Friday, 14 April 2017

रामायण अंक : राम सब के

रामायण और महाभारत इतिहास है। इतिहास और पुराण से वेद का उपग्रहण किया जाता है। दोनों कृतियाँ परिवार संगठन और परिवार-विघटन की कहानियाँ हैं।
वेद मानवता का संविधान है। वह मनुष्य को मनुष्य बनाता है। मनुष्य में मनुष्य होने का विचार और विश्वास जगाता है। वेद का मंत्र है -
वेदाहमेतं पुरुषं पुराणंयादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
सूर्य को देखकर आह्लादित मन की भावना व्यक्त हुई है इस मंत्र में। इससे दो प्रकार के विचार पैदा होते हैं; पहला - अहं सूर्य इव अजनि - मैं सूर्य की तरह पैदा होऊँ और दूसरा, क्या ऐसा सूर्य जैसे प्रखर व्यक्तित्व का धनी पुरु संसार में है ?
इस दूसरे प्रश्नात्मक विचार का उत्तर महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण महाकाव्य है। वाल्मीकि के मन में प्रश्न जागा - प्रश्न ब्रह्म उत्पन्न हुआ। समाधान किया नारद ने - पृथ्वी पर सूर्य वं में दरथ पुत्र राम साक्षात् सूर्य की तरह है - अंधकार से ऊपर।
इस बीच तमसा नदी के किनारे क्रौंचवध की घटना हो गई और वाल्मीकि के मुख से श्लोक का अवतरण हुआ -
मा निषाद ! प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेक मवधीः कामोहितम्।।
यह शापयुक्त वाणी हृदय की गहरी संवेदना से प्रकट हुई थी। यह प्रथम लौकिक कविता थी। ब्रह्मा ने आदे दिया कि तुम्हारे मुँह से जो सरस्वती प्रकट हुई है उसका सहारा लेकर रामकथा का गान करो। यों रामायण की रचना का विधान हुआ।
वाल्मीकि ने ऐसे व्यक्ति के विय में पूछा था - जिसमें 11 गुण हों। नारद ने दारथि राम का परिचय दिया, जिनमें 33 गुण थे। उस गुण सागर के चरित का गान रामायण में किया गया।
रथ की रानी कौसल्या ने राम को जन्म दिया और कैकेयी ने भरत को। सुमित्रा के दो पुत्र लक्ष्मण और त्रुघ्न।
राम के विय में राष्ट्रकवि मैथिलीरण गुप्त ने लिखा-
राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है ।
आधुनिक चिन्तन में जब राम मनुष्य बन गए तो उन्होंने यह भी कहा -
राम तुम मानव हो, ईश्वर नहीं हो क्या ?
तन मन में रमे हुए सब कहीं नहीं हो क्या ?
तो मैं निरीश्वर हूँ ईश्वर क्षमा करे
तुम न रमो तो मन तुम में रमा करे ।
राम रमते - रमण करने वाले न भी हो - कण कण में व्याप्त न भी हों तो कोई अन्तर नहीं आता। कवि का मन राम में रमना चाहता है - रम्यते असौर।
वाल्मीकि की रामायण सामने है जिसमें राम की सत्ता पुराण पुरु की है जो अन्धकार से परे है - सब दोशों से मुक्त है। तुलसी के रामचरितमानस में राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और मैथिलीरण गुप्त के साकेत में वे रम्य पुरु है, जिनको आराध्य मानकर कवि मन उन उनमें रमता है।
राम के भ्राता भरत के लिए तुलसी ने कहा -
विश्व भरण पोण कर जोई। ता कर नाम भरत अस होई ।
लक्ष्मण को लक्षण धाम माना गया। त्रुघ्न त्रु संहारकारी थे। अयोध्या में दरथ के भवन में चारों भाई बड़े हुए। विद्या प्राप्त करके योग्य बने। मिथिला नरे की पोषिता पुत्री सीता के साथ राम का और उनके भ्राता की कन्या उर्मिला के साथ लक्ष्मण का पाणिग्रहण संस्कार हुआ। भरत और त्रुघ्न का विवाह भी उनकी बहिनों के साथ ही हुआ। माण्डवी से भरत का श्रुतकीर्ति से त्रुघ्न का।
राम का राजतिलक हो रहा था कि कैकेयी ने दो वरदान दरथ से माँग लिए - भरत का राज्याभिषेक हो और राम चौदह वर्ष तक वन में वास करें। राम के साथ सीता और लक्ष्मण भी वन को गए। सुमित्रा ने लक्ष्मण को यह कह कर विदा किया -
रामं दरथं विद्धि माम् विद्धि जनकात्यनाम । अयोध्यामस्वीं विद्धि गच्छ पुत्र यथा सुखम् ।।
राम वन को चले गए। दरथ का देहान्त हो गया। राम ने दक्षिण भारत में निशाचरों का वध किया। रावण ने सीता का अपहरण कर लिया तो राम ने लंका पर आक्रमण करके रावण का वध कर दिया। उसका भाई कुम्भकरण और पुत्र मेघनाद भी मारे गए। राम ने विभीण को लंका राज्य सौंप दिया। वे अयोध्या लौट आये। उनका कहना था -
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते। जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
वन में राम ने अपने शील और सौन्दर्य से सुग्रीवादि वनवासियों को अपना बना कर रावण के विरुद्ध अजेय बना कर खड़ा कर दिया। यह राम के पराक्रम की कहानी है। राम का राज्याभिषेक अयोध्या में हुआ तब अयोध्या, अयोध्या बनी।
वेद के अनुसार अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्याहै। उसमें आत्मा राम विराजते हैं। ऐसे ही राम के अभिशेक से अयोध्या पुरी का नाम सार्थक हुआ।
रामकथा ने भारतीय समाज के लिए अनेक आदर्श दिए। माता, पिता और पुत्र, भाई-भाई, स्वामी और सेवक, पति और पत्नी और श्रेष्ठ मानव व्यवहार को रामायण में देखा जा सकता है। मानवीय सम्बन्धों की पवित्रता का आदर्ष रूप  राम कथा में देखा जा सकता है। राम लक्ष्मण के साथ हनुमान् का सम्बन्ध भी आदर्श है।
पुरुषार्थ के प्रतीक राम थे और सीता तुलसी के ब्दों में -
उद्भवस्थितिसंहार कारिणीं क्लेहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं राम वल्लभाम्।।
वन गमन के समय वह राम को आश्वस्त करती है -
अग्रतस्ते गमिष्यामि मद्नन्ती कुकण्टकान्।
सीता के श्रेष्ठ व्यक्तित्व का चित्रण होने के कारण वाल्मीकि ने रामायण को सीताचरितनाम दिया है। सीता के विय में पोक पिता जनक ने कहा - यदि पवित्रता की परिभाषा करना हो तो सी और ता कह दीजिए। कौसल्या ने सीता का परिचय दिया -
सीता - रघुकुलमहत्तराणां तु वधू अस्माकम् सुता एव।