अपने लिए रखना है। वही ‘आहुति’ है। श्रीमदभगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण
कहते हैं, ‘तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्’
अर्थात् सर्वव्यापी परमअक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित
है। धर्म से समाज की धारणा होती है और यज्ञ से धर्मपालन होता है। श्रीमदभगवद्गीता,
में 3.15 श्रीकृष्ण कहते हैं,- यज्ञ के कारण
ही ‘धर्मचक्र’ चलता है। व्यक्ति में जब
स्वार्थ पनपता है तो यह यज्ञ रूक जाता है। और यज्ञ रूकता है तो समाज विपन्न और
विघटित होता जाता है जिससे बच्चों का योगक्षेम ठीक नहीं होता है और समाज और गिरता
जाता है। तो हमें 24 घंटे समाज की धारणा का हेतु मन में रखकर
उस भाव से कार्य करना है। यह 24 घंटे का कार्य हैं। ऐसा नहीं
कि मैं शिक्षक हूं तो चार-पांच घंटे ही शिक्षक रहूंगा। माँ या पिता हूं तो कुछ देर
के लिए ही माँ या पिता हूं। ऐसा नहीं होता, हम पूरे 24 घंटे शिक्षक हैं, माँ या पिता हैं। हम 24 घंटे समाज के अंग हैं, भले ही दायित्व के अनुसार
कार्य हम कुछ घंटे करते हों। इसलिए यही तत्व कि समाज में जो कुछ करूं पूर्ण
समर्पित भाव से करूं, समाज में अच्छे मूल्य प्रतिष्टित
रहे इसलिए मेरा भी व्यवहार संयमित रहे, यह भाव विद्यमान रहना चाहिए।
माननीय एकनाथजी ने उपनिषदों और वेदतत्व के
प्रकाश में विवेकानन्द केन्द्र का कार्य प्रारंभ किया इसलिए हमारा काम केवल
गतिविधियां करना नहीं,
बल्कि समाज में उन तत्वों की स्थापना करना और उसे बनाये रखना भी है।
इसलिए हम अपने भीतर दैवीय गुणों और दैवीय परिपूर्णता का अनुभव कर समाज का निर्माण
करें, यह हमारा लक्ष्य है। अपने समय का नियोजन कर हम कुछ
साध्य करना चाहते हैं। आध्यात्मिक शक्ति का अनुभव कर कार्य करना है, राष्ट्र का पुनरुत्थान करना है, यह भाव रहे। यह
विचार माननीय एकनाथजी ने केन्द्र की स्थापना के समय एक पत्रक में प्रकाशित किया था
जिसे और विस्तार से बाद में केन्द्र प्रार्थना में बताया है।
केन्द्र प्रार्थना के पांच पंक्तियों में
वेदों के तत्त्व निहित हैं जो हमारी संस्कृति की जड़ें हैं, उन्हें समझने का प्रयास
करेंगे।
१) ‘ध्येयमार्गानुयात्रा’ अर्थात् अपने ध्येय के मार्ग की जो यात्रा प्रारंभ की है, उसे हम ‘त्याग, सेवा और
आत्मबोध’ से ही विघ्नरहित बना सकते हैं। ये तीनों आयाम ध्येयप्राप्ति
के लिए आवश्यक हैं। इनमें से केवल दो हों, तब भी बात पूरी
नहीं होगी। तो पहला हमें ‘त्याग’ के महत्व को समझना होगा। हमें कुछ न कुछ चीज का त्याग करना होगा। समय,
ऊर्जा, व्यवहार या फिर अहंकार का त्याग। दूसरा,
‘सेवा’ होनी है अर्थात आत्मीयता कृति में
प्रकट होनी चाहिए और तीसरा, उसका आधार एकात्मदर्शन, आत्मबोध
हों। ये तीनों एक साथ हों। समाज के कई संगठन व क्लब काम करते हैं जिनमें त्याग है
और सेवा है पर ‘वेद दर्शन’ नहीं तो वे
समाज या राष्ट्र का निर्माण करेंगे, यह कह नहीं सकते। ऐसे कोई महंत होते हैं जिनके
जीवन में त्याग होता है, वे वेद तत्व के महत्व को भी समझते
हैं परंतु सेवा के कार्य में उसे परिणत नहीं करते इसलिए वे राष्ट्र पुनरुत्थान में
प्रभावी नहीं होते हैं। इसलिए त्याग, सेवा और आत्मबोध,
ये तीनों आयाम को लेकर ही हम राष्ट्र का पुनरुत्थान कर सकते हैं।
एकनाथजी कहते हैं- ‘इह जगति सदा न: त्यागसेवाSत्मबोधै:। भवतु विहतविघ्ना ध्येयमार्गानुयात्रा’। ‘इह जगति सदा’ अर्थात ‘हमेशा के लिए’ हमारे त्याग, सेवा
और आत्मबोध से हम इस यात्रा को पूरा करें। त्याग, सेवा और
आत्मबोध, केवल कभी-कभी नहीं तो हमारे जीवन में सदैव रखने का प्रयास करना है।
२) ‘वयं सुपुत्रा अमृतस्य नूनं’
हम ईश्वर के सुपुत्र हैं, ईश्वरस्वरूप हैं यह
भाव हमारे प्रत्येक कार्यकर्ता के हर एक व्यक्ति के हृदय तक पहुंचाना होगा। हम
आत्मस्वरूप हैं, हम शक्तिस्वरूप हैं, यह
सबको बताना होगा, हमें पुरुषार्थी बनना होगा। जो कार्य करना
है वो हम करेंगे ही उसके लिए आवश्यक शक्ति हमारे अन्दर निहित है। हम परिस्थिति से
निराश नहीं होंगे लेकिन परिस्थिति बदलने की शक्ति हम में है इस विश्वास से, धैर्य
से काम करनेवाले होंगे।
३) ‘निष्कामबुद्धयार्तविपन्नसेवा,
विभो! तवाराधनमस्मदीयम्’ अर्थात हम ईश्वर का पूजन ‘आर्त और विपन्न’ की सेवा से करें। हम हमारे कार्य से
ईश्वर की पूजा, साधना कर रहे हैं, यह
भाव रहे। स्वामी विवेकानन्द कहते थे, - ‘कार्य ही पूजा है’। भगवद्गीता और उपनिषद् में भी
कहा गया है कि हम इसी मार्ग से कार्य करते हुए 100 वर्ष तक
जियेंगे। अपने जीवन में संयम के लिए हम व्रत और पूजा-अर्चना करना है तो जरूर करें,
पर सच्ची ईश्वर पूजा ‘आर्त और विपन्न’ की सेवा ही है। ऐसा काम करने के लिए हमें 100 वर्ष
तक जीना है ऐसी प्रार्थना हमारे शास्त्र सिखाते हैं। इसलिए अपना काम ठीक से करते
जाएं। पहले ये सब डायनामिक्स हमारे कर्मभूमि में थे जो कहीं न कहीं अब छूट गए। लोग
आज काम को टालते हैं। ऊपर से बताते हैं कि ज्यादा काम मत करिए कारण जो काम करता है
उसे और ज्यादा काम दिया जाता है। अब हम तो इस मनुष्य योनि में अर्थात कर्मयोनी में
काम करने के लिए ही तो आए हैं। तो काम टालना क्यों? हम जितना
कर सकते हैं उससे अधिक करने का प्रयास करना है।
४) “तवैवाशिषा पूर्णतां
तत्प्रयातु” हां,
हम कुछ कार्य शुरू करते हैं लेकिन ईश्वर की योजना कुछ और हो सकती
है। ‘विवेकानन्द शिला स्मारक’ इसका
प्रत्यक्ष उदाहरण है। लोगों ने सोचा कि स्वामीजी की एक प्रतिमा मात्र स्थापित करनी
है। यदि वह बगैर बाधाओं के हो जाती तो फिर विवेकानन्द केन्द्र की स्थापना न होती।
ईश्वरीय योजना कुछ और थी। विवेकानन्द के विचारों को अर्थात ‘वेद
तत्व’ समाज में पहुंचाने थे इसलिए केन्द्र का सूत्रपात
आवश्यक था। कठिनाइयां न होती तो न एकनाथजी उस कार्य में आते, न ऐसा भव्य स्मारक खड़ा होता और न ही विवेकानन्द केन्द्र की स्थापना होती।
इसलिए कठिनाइयां आए तो पीछे न हटे, किन्तु क्षमताएं विकसित करें। हो सकता है कि मैं
कार्य में अच्छी हूं, पर लोगों से ठीक संवाद नहीं कर पाती,
तो मैं अपनी क्षमताओं को विकसित करूंगी। केवल कारण का रोना न रोएं।
‘कारण का रोना रोने से, कभी न कोई जीता है। जो विष धारण कर सकता है वह अमृत को पीता है’।
इसलिए कठिनाइयों का सामना करें, रोये
नहीं कि हमारी यहां तो कोई सुनता ही नहीं है, तो पता करें कि
क्यों नहीं सुनते; हम उनको अपनाएं और अपनाने की आदत को
विकसित करें। विचार करें, ऐसा तो नहीं कि बहुत ऑर्डर देने की मेरी आदत है, इस कारण से लोग मुझसे दूर चले जाते हैं तो अपनी इस आदत को सुधारें,
सबको साथ लें। यदि हम संगठन में हैं तो सभी को साथ लेकर चलें। अपनी
कमियां खोजें और स्वयं का आतंरिक विकास करें, यही जड़ों को सींचना है।
पांचवा बिंदु है - समाज को समृद्ध, वैभवशाली
करने का मंत्र और तंत्र - वह
मंत्र है ‘जीवने यावदादानं स्यात् प्रदानं ततोधिकम्’। हम जितना
लेते हैं उससे बहुत ज्यादा समाज को दें और यह तभी संभव है जब कार्यकर्ता का आतंरिक
विकास होगा, आत्मविकास होगा। मनुष्य का विकास दो तरह का होता
है- एक, बाह्य विकास यानी कौशल्य प्राप्त करना, जैसे- संचालन करना, भाषण देना, प्रशासनिक क्षमता, संवाद
कुशलता इत्यादि। इन्हें तो मनुष्य आवश्यकता के अनुसार शीघ्र सीख ही लेता है और यह
करना भी है। दूसरा विकास है - आंतरिक विकास। इसे सजगता से करना होता है। आंतरिक
विकास ही है - जड़ों को सींचना। आंतरिक विकास की पहल पहले स्वयं करें फिर सबका
आंतरिक विकास करने में सहयोगी बनें। आंतरिक विकास के बिन्दु इस प्रकार हैं :-
1. समय का नियोजन : आज समय
का नियोजन सभी के लिए आवश्यक है, चाहे पूर्णकालिक कार्यकर्ता
हों या अन्य सभी। पहले अपनी इस सुजलाम सुफलाम भूमि में हमें जीभ का संयम
करना होता था इसलिए बहुत सारे व्रत भी करते थे किन्तु आज तो गेजेट्स के उपयोग में
संयम की आवश्यकता है, उनमें हमारा बहुत समय जाता हैं। हमने स्वयं सोचना है की ‘मैं कितना समय दूं’। आज मोबाइल का व्रत भी बहुत
जरूरी है। संयम के साथ वाट्सअप, फेसबुक आदि का प्रयोग करें। 15 मिनट या आधा घंटा से ज्यादा वाट्सअप न चलाऊं, ऐसा
संकल्प हो। यदि मेरे मन में समाज के प्रति प्रेम है तो मुझे ‘संयम’ लाना ही होगा। यदि राष्ट्र के प्रति प्रेम है तो हम समय निकाल
ही सकते हैं।
2. वाणी पर नियंत्रण : आतंरिक
विकास का एक और लक्षण हैं - वाणी। वाणी से कार्यकर्ता की पहचान होती है। रामायण
में हनुमान की श्रीराम से जो प्रथम भेंट होती है उस समय हनुमान की वाणी से श्रीराम
प्रसन्न होते हैं और कहते हैं, “यह हनुमान जिनके पास रहेगा उनका कार्य साध्य होगा
ही।” सिर्फ हनुमान की वाणी से श्रीराम ने उनकी उत्तम कार्यकर्ता करके पहचान की।
क्या थी हनुमान की वाणी की विशेषता?
अ. अदीर्घम् :- कम शब्दों में अपनी
बात को पूर्णता से कहना।
ब. अविलम्बितम् :- सतत अपने कार्य के बारे तत्पर होने के कारण तथा
सारी जानकारी सदैव ध्यान में रखने के कारण प्रश्न पूछते ही जवाब दे पाना।
क. असंदिग्धम् :- अपनी बात को
स्पष्ट ढंग से रखना, संदिग्ध न रखना।
ड. अव्यथम् :- अपने शब्दों से
दूसरों को व्यथा न हो। वाणी से किसी को दु:खी न करना।
श्रीमद्भगवद्गीता में वाणी का संयम बताया
है कि स्वाध्याय से हम अपनी वाणी पर संयम प्राप्त कर सकते हैं। ‘अव्यथम्’
की साधना स्वाध्याय से होती है।
3. निरहंकारिता : ‘मैं’ नहीं, ‘हम’ की साधना करें, अहंकाररहित होकर कार्य करें। ‘मैं’ का लय करके कार्य करें। यह एक कठिन साधना है,
यही आत्मबोध, आत्मीयता की साधना है। जितना हम
आत्मबोध, त्याग और सेवा से कार्य करेंगे उतना सबको हम जोड़
पाएंगे और आत्मविश्वास से कार्य कर पाएंगे।
केन्द्र प्रार्थना के जो पांच बिंदु हमने
देखें, उसे हमें अपने जीवन में अंगीकार करने होंगे। भगिनी निवेदिता अपने ‘आक्रामक हिन्दुत्व’ व्याख्यान में कहती हैं कि हमें
अपनी बात को दृढ़तापूर्वक कहने का कौशल आना चाहिए तभी हम उस तत्व को समाज में
स्थापित कर राष्ट्र का पुनरुत्थान कर पाएंगे। समाज से ‘चलता
है’ यह भाव समाप्त कर सभी को अपनी क्षमता विकास के लिए
प्रेरित करना होगा।
शंकराचार्य श्री चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती
जी कहते हैं,- ‘यदि आप देश की अवनति को देखकर व्यथित नहीं होते हैं तो आप देशद्रोही हैं।
नालंदा विश्वविद्यालय हमारा संस्कृति का अभिन्न धरोहर था उसका निर्माण फिर से हो
रहा है। किन्तु हमारे दुर्भाग्य है कि नालंदा विश्वविद्यालय को देखने जाने के लिए
बख्तयारपुर होकर जाना पड़ता है। ये वही बख्तियार खिलजी है जिसने भारत के बाहर से
आकर नालंदा को जलाया था। अभी भी देश की आत्मा अपनी गरिमा से उठ नहीं सकती, क्योंकि हम जागरूक नहीं हैं। समाज आत्मविस्मृत होकर बैठा है। इसलिए आज इस
सोए हुए समाज को अपनी गरिमा से पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए खुद को गलाना होगा।
तिल-तिल मिटकर इस राष्ट्र को फिर से खड़ा करना होगा। जड़ोंको सींचना होगा।