Tuesday 23 December 2014

चरैवेति - चरैवेति ...

चरैवेति सुक्तम् (ऐतरेय ब्राह्मण)


नानाश्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम।
पापो नृषदरो जन इन्द्र इच्चरतः सखा।।
                                                चरैवेति (7.15.1)
    पुष्पिण्यौ चरतो जङ्घे भूष्णुरात्मा फलग्रहिः।
 शेरेस्य सर्वे पाप्मानः श्रमेण प्रापथे हताः।।
                                                चरैवेति (7.15.2)
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगः।।
                                              चरैवेति (7.15.3)
कलिः शयानो भ्वति संजिहानस्त द्वापरः।
उत्तिष्ठंस्रोता भवति कृतं संपद्यते चरन्।।
                                             चरैवेति (7.15.4)
चरन्वै मधु विन्दति चरन्त्स्वादुमुदुम्बरम्।
  सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरन्।।
                                           चरैवेति (7.15.5)

 इस विशेष सुक्त को ‘चरैवेति सुक्त’ के नाम से जाना जाता है। यह ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ का एक अंश है और इसमें पाँच मंत्र हैं। वैदिक मंत्र हमारे प्राचीन ऋषियों जो कि उच्चतम आध्यात्मिक अनुभूति के व्यक्ति थे, द्वारा व्यवहारित और उपदेशित ‘जीवन और दर्शन’ का स्पष्ट संकेत देते हैं। उन्हें ‘मंत्र-दृष्टा’ के रूप में जाना जाता है। उनका प्रमुख उद्देश्य था मानवता को सही मार्गदर्शन प्रदान करना ताकि वह जीवन में सम्पूर्ण परितोष प्राप्त करने में समर्थ हो सके। ये मंत्र विभिन्न नामों वाले सर्वोच्च परमात्मा को संबोधित केवल प्रार्थनाएँ ही नहीं है अपितु इस संसार में, तत्काल सर्वतोमुखी समृद्धि की सम्पूर्णता की प्राप्ति के मार्ग को प्रकाशित करने वाले भी है। वे स्पष्टरूप से एक सकारात्मक और जीवन के प्रति आशावादी, स्वीकारात्मक और सर्वग्राह्य दृष्टिकोण को व्यक्त करते हैं; वे अक्षय और क्रियाशील व्यावहारिक ज्ञान की एक खान हैं। ‘चरैवेति सुक्त’ के पाँचों मंत्र उपर्युक्त कथन के उद्दीप्त उदाहरण हैं।

ये सुक्त हमें जागृत होने, कर्मठ बनने और आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। चरैवेति का अर्थ है - आगे बढ़ो और आगे बढ़ो क्योंकि केवल वे ही जीवन में सफ़ल होते हैं जो जागृत होकर आगे बढ़ते हैं। मानव जीवन सफ़ल होना ही चाहिए और उस सफलता का मार्ग है - सही दिशा में निरन्तर आगे बढ़ते जाना। यह आलंकारिक रूप में विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों को चार युगों से संबंधित कर उनके स्वभाव का वर्णन करता है। जब एक मनुष्य निष्क्रिय, आलसी और एक प्रकार से सोया हुआ ( यद्यपि शाब्दिक / वास्तविक रूप में वह जागृत है ) होता है तो वह ‘कलियुग’ में होता है। जब वह जग जाता है और सतर्क हो जाता है तो वह उसके लिए ‘द्वापर युग’ होता है। जब वही व्यक्ति अपने विवेक के साथ उठ खड़ा होता है तो वह ‘त्रेतायुग’ में प्रवेश करता है। वही व्यक्ति जब अपना कदम आगे बढ़ाकर चलना प्रारम्भ कर देता है, तो ‘कृतयुग’ प्रारम्भ होता है। एक ही व्यक्ति में, इन विभिन्न स्तरोें पर, प्रत्येक युग दिखाई देता है। ‘कृत युग’ का अर्थ है उसके स्वयं के प्रयास द्वारा निर्मित युग। हम सब एक साथ मिलकर भी कृता युग की रचना कर सकते हैं, इसे ‘सत्य युग’ के नाम से भी जाना जाता है अर्थात् स्वयं के प्रयास से निर्मित युग। उसके लिए हमें जागृत होकर निरन्तर आगे बढ़ना होगा। अपने भाग्य के मालिक आप स्वयं हैं; आप इसे बना सकते हैं या नष्ट कर सकते हैं। यदि आप केवल बैठे रहेंगे तो आपका भाग्य भी निष्क्रिय हो जाएगा। जब आप उठ खड़े होंगे तो आपका भाग्य भी उन्नत होगा। आपके सो जाने से आपका भाग्य भी सो जायेगा। केवल वही व्यक्ति जीवन का मधुर फल प्राप्त कर सकता है जो इसकी खोज में रहता है। निरन्तर आगे बढ़ने वाले व्यक्ति ही समृद्धि का मार्ग दिखा सकते हैं। सूर्य सभी के लिए प्रेरणा और ऊर्जा का स्त्रोत है क्योंकि वह कभी भी निष्क्रिय नहीं बैठता, आराम नहीं करता और सोता नहीं है। सूर्य को अपना आदर्श बनाइए, तब  केवल आप अकेले ही जीवन में सफ़ल नहीं होंगे अपितु अन्य समस्त लोगों के लिए प्रकाश और सक्रियता ले आएँगे। ये सभी पाँचों मंत्र, हमें व्यक्तिगत ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण समाज के लिए सफ़लता प्राप्त करने हेतु, सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करते हैं।

विवेकानन्द केन्द्र, स्वामीजी के सार्ध शती समारोह के रूप में दो वर्ष के पूर्ण निष्ठावान और देशव्यापी कठिन परिश्रम करने के पश्चात्, अब आगामी चरण में प्रवेश कर रहा है। इस प्रसंग में यह याद रखना अत्यन्त उपयोगी है कि हमने कही भी इस समारोह का समापन कार्यक्रम नहीं किया है। यह एक जान-बूझ कर, सोच-विचार कर लिया गया निर्णय था क्योंकि हमें यह अनुभूति हुई कि स्वामीजी का कार्य कभी भी समाप्त नहीं होगा। उसका समापन तो हो ही नहीं सकता। कार्य निरन्तर गतिशील है। उसे गतिशील रहना ही चाहिए। यह उस समय तक गतिशील रहेगा जब तक कि स्वामीजी की दिव्य मानवता की परिकल्पना साकार नहीं हो जाती। उन्होंने हमें मंत्र दिया है:- ‘उठो, जागो और रुको मत, जब तक कि लक्ष्य की प्राप्ति न हो।’ क्या यह मंत्र ‘चरैवेति’ के समान ही नहीं है ?

स्वामी विवेकानन्द एक प्राचीन ऋषि थे, जिनका पुनर्जन्म एक आधुनिक संन्यासी के रूप में यही संदेश प्रदान करने हेतु हुआ। केवल मुहावरा बदला है क्योंकि समय बदल गया है और लोग उसी आधारभूत सत्य को उस समय समझते हैं जब उसे आधुनिक मुहावरे में व्यक्त किया जाता है। स्वामीजी सर्वोत्कृष्ट ऋषि थे, जिन्होंने एक असाधारण ऐतिहासिक पुनर्जागरण ला दिया। वे यह भी चाहते थे कि भारत की पावन भूमि से अधिकाधिक ऋषियों का आविर्भाव हो और वे प्राचीन सत्य का आधुनिक माध्यम द्वारा सम्पूर्ण संसार में उपदेश प्रदान करें। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि इस मिशन की क्रियान्विति के लिए और अधिक ऋषियों का आविर्भाव होगा। उन्होंने हमारा आह्वान किया, ‘‘तुम में से प्रत्येक व्यक्ति को, संसार को प्रबुद्ध बनाने हेतु, एक ऋषि बनना होगा।’’ एकनाथ रानडे ऐसे आधुनिक ऋषियों में से सर्वाधिक सशक्त ऋषि थे। स्वामी विवेकानन्द के शताब्दी समारोह के दौरान उन्होंने आश्चर्यजनक शिला-स्मारक और कार्य को आगे बढ़ाने के लिए विवेकानन्द केन्द्र की स्थापना को एक कार्यकुशल मशीनरी के रूप में अपना जीवन-मिशन बना लिया। उन्होंने हमें कठिन परिश्रम करने, आगे बढ़ने और सम्पूर्ण सफ़लता प्राप्त करने हेतु उत्प्रेरित किया, चरैवेति - चरैवेति ।

अंतिम यथार्थता के अतिरिक्त अन्य प्रत्येक वस्तु निरन्तर गतिशील है। गतिशीलता जीवन का सिद्धान्त है। नदी निरन्तर बहती रहती है इसीलिए वह शुद्ध बनी रहती है। यदि वह बहना बंद कर दे, तो यह कीचड़युक्त पानी का एक तालाब मात्र रह जायेगी। पवन चलता रहता है इसीलिए जिस हवा में हम साँस लेते हैं वह शुद्ध है। एक बीज अपने खोल को तोड़कर एक पौधा बनने के लिए बाहर निकलता है, वह बड़ा होता है, प्रस्फुटित होता है और हमें फल प्रदान करता है। मनुष्य अपवाद नहीं है। समयानुकूल, बच्चे का जन्म होता है, वह बड़ा होता है और विकास की विभिन्न अवस्थाओं को पार करता है और अन्त में मर जाता है। परन्तु वह अन्त नहीं है, यह एक नये जीवन का प्रारम्भ है। संगठनों के संबंध में भी यही सत्य है। प्रत्येक संगठन को एक आंदोलन बने रहना चाहिए। अन्यथा वह निष्क्रिय हो जाता है। आंदोलन का अर्थ है - जीवन के अस्तित्व में रहना। जीवन में निरन्तर सम्पूर्ण स्व-नवीनीकरण चलता रहता है। यदि स्व-नवीनीकरण की प्रक्रिया थम जाती है तो यह जीवाश्म बन जाता है। जीवाश्मीकरण मृत्यु है, जीवन का अंत है।

सनातन धर्म के अनुसार तीन अवधारणाएँ हैं - सत्य, ऋतम् और धर्म। सत्य अपरिवर्तनीय और अनंत असन्दिग्ध सत्य है। यही वह बीज है जिससे, जो कुछ अस्तित्व में है, उनका आविर्भाव होता है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड, अपने समस्त स्वरूपों और नामों के साथ अस्तित्व के सभी स्तरों, भूत, वर्तमान और भविष्य सत्य की अभिव्यक्तियाँ हैं। ब्रह्मांड का अस्तित्व सापेक्ष है। यह ऋतम् द्वारा परिचालित एक शक्तिशाली आंदोलन है जो ब्रह्माण्ड का सिद्धान्त है। सूर्य, चन्द्रमा, तारे और ग्रह, प्रत्येक वस्तु अपने कक्ष में चलती रहती है, क्योंकि वे ऋतम् द्वारा परिचालित है। धर्म सत्य की अभिव्यक्ति है, ऋतम् समस्त सजीव और निर्जीव को संभालता है। धर्म वह है जो संसार का परिपोषण करता है। यह पशु-संसार में भी स्वतः संचालित है। यह संचालन उनके लिए सहज है। मानवता के स्तर पर यह सद्प्रयास उपयोगी है। धर्म का सप्रयास उपयोग किया जाता है। जब तक धर्म की पालना की जाती है, समाज स्वस्थ तरीके से चलता रहता है। यदि धर्म-पालन में चूक हो जाती है तो समाज विखण्डित हो जाता है। यदि इसे रोका न जाय तो समाज पतित हो जाता है और अन्त में स्वयं को नष्ट कर देता है। तब पुनः एक अवतार के रूप में दैविक हस्तक्षेप होता है और आंदोलन समाज की प्रगति की ओर गतिशील हो जाता है। धर्म-चक्र पुनः चलने लगता है। इसे ‘धर्म चक्र प्रवर्तन’ कहा जाता है। हमारे राष्ट्रीय जीवन में जो-जो पुनर्जागरण आंदोलन हुए हैं वे, जैसा कि भगवान कृष्ण द्वारा गीता में वचन दिया गया, सभी अवतारों द्वारा ही प्रारम्भ किये गये। श्री रामकृष्ण ऐसे ही एक अवतार थे और स्वामी विवेकानन्द ने उनकी परिकल्पना को अपना लिया, जो अब भाँति-भाँति के रूपों और तरीकों में स्वयं को अभिव्यक्त कर रही है। विवेकानन्द केन्द्र इस शक्तिशाली बहु-स्तरीय पुनर्जागरण आंदोलन का एक अंग है।

विवेकानन्द केन्द्र की कहानी एक शानदार उदाहरण है जो बतलाती है कि वैदिक मंत्र किस प्रकार आश्चर्यजनक कार्य कर सकते हैं। कन्याकुमारी आकर स्वामी विवेकानन्द एक चट्टान पर ध्यान में बैठ गए, उसके पश्चात् शताब्दी समारोह प्रारम्भ होने तक वह गहन निद्रा में थे और श्री देवी इस पर चौकसी कर रही थी। अचानक यह निद्रा भंग हुई और धीरे-धीरे चारों ओर हलचल मचाने वाली एक जागृति प्रारम्भ हुई। स्थानीय लोगों ने इस हलचल को महसूस किया। उन्होंने गति पकड़नी प्रारम्भ की परन्तु वह धीमी थी और जब विरोधी शक्तियों ने विरोध करना प्रारम्भ किया तो वे निःसहाय अनुभव करने लगे। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक सोच लिया कि स्वामीजी न तो उस शिला तक तैर कर गए होंगे और न ही इस शिला पर ध्यानावस्था में बैठे होंगे अतः स्वामीजी की इस यात्रा के यादगार में मुख्य भूमि पर एक नाम मात्र का स्मारक बनाना ही पर्याप्त होगा। परन्तु आंतरिक हलचल और चारों ओर उठने वाली आवाज़ ने उन्हें बेचैन कर दिया। शिला पर स्मारक के निर्माण हेतु एक समिति बनाई गई। कोई नहीं जानता था कि कार्य कैसे किया जाए ? उसके पश्चात् दैवी शक्तियों ने हस्तक्षेप किया और माननीय एकनाथजी त्वरित गति से उस स्थान पर, लोगों का आह्वान करते हुए, गए। लोगों में जागृति आई और माननीय एकनाथजी के साथ, अप्राप्य प्रतीत होने वाले कार्य को प्राप्त करने हेतु एक सुदृढ़ पहल करते हुए, भविष्य की योजना बना डाली। सम्पूर्ण देश के लोग इस आंदोलन को हार्दिक समर्थन प्रदान करने हेतु आगे आए। इसके अनुकरण में सम्पूर्ण राष्ट्र, चुनौती स्वीकार करने हेतु, मार्ग की समस्त बाधाओं का सामना कर उद्देश्य की पूर्ति हेतु तत्पर हो गया। इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द का वर्तमान शानदार स्मारक, प्रतीकात्मक रूप से, शरीर की पूर्ण ऊँचाई के समकक्ष, अपना दायाँ पैर आगे बढ़ाते हुए, स्थापित हो गया और आंदोलन प्रारम्भ हो गया। प्रारम्भिक तीन अवस्थाओं अथवा युगों के पश्चात् सत्य युग का सूत्रपात हुआ, जिसमें विवेकानन्द केन्द्र के नाम से एक सशक्त आंदोलन प्रारम्भ हुआ।

विरोधी शक्तियाँ पूर्णतया पराजित हो चुकी हैं। समस्त दैवीय शक्तियाँ एकजूट हो चुकी हैं। अगला चरण है धर्म-संस्थापना, समाज की अध्यात्म-केन्द्रित आदर्श व्यवस्था - सनातन धर्म पर आधारित सुव्यवस्थित, सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से सशक्त सुदृढ़ और प्रगतिशील समाज - भारत से प्रारम्भ कर समस्त विश्व में चारों ओर आध्यात्मिकता के संदेश को प्रसारित करते हुए - की स्थापना। विवेकानन्द केन्द्र को, इससे कम और अन्य कुछ भी नहीं का मिशन सौंपा गया है। केन्द्र-कार्यकर्ता केवल गौरव का ही अनुभव नहीं करते अपितु आगे बढ़कर समाज को अपने साथ लेकर धीरे-धीरे स्वामी विवेकानन्द और मानव के स्वप्न की स्थापना करने के उत्तरदायित्व का वहन कर सकते हैं। एकनाथजी का मानना था कि वास्तविक राष्ट्रीय जीवन में तब तक, न पीछे देखना है और न ही मार्ग में किंचित मात्र भी विश्राम  करना है। ‘चरैवेति’ हमारा मंत्र है। ‘उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए’ आह्वान है । आओ, हम आगे बढ़े ....

- पी.परमेश्वरन्
अध्यक्ष
विवेकानन्द केन्द्र

Friday 21 November 2014

राष्ट्रहित साधना सर्वोपरि


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Thursday 16 October 2014

अंधेरों का उजास


संपादकीय अक्टूबर 2014

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Tuesday 9 September 2014

याचक बनाती शिक्षा


संपादकीय 
(सितम्बर २०१४)


सामान्यत: तो गहन आर्थिक विपन्नता से घिरे व्यक्ति को, जो दूसरों के सामने हाथ फैलता है - उसे ही याचक, भिक्षुक या भिखारी कहा जाता है । लेकिन जो दूसरों का हिस्सा हड़पते हैं,शोषण करते हैं, अस्मत लूटते हैं, धोखा देकर उल्लू बनाते हैं, चोरी- चपाटी और भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं, अपनी हित-साधना के लिए किसी भी प्रकार का कुकर्म करते हैं और मानवीयता से शून्य, ऐसे सभी लोग भी कमोबेश याचक की ही श्रेणी में आते हैं चरित्र और श्रम शून्यता, व्यक्ति को भिखारी बनाती है । अज्ञान से ग्रसित लोगों में जब स्वार्थ, लोभ, पद-प्रतिष्ठा, अहंकार, वासना आदि की भूख मचलने लगती है, तो वे येन- केन प्रकारेण ऐसे कृत्यों को अंजाम देते है, जिससे वे अपनी हवस को तो पूरा कर लेते हैं लेकिन बाकि के लिए पीड़ा की कसक छोड़ देते हैं । संस्कारों से छिटके हुए लोग, अपने निजी हित के लिए, जब सर्वजन हित  को आघात पहुँचाने का प्रयास करते हैं, तो उनकी ऐसी चाहना - उन्हें याचक की पराकाष्ठा तक पहुंचा देती है । 

वैसे हमारी संस्कृति में याचक का बड़ा महत्व रहा है । बुद्ध के सभी शिष्य भिक्षुक ही कहलाते थे । गुरुकुलों के विद्यार्थी भी भिक्षाटन करके उदर-पूर्ति में संलग्न थे  वे सभी आदर्श भिक्षुक थे, जो समाज से भिक्षा ग्रहण करके, उसे दिशा-बोध देकर सूद सहित वापस लौटने का कार्य करते थे  सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो जन - जन से संपर्क स्थापित करते हुए, वे उनके अज्ञान को अपनी झोली में डालकर, ज्ञान बांटने का ही कार्य करते थे  उनका उद्देश्य निज-हित न  होकर, सर्व-हित के लिए समाजोत्थान का कार्य करना था । ज्ञान, संस्कार और चरित्र बल के धनी भिक्षुकों के सामने प्रजा ही क्या, राजा भी नतमस्तक हुआ करते थे । अपने ज्ञान और प्रतिभा को व्यक्ति व समाज निर्माण में लगा देना ही, उनके जीवन का ध्येय हुआ करता था  उनके त्याग और तपस्या का ही नतीज़ा था कि समाज में सत्य और अहिंसा की उपादेयता सर्व-स्वीकृत रही  शिक्षा अर्थात ज्ञान के अनमोल खजाने से भरे, ये भले ही भिक्षुक कहलाए परन्तु वास्तव में तो वे असली सम्पदा के मालिक थे ।  

समय ने ऐसी करवट ली कि असली भिक्षुकों के अकाल के कारण समाज में दिशा-बोधक सन्नाटा पसरता गया और हमने शिक्षा की वह डगर पकड़ ली, जो हमें भीतर की बजाय बाहर से भरने लगी  भीतर से खाली आदमी को बाहर से कितना भी भर दिया जाए, वह सुख-शांति से खाली का खाली ही रहता है  पाश्चात्य हवा कहें या अपनी ही बद्दुआ यानि खराब इच्छा, जिससे दिनोंदिन हम पतन की ओर बढ़ रहें हैं  इससे शिक्षा-शिक्षक-शिक्षार्थी कोई भी अछूता नहीं रहा !

शिक्षा कहीं से भी मिले - माँ की गोद, विद्यालय के प्रांगण, शिक्षक यानी गुरु, समाज, सत्संग, स्वाध्याय से - वह यदि प्रेम, करुणा, सहयोग आदि मूल्यों से भरी होकर, मनुष्यता का पाठ पढाए- तो ही वह वास्तविक शिक्षा है । केवल अच्छे से अच्छा जीविकोपार्जन ही शिक्षा का ध्येय नहीं है आज की शिक्षा ने याचक बनाने का ही काम किया है  बड़ा से बड़ा पैकेज, शिक्षा की नियति बन गई है  माँगना और अधिक माँगना याचक का यथार्थ है तथा देना और अधिक देना शिक्षा का फलितार्थ है । अत्यधिक आकाँक्षाओं ने समाज की व्यवस्था को डस लिया है ।  राष्ट्रहित सर्वोपरि की पुस्तक पढ़ना-पढ़ाना, अब बोझ लगने लगा है ! 

अच्छा पिता, पुत्र, माँ, बेटी, पड़ौसी, सम्बन्धी, कोई भी पद-धारी नागरिक अर्थात श्रेष्ठ मनुष्य बनाना ही शिक्षा का प्रयोजन है । लेकिन पाश्चात्य बयार में बहते सपनों से ग्रसित शिक्षा भिखारियों की भीड़ पैदा कर रही है, जो स्वार्थ का दमन थामें - हड़पने की कामना से भरे हुए हैं  विकास और समृद्धि के लिए विज्ञान और तकनीकि शिक्षा अत्यंत आवश्यक है लेकिन इसकी दिशा स्वयं और समाज के लिए नकारात्मक हो, तो वह शिक्षा सर्व सम्पन्नता से विमुखता की शिक्षा ही कहलाएगी । शिक्षा में नैतिकता की शून्यता, अज्ञानी कदम है  टी. वी., नेट, मोबाइल जैसे साधन हमें क्या परोस रहे हैं ? किस दिशा में शिक्षित कर रहे हैं ?? यह जग-जाहिर होता जा रहा है  आज समाज जो दंश झेल रहा है, वह हमारे द्वारा ग्रहण की जा रही, शिक्षा का ही परिणाम है । 

दहेज़ हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार, अन्धविश्वास, बेतुके हिंसक आन्दोलन, रिश्तों की दुर्दशा और ऐसी ही अनेकानेक भयावह पनपती घटनाएँ, संस्कार विहीन लोगों की कुत्सित कामनाएँ है, जिसकी पूर्ति के लिए वे याचक बन जाते हैं  हमारे सांस्कृतिक मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए, हमें एकजुट होकर, रोकनी ही होगी यह - याचक बनाती शिक्षा 





Sunday 10 August 2014

अस्मिता का फलितार्थ

संपादकीय (अगस्त २०१४) 
बचपन से मिले संस्कार, शिक्षा और संस्कृति के साथ संसार में कदम रखने वाला व्यक्ति, जब अच्छी-बुरी परिस्थितियों से गुजरता है, तो संसारी अनुभूतियों के साथ मिले अहं से उसका जो व्यक्तित्व बनाता है- वहीँ उसकी अस्मिता कहलाती है I अपने वज़ूद को कायम रखने के प्रयास में उसका अहंकारी हो जाना स्वाभाविक है और इसी के चलते अपने-अपने स्वार्थों के वशीभूत लोग, उसके प्रशंसक और निंदक हो जाते है I वाद-विवाद या बहस की जड़ें अपने-अपने अहं से खुराक लेती रहती हैं I आत्म-गौरव इसका सकारात्मक पक्ष है, तो झूठा अभिमान नकारात्मक पक्ष I सारा संसार इन दोनों पक्षों के बीच पेंडुलम की तरह झूलता रहता है I लोगों की नकारात्मकता की ओर बढ़ती भीड़ ने जीवन- मूल्यों की अस्मिता को खतरे में डाल दिया है I कोई भी दो लोग, पडौसी या देश हों, सभी अपनी-अपनी अस्मिता की दुंदूभी बजाते हुए, स्वयं को सही ठहराने की कोशिश में क्लेश भोगते रहते हैं I दुःख के कई कारणों में अस्मिता की जिद्द भी एक बड़ा कारण है I


     धर्म, जाति, भाषा, प्रान्त या किसी अन्य विषय को अस्मिता का मुद्दा बनाकर राजनीतिबाज़ों और समाज-कंटकों ने अपनी अस्मिता को पुष्ट करते हुए, लोगों को आपस में लड़ाया और इंसानियत की अस्मिता को दागदार बनाया I नारी की निजता यानी अस्मिता से खेलने वाले; चंद सिक्कों से गरीबों / असहायों का ईमान यानी अस्मिता खरीदने वाले; प्रेमी जोड़ों की हत्या में अपने सम्मान यानी अस्मिता ढ़ूढ़ने वाले; नाक या मूंछ के सवाल पर अहंकार याने अस्मिता को संवारने वाले; धर्म के नाम पर श्रद्धालुओं की आत्मियता यानी अस्मिता को भुनाने वाले; व्यक्तित्व के विकास को रोकने में उसके व्यक्तित्व यानी अस्मिता का छिद्रान्वेषण करने वाले और ऐसे ही अनेकानेक कृत्यों से सने लोग, अपनी अस्मिता के व्यामोह में फँसे रहते हैं I यह सभ्य मनुष्य की अवधारणा पर गहरा तमाचा है, जो अपंग सोच को उजागर करता है I 
 

                 मानवीय मूल्यों में प्रेम, सहयोग, त्याग, दया, अहिंसा, अपनत्व, श्रद्धा, सम्मान, शांति और करुणा जैसे तत्त्व होते हैं I समस्त प्राणी, जीवन में अच्छे स्वास्थय के साथ सुख-समृद्धि और शांति के अभिलाषी होते हैं I मानवीय मूल्यों से सराबोर इंसान ही इस अभिलाषा को प्राप्त कर सकता है I अपने दुखों के लिए दूसरों को कोसने की बजाय, यदि वह अपने होने के भान यानी अस्मिता को इंसानियत के रंग में रंग ले, तो फिर द्वेष से उपजी टकराहट स्वत: ही मिट जाएगी I ‘दो’ होने में दिक्कत है और ‘एक’ होने में शिद्दत I भारतीय संस्कृति इन्हीं मूल्यों में रची-बसी रही है और यहीं बोध, उसकी अस्मिता का उजला पक्ष है, जिससे ‘सर्वजन हिताय – सर्वजन सुखाय’ और वसुधैव कुटुम्बकम्’ जैसे वैश्विक सोच के स्वर फ़ूटते हैं I भारत की इस विशाल हृदयता ने वेदनापूर्ण समय की मार को झेलते हुए, अनेक संस्कृतियों को आत्मसात् किया और अपने होने के सबूत के साथ, विश्व को अपनी अस्मिता का परिचय दिया I भारत ने अनेक आक्रमण झेलते हुए भी आक्रामक होने से सदा ही परहेज़ किया, जो विश्व-बंधुत्व की नैसर्गिक समझ है I प्रकृति ने नाना प्रकार की वनस्पति, पहाड़, नदियाँ, खनिज सम्पदा जैसा प्रसाद मानव कल्याण के लिए परोसा है, लेकिन लोगों ने अपनी अस्मिता के गुरूर में प्रकृति की अस्मिता को लूटा है I भारतीय संस्कृति ने इन सभी को पूजकर, अपनी अस्मिता को स्थापित किया है I ज्ञान-विज्ञान, योग और अध्यात्म से दुनिया को परिचित कराकर, भारतीय ऋषि-मुनियों और संत-गुरुओं ने गूढ़तम उपदेशों और ग्रंथों द्वारा लोगों की अस्मिता को सही और सच्ची दिशा दी I भारतीय दर्शन सदैव ही मनुष्य को उत्कृष्टता की ओर ले जाने का हामी रहा है I आत्मा की अमरता और मनुष्यता को अस्मिता का प्राण माना गया है I विरासत में मिले ये ही मानवीय मूल्य, हमारी राष्ट्रीय अस्मिता है I


                  अतीत के अतिरंजित गुणगान से पैदा अहंकार, अस्मिता की जड़ता को बढ़ाता है I बदलते समय और परिवेश के साथ उभरती अति लोलुप अस्मिताएँ, किस दिशा में ले जा रही हैं – यह जग-जाहिर होता जा रहा है I दुनिया में हर-पल कहीं न कहीं इंसानियत का जनाज़ा निकलते देखकर भी, यदि अस्मिता को परिष्कृत नहीं किया गया और शाश्वत मूल्यों को जीवन में नहीं उतारा गया तो नकारात्मकता के साथ भुगतते ही रहेंगे, ऐसी- अस्मिता का फलितार्थ