Tuesday 15 November 2016

दिशा बोध

एकनाथ जी ने एक आध्यात्म उन्मुख सेवा मिशन के रूप में विवेकानंद केंद्र प्रारम्भ किया - जिसने हमें एक अंतर्दृष्टि और अवसर प्रदान किया कि हम कैसे ईश्वरीय साधन के रूप में देश के लिए काम कर सकते हैं। हम जो भी काम करते है, साधन भाव से करते हैं - ‘‘तवैव कार्यार्थमिहोपजात’’ यह मनोभाव कि हमारा चयन ईश्वरीय उपकरण के रूप में हुआ है - हमारे कार्य या सेवा को साधना में रूपांतरित कर देता है। इस उपकरण के मनोभाव का सतत अभ्यास योग है। योग केवल कुछ शारीरिक और श्वांस-प्रश्वांस का व्यायाम भर नहीं है। ये अभ्यास भगवान के काम के साधन को फिट रखने के लिए जरूरी है। योग का अभ्यास हमारे अंतस को शरीर और मन के साथ एकसूत्र में लाने जैसा जटिल कार्य करता है, जो हमारे आसपास सद्भाव को बढ़ाता है। 

एकनाथ जी ने ‘सेवा ही साधना’ में आदमी के विकास की यात्रा को बताया है । जन्म के बाद बच्चा केवल भूख को जानता है। जैसे जैसे बच्चा बढ़ता है, उसकी शारीरिक भूख धीरे-धीरे विभिन्न स्तरों पर बढ़ती है, जैसे शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक आदि। उसे अहसास होता है कि उसकी कामनाओं, इच्छाओं की पूर्ति भर पर्याप्त नहीं है, चारों ओर एक शांतिपूर्ण समाज की भी जरूरत है और फिर जब वह एक ऐसा समाज बनाने के लिए काम करता है, तब उसका स्वार्थ परमार्थ में बदल जाता है। इससे उसे प्रेरणा मिलती है, कि वह अपने जीवन के आसपास की चीजों का अर्थ और गहराई से समझ सके। उसे समझ में आता है कि सृष्टि में निरुद्देश्य कुछ भी नहीं है। इस अनुभूति से उसके दिमाग में सवाल कोंधता है कि अगर सबका कुछ ना कुछ उद्देश्य है, तो फिर उसके जीवन का उद्देश्य क्या है? 

एकनाथ जी का कहना है कि ‘‘जब यह सवाल उठे, तभी आदमी वस्तुतः वयस्क होता है, अन्यथा तो वह केवल एक मूछों वाला बच्चा ही है।’’ जब इंसान अपने जीवन का उद्देश्य खोजता है, तब उसे अहसास होता है कि सृष्टि में सब कुछ योजनाबद्ध है। यह सिर्फ किसी वस्तु या जीवित प्राणी की ही बात नहीं है, बल्कि परिवार, समुदाय, समाज और राष्ट्र जैसी समष्टियों का भी एक उद्देश्य है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि प्रत्येक राष्ट्र का अपना प्रारब्ध है, जो उसे भोगना होता है, प्रत्येक राष्ट्र के पास वितरित करने के लिए एक संदेश है, प्रत्येक राष्ट्र को पूरा करने के लिए एक मिशन है। हमारे राष्ट्र का मिशन पूर्ण करने के लिए हमें सौंप दिया गया है। मनुष्य को अपने राष्ट्र का मिशन विरासत में मिलता है। भारत का मिशन है दुनिया को आध्यात्मिकता, अर्थात एकत्व की दृष्टि देना । 

तो, जब हम पूरी ईमानदारी से जीवन के उद्देश्य की खोज शुरू करते हैं, हमें समझ में आता है कि यदि हम भारत में पैदा हुए हैं ‘‘इहोपजाताः’’, तो हमारा उद्देश्य भी आध्यात्मिक प्रगति में मानवता की मदद करना है। अतः आध्यात्मिक संदेश प्रसारित करने के लिए भारत को सक्षम संवाहक बनना होगा। इसलिए, भारत का पुनर्निर्माण, उसे जीवंत और आत्मविश्वास युक्त राष्ट्र बनाना हमारे जीवन का उद्देश्य बन जाता है। इसके लिए अपने आप को तैयार करना और अन्य अनेक को भी जागृत करना ताकि वे भी देश के लिए काम करने को अपने जीवन का उद्देश्य बनाने हेतु प्रेरित हों। इस प्रकार, मानव-निर्माण और राष्ट्र निर्माण आपस में जुड़कर हमारे जीवन का उद्देश्य बन गया है। निज परम हितार्थम का अर्थ है मनुष्य निर्माण, दैवीय प्रकृति (सद्गुणों) का प्राकट्य और राष्ट्र निर्माण द्वारा भारत को अध्यात्म में मानवता का मार्गदर्शन करने हेतु सक्षम करना। निज परम हितार्थम हेतु, मनुष्य निर्माण व राष्ट्र निर्माण गतिविधियों को संचालित करने के लिए संगठित प्रयासों की आवश्यकता है। मानवता को आध्यात्मिक बनाने के उच्च उद्देश्य हेतु संगठित प्रयास और उसके लिए राष्ट्र निर्माण अपने आप में एक साधना है। 

चूंकि हम भारत में पैदा हुए हैं, अतः इस देश का पुनर्निर्माण हमारे जीवन का उद्देश्य है। इसे केवल संगठित होकर ही किया जा सकता है। चूंकि राष्ट्र एक निष्क्रिय इमारत नहीं है अतः इसे व्यक्तियों के समूह द्वारा यंत्रवत बनाया जा सकता है। राष्ट्र चेतना का प्रवाह है, अतः राष्ट्र का पुनर्निर्माण अर्थात राष्ट्रीय चेतना युक्त स्थानीय नेतृत्व। इस काम के लिए, किसी को हमारे देश की आध्यात्मिक सम्पदा में गहराई से डूबना होगा। आध्यात्मिकता को व्याख्यान के माध्यम से प्रेषित नहीं किया जा सकता। आध्यात्मिकता का अर्थ कोई विशिष्ट धार्मिक या अन्य गतिविधि नहीं है। आध्यात्मिकता तो मन की एक विकसित स्थिति है, जो एकत्व की दृष्टि से आती है। एकत्व की यह जीवनदृष्टि और इन्हीं लाइनों पर विकसित मन व्यवहार में दिखाई देता है। इसके लिए हमें ‘‘कर्म योगैक निष्ठा’’ की आवश्यकता है। संतोष, धैर्ययुक्त मन, समावेशी दृष्टिकोण - प्रत्येक वस्तु में दैवीय तत्व की अभिव्यक्ति है, अतः सबको स्वीकार करने व सम्मान करने की जरूरत है - आत्म नियंत्रण और आपसी सद्भाव के लिए तत्परता से काम करने की जरूरत है। इसी प्रकार, हमारे देश के लिए संगठित तरीके से काम करने का मतलब है कि उसकी आध्यात्मिक जड़ों को जानकर तदनुसार काम करना और जीना, साथ ही टीमों का निर्माण करना। इसके लिए योग हमारे जीवन का मार्ग हो जाना चाहिए। अतः, भारत के पुनर्निर्माण में जुटे संगठन में काम करना अपने आप में एक साधना है और इसलिए, एकनाथ जी ने योग को विवेकानंद केंद्र के प्रमुख तत्व के रूप में चुना। 

जब हम राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए किसी संगठन में काम करते हैं, तब हमें अपने व्यक्तिमत्व से परे जाना होगा, एकजुटता की शपथ लेनी होगी। त्याग, सेवा और आत्मबोध के अभ्यास से हम एकजुट हो सकते हैं। संगठनात्मक काम, नाम-रूप की पहचान से परे जाने की साधना है। जितना ज्यादा हम नाम-रूप की पहचान से चिपकते हैं, उतना ही एक टीम के रूप में विकसित होना कठिन होता है। जब तक हम एक टीम के रूप में विकसित नहीं होते, हम संगठनात्मक काम नहीं कर सकते। ‘ऑर्गेनाईजेशन’ शब्द ही ‘ओर्गेनिज्म’ से बना है जिसका अर्थ है, सम्पूर्ण शरीर में एक जीवन को देखना। शरीर के कई कोशिकायें और अंग है। प्रत्येक कोशिका का अपना जीवन और कार्य हैं, किन्तु पूरे शरीर का एक ही जीवन है, एक ही चेतना है, इसलिए यह एक सुर में कार्य करता है। इसी तरह, हालांकि हम संगठन में कई हैं, हमारा उद्देश्य एक ही है और इसलिए, हम एकता की दृष्टि से काम करते हैं। 

योग का अर्थ है अपने भीतर से एक रूपता, उसे आत्मा या ईश्वर जो भी नाम दें - जो अंतनिर्हित है, (जो भीतर मौजूद है या कुछ में निहित है) जो हर जगह है और जिसका सामुदायिक स्वरूप परिवार, संगठन, समाज, राष्ट्र और पूरी सृष्टि में प्रकट होता है। जब हम ध्यान करते हैं, तब चेतना के साथ एकत्व का अभ्यास करते हैं, शरीर-मन की जटिलता से परे जाते हैं। जब ध्यान में नहीं होते, तब योगाभ्यास का उपयोग हमारे शरीर, मन की जटिलता को परिवार, संगठन, राष्ट्र और सृष्टि जैसी दैवीय अभिव्यक्ति की सेवा में लगाना होता है। हमारे केन्द्र की प्रार्थना में हम कहते हैं ‘‘आत्मबोध’’ जो कठिनाइयों को अवसरों में बदलने के लिए आवश्यक है। किन्तु उस आत्मबोध को प्राप्त करने के लिए अपनी आत्म-शक्ति पर प्रतिदिन ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है। एकनाथ जी ने ‘‘साधना ऑफ सर्विस’’ में कहा है ‘‘चाहे जितनी कठिनाई हो, किन्तु अगर सही ढंग से समझकर अपनी मन की आंखों के सामने रखा तो विचार की पूर्ति होगी ही ! प्रतिभाशाली वह है, जिसके मन में विचार और दिल में बेहद मजबूत इच्छाशक्ति है। दस प्रतिशत प्रेरणा और नब्बे प्रतिशत पसीना बहाने वाले को प्रतिभाशाली कहा जाएगा। यह पसीना भीतर की प्रेरणा की अभिव्यक्ति है।... अन्य सभी मदद विफल हो सकती है, किन्तु अगर आपके पास आत्मबल है तो आप कभी निराश नहीं होंगे । यह आपके स्वयं के पास है।’’ 

इस आत्म-शक्ति के दोहन की शक्ति ‘योग’ में है। कार्यकर्ता यदि ईमानदारी से अपने दायित्व का निर्वहन भगवान के साधन की भावना से करता है, तो यह उसकी साधना भी है और योगाभ्यास भी । यही कारण है कि एकनाथ जी ने योग को विवेकानंद केंद्र का मूल तत्व बनाया - ‘कर्मयोग एकनिष्ठा’ ! जब हम अपने काम को साधना के रूप में करते हैं, तब कार्यकर्ता में परिपक्वता आती है। कार्यकर्ता की परिपक्वता का आंकलन इससे नहीं होता कि वह कितने वर्षों से काम कर रहा है । यह गुणवत्ता है, जैसा कि एकनाथ जी ने कहा है, ‘‘परिपक्व कार्यकर्ता वह है जो स्वयं संचालित है और जिसे सुधारने और नवीकरण की जरूरत नहीं होती’’। हमें ऐसे ही कार्यकर्ता बनना है। साधना दिवस पर, हम एकनाथ जी से प्रेरणा लेकर ऐसे ही कार्यकर्ता बनने के लिए जीवन में आगे बढ़ें।