Thursday 24 April 2014

मर्यादाहीनता का दंश

संपादकीय अप्रेल २०१४
मर्यादा का सीधा सम्बन्ध हद, सीमा और नैतिक आचरण से है। आचरण से ही जीवन की रूपरेखा बनती है। अच्छे आचरण से सुखद जीवन और बुरे आचरण से दु...खद जीवन। इसीलिए हमारे पूर्वजों ने सभी के लिए आचरण की सीमाएँ तय  की हैं। अपनी-अपनी सीमाओं में किया गया आचरण ही मर्यादा कहलाता है सीमा को तोडकर किया गया आचरण, जहाँ दूसरों को कष्ट एवं दुख पहुँचाता है, वहीं वह अन्तत... स्वयं के लिए भी अहितकारी साबित होता है। स्वयं, परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए सबके अपने-अपने कर्तव्य होते हैं और इन सबके विकास तथा सुख-सम्पन्नता की इमारत, मर्यादाओं की जमीन पर खड़ी होती है। मर्यादाहीनता के कारण खिसकती जमीन पर कोई भी डा नहीं रह पाता है। अपने जमीर के साथ आचरण करने वालों के पैर हमेशा मजबूत रहते हैं। आचरण ही चरित्र का आईना है

स्वयं के द्वारा पाली गई महत्वकांक्षाओं की पूर्ति के लिए मर्यादा के साथ भरपूर प्रयास करते रहना तो उचित है लेकिन सफलता की जल्दी के चक्कर में अनुचित आचरण के सहारे मर्यादा तोड़ना, निर्धारित व्यवस्था के लिए घातक हैं। अपनी कामना और वासना के वशीभूत किसी का भी शोषण करना, लाचारी का फायदा उठाना, नारी की अस्मिता लूटना, जैसे सभी कृत्य, मनुष्यता पर कलंक हैं। भौतिकता की अन्धी दौड़ में जकडा वर्तमान मनुष्य प्राय... सभी हदों को तोड़ता हुआ, अपनी स्वार्थपूर्ति में जुटा हुआ हैं। अधिक से अधिक धन प्राप्ति के लिए अपनाए जाने वाले अनुचित हथकंडों को अपने व्यकित्व या प्रतिभा से जोड़कर देखने वाले लोग, वस्तुत... स्वयं को धोखा दे रहे हैं। व्यकित के चरित्र की नींव में उसके आचरण छिपे होते हैं। दुश्चरित्रता पर चरित्र का मुखौटा, दुर्गन्ध को इत्र से दबाने जैसा हैं।

परिवार के सभी सदस्य अपनी-अपनी मर्यादा में रहकर ही सुखी रह सकते हैं। एक भी सदस्य द्वारा भंग की गई मर्यादा का असर बाकी सभी पर पड़ता है और इससे गुटबाजी उभरकर, आपसी ईसष्र्या और वैमनस्यता को बढावा मिलता हैं। सिकुड़ते हुए त्याग और अपनत्व के अभाव में परिवार बिखरते जा रहे हैं। वासना के हावी होने पर रिश्तों की मर्यादा लज्जित हो रही हैं। रिश्तों को नोचने की कुछ ही वारदातें उजागर हो पाती हैं, बाकी तो लोक-लाज में दफन ही रहती हैं। धन और वासना, दो ऐसे प्रमुख भूत हैं, जो सिर पर चढ़ने के बाद हर रिश्ते को तार-तार करके मर्यादा तोड़ बैठते हैं।

 समाज का भी ऐसा ही रूप उभर रहा हैं। धर्म, रंग, भाषा, जाति, प्रान्त आदि के सहारे मतभेद अब मनभेद बनकर, मर्यादाओं के उल्लंघन पर उतारू हैं। प्राय... सब लोग, मनुष्यता को भूलकर अपने-अपने स्वार्थी खेमों में कैद होते जा रहे हैं। सामाजिक संगठनों में धन, पद और अहंकार हावी हो रहा हैं। समाज की एकजुटता के लिए प्रेम, सहयोग और त्याग जैसे मानवीय मूल्यों पर पश्चिमी संस्कृति हावी होती जा रही हैं। पग-पग पर मर्यादा का हनन आम बात होने लगी हैं। समाज को तोड़ने में  अपनी संस्कृति और संस्कारों को भूलने और अवहेलना की प्रवृत्ति, इसका मुख्य कारण हैं।

राष्ट्रीय पटल पर तो मर्यादा छूमंतर होती दिखती हैं। देश को चलाने वाले नेताओं की भाषा, चाल-चरित्र, आचरण आदि सबकुछ, मर्यादा रोंदने में जुटे लगते हैं। समाज और देश का मार्गदर्शन करने वाले कुछ धर्म गुरुओं के अमर्यादित कृत्यों को  देखकर, श्रद्धा और विश्वास कराहने लगा हैं। अपने-अपने मतलब में डूबे कर्णधार, आपसी टाँग-खचाई और भ्रष्टाचार में आकंण्ठ डूबने पर उतारू हैं। गरीब, शोषित, बेसहारा, दलितों-पिछडों को मर्यादा और नैतिकता का पाठ पढाकर, स्वयं मर्यादाहीन होकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं। ढेर सारे कानून, सामाजिक दबाव, शिक्षा का विस्तार और धार्मिक वर्जनाओं के होते हुए भी, मर्यादा अभी भी ऑक्सीजन पर है और यदि समय रहते नहीं चेते, तो वह जल्दी ही आई.सी.यू. में और फिर वेन्टीलेटर पर अपने वजूद के लिए तड़पती दिखाई देगी। अब इस दशा को मर्यादित दिशा देने हेतु संस्कारित युवाओं की दरकार हैं। काश ! नई पीढी इस भयावहता की गम्भीरता को समझ सकें।

 इस परिदृश्य के जिम्मेदार, हम सब हैं। कोई भी अछूता नहीं रहा, कमोबेश हम सब व्यक्तिशः... यदाकदा अपनी हितपूर्ति के लिए मर्यादा तोड़ ही देते हैं। अब भी समय है, जाग जाएँ... वर्ना तैयार रहें  झेलने को  मर्यादाहीनता का दंश